कृपया चूहों की ताकत को अंडरएस्टीमेट न करें

मशहूर कहावत है- 'नेकी कर दरिया में डाल'. लेकिन इधर एक नई कहावत गढ़ने की कोशिश हो रही है, 'बदी कर चूहों पे डाल' बेचारे चूहे, जाएं तो जाएं कहां? बिहार में पुलिस के मालखानों से शराब गायब हुई तो कह दिया, "चूहे पी गए" . महाराष्ट्र में तो हद ही हो गई, घोटाला करने के लिए लाखों चूहों को लिटरल सेंस में 'मार ही डाला'
बात दरअसल यह है कि महाराष्ट्र के एक पूर्व मंत्री ने चूहा घोटाले का पर्दाफाश किया है. जिसके तहत मंत्रालय में एक सप्ताह के अंदर तीन लाख से ज्यादा चूहे मारने का दावा किया गया था. जाहिर है, यह भ्रष्टाचार था और चूहों को बिना मारे ही कागजों पर मार डाला गया. एक मान्यता के अनुसार अगर किसी की मृत्यु के बारे में अफवाह फैला दी जाए तो उसकी उम्र बढ़ जाती है. इस हिसाब से तो जिंदा बच गए चूहों को फायदा ही होगा.
यह पहली बार नहीं है जब चूहों की आड़ लेकर गड़बड़ की गई है. आपको याद ही होगा कि बिहार में शराबबंदी के बाद पुलिस के मालखानों से जब्ती वाली लगभग नौ लाख लीटर शराब रातोंरात गायब हो गई थी और इसका ठीकरा चूहों के सिर पर फोड़ दिया गया था. लेकिन न तो किसी ने बिहार की सड़कों पर चूहों को ‘हमका पीनी है’ की धुन पर चुलबुल पाण्डे जी की तरह नशे में मटकते देखा, न ही चूहे बोतलों में फंसे नजर आए. अब ये लाखों लीटर शराब गटक जाने वाले असली मूषक थे या मनुष्यावतार, इसका खुलासा होना बाकी है.
हाल ही में चूहों को दो बार और कहावतों में लपेटने की कोशिश की गई. हमारे देश में जब नोटबंदी हुई तो उसके हासिल को लेकर कहा गया कि 'खोदा पहाड़ निकली चुहिया'. सत्ता पक्ष के नेतागण इससे हतोत्साहित नहीं हुए और उन्होंने इस आशय के बयान दिए कि बड़े-बड़े नोटों के ढेर पर बैठे चूहों को बिलों से बाहर निकालने के लिए ही नोटबंदी की गई थी. उनका इशारा 'भ्रष्टाचारियों' की तरफ था. लेकिन इस चक्कर में उन्होंने चूहों को नाहक बदनाम कर दिया.
दूसरी घटना थी