कोरोना त्रासदी के कारण लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर भीड़ देख कर प्रतीत हुआ कि स्वतंत्र भारत में आज भी देश की करोड़ों जनता बदहाली में जी रही है. जब रहने की जगह सीमित हो, तो सोशल डिस्टेंसिंग को पालन करना नामुमकिन था. ऐसा लगता है, वर्षों बाद भी लोगों के रहने के लिए उचित प्रबन्ध नहीं हो पाया, उनकी सामाजिक स्थिति में भी बदलाव नहीं आया. मूल स्थान को वापस जाने वाले लोगों का जीवन कहीं से भी आसान नहीं दिख रहा है, लेकिन इस लॉकडाउन के दौरान आर्थिक दृष्टिकोण से उनके लिए शहर से ज्यादा गांव ही बेहतर है. दशकों से चलती विकास और आवास की योजनाएं आज भी पर्याप्त नहीं हो पाईं.


ब्रिटिश राज, या उससे पहले की किसी और साम्राज्य को इसका दोष देना अब उचित नहीं होगा. सरकार के हर बजट सत्र में न जाने कितने ही करोड़ रुपए, लोगों का जीवन संवारने के लिए आवंटित होते रहे हैं. चाहे वे शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारित संरचना, या रोज़गार हो. ये पैसे कहां खर्च होते हैं? क्या लोगों की बदहाली दूर करने की हमारी नीति और नियत साफ़ है?


मई की चिलचिलाती धूप में नंगे पांव चलते लोगों को देख कर लगता है कि ये देश आज भी बदहाली में जी रहा है. कुछ लोगों के लिए ये राजनीतिक अवसर प्रतीत होते हैं, लेकिन ये प्रश्न उन पर भी उतना ही कठोर है. यह बात बीते कुछ ही साल की नहीं है, यह आज़ादी के बाद आज तक सरकार में रहे सत्ता पक्ष और विपक्ष पर एक बड़ा सवालिया निशान है.


सोशल मीडिया के इस दौर में कुछ भी छुपाना नामुमकिन है. न जाने कितने ही दुःखद वीडियो के साक्षात्कार हो रहे हैं. कई सारी तस्वीरें भी आ रहीं है. हर आने वाली तस्वीर बीते कई दशकों की लगातार होने वाली लोगों की बदहाल जिंदगी को दर्शाती है.


लॉकडाउन के शुरुआती दिनों से ही न जाने कितने ही सड़क पर चलते हुए लोगों के वीडियो साक्षात्कार देखे. हर वीडियो को देखने के बाद मन बड़ा दुःखी हो जाता है. कैसे अपने कंधे पर एक पिता अपने बच्चों को लेकर, टूटे हुए चप्पल पैर में, सैकड़ों मील चलने को मजबूर है. कैसे एक मां अपने दूध पीते बच्चे को गोद में लिए चलते जा रही है. कैसे एक पिता अपने रिक्शे में पूरा परिवार को बैठा कर, दूर अपने घर जाने को ठान रखा है.


साइकिल की अगली हैंडल पर अपने बच्चे को बैठा, पीछे घर का सारा सामान बांध कर नंगे पांव चलता पिता, बाकी बचा हुआ घर का सामान उसकी पत्नी अपने सिर पर लिये मीलों जाने को निकल पड़े हैं. छोटी सी बच्ची के हाथ में प्लास्टिक की थैली, उसमें बिस्कुट का पैकेट और रास्ते में लोगों के द्वारा दिया गया खाना और दूसरे हाथ में पानी की बोतल, आगे पिता के गोद में उसका छोटा भाई, पीछे उसकी मां अपने मूल स्थान की ओर चली जा रही है. जो शायद उस बच्ची का जन्मभूमि भी ना हो. शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति, अपने पूरे परिवार को साइकिल पर बिठा, एक पैर से पैडल मारता अपनी मूल स्थान की और चला जा रहा है. इनमें से कुछ लोग सड़क हादसे का भी शिकार हो रहे हैं.


ऐसी लाखों कहानियां है, कोई ऑटो में, कोई ठेले पर, ट्रेन की पटरी के सहारे, कई लारी में, माल-गाड़ी में, और न जाने किन-किन स्थिति में दूर अपने मूल स्थान जाने को निकल पड़े हैं. और जो कुछ भी हो रहा है, उसे देख, किसी का भी मन दुखी हो जाए.


रास्ते से गुजरते गांव शहर के लोगों ने इन मज़दूरों की मदद ज़रूर की है, और कई राज्य की सरकारें भी मदद करने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं. कई NGO, निजी संस्थान, भी बढ़ चढ़ कर मदद करने को आगे आ रहें हैं. हर कोई इनको मदद करना चाहता है. कुछ लोग खाना खिला रहें हैं, कोई फल बांट रहा है, कोई पानी पिला रहा है, कहीं जूस बंट रहा है. ये सब देख कर लगता है कि देश की एकता और अखंडता पर कोई सवाल नहीं है. मदद करने वालों की कोई कमी नहीं है. हर कोई एक दूसरे के दुःख में शामिल है.


यह वो मज़दूर हैं जिनके पास जमा पूंजी नहीं के बराबर है, क्या इनके पास सरकारी योजनाएं पहुंच रही है, या इनका हक़ कोई और तो नहीं ले रहा है? कैसे इतने लोग भूखे है जब देश में इतनी सारी योजनाएं दशकों से चल रही है, इनको गरीबी से, बदहाली से बाहर निकलने के लिए? इतने दिनों से शहर में रह रहे मज़दूरों को कैसे इस लॉकडाउन में इनको आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है? कोई इन्हें बेवकूफ़ तो नहीं बना रहा, इनकी जमा पूंजी, कहीं कोई साहूकार तो नहीं हड़प रहा? ग्रामीण क्षेत्र के विकास और आवास की न जाने कितनी ही योजनाएं चलती रहती हैं. कहीं इन योजनाओं का लाभ कोई और तो नहीं ले रहा? गरीबी हटाओ का नारा शायद इन मज़दूरों के पैदा होने से पहले ही आ चुका था. लेकिन आजतक भी राजनीतिक इच्छा शक्ति इसको दूर करने की कम ही नजर आती है.


कुछ दूसरी तस्वीरे भी आ रही हैं, ग्रामीण और शहरी क्वारंटाइन सेंटर से, जो की सरकारी स्कूल, चिकित्सा केंद्र, पंचायत भवन और न जाने कई सरकारी संस्थानों की हैं. टूटे हुए नल, गन्दे शौचालाय , धूल मिट्टी में लिपटे हुए फर्श, टूटे - फूटे कमरे, बिना शौचालाय के स्कूल, गन्दगी का ढेर और उसमे पनपते हुए मच्छर, इत्यादि. इन सभी तस्वीरों ने देश की दुर्दशा और दुर्वय्वस्था को बयान किया है. इनकी देख - रेख और मरम्मत के लिए जो इतनी सारी सरकारी कोष आवंटित हुए आजतक, वो कहां गए?


केंद्र/राज्य सरकार, देश के गणमान्य नागरिक, मीडिया और कई NGO इस पर आज निरंतर वाद - विवाद कर रहे हैं कि कोरोना त्रासदी को लेकर जो योजनाएं बनी हैं, इस वक़्त के लिए काफी है या नहीं? शायद कोरोना पर नियंत्रण कुछ दिनों में हो जाये, लेकिन मज़दूरों की बदहाली पर आज तक नियंत्रण क्यों नहीं हो पाया? क्यों ये आज भी मदद के पात्र हैं, क्या हुआ उन सभी नीतियों का, क्या हुआ आवंटित बजट का? क्यों आज ये सारी योजनाएं विफल होती नजर आ रही है? इन सारी योजनाओं पर होने वाला खर्च का जवाबदेह कौन है, देश की जनता, राज्य/केंद्र सरकार, ग्राम के पंचायत या कोई नहीं?


सड़क पर चलते मज़दूरों को देख कर यही अनुभव हुआ की इनकी सामाजिक स्थिति पहले जैसी ही है. ये कोरोना त्रासदी ने बीते कई दशकों में भारतीय राजनीतिक की मंशा दरसाई है. इस त्रासदी से आज पूरी दुनिया लड़ रही है, लेकिन भारत में इसने जो नुकसान पहुंचाया है, उससे कहीं ज्यादा बीते तिहत्तर साल में बदहाली की सच्ची तस्वीर दिखाई है.


(हेमन्त झा एक विपुल विचारशील लेखक हैं, नियमित रूप से सार्वजनिक समस्याओं, कार्यक्रमों और शीर्ष प्रकाशनों में पब्लिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करते हैं. नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)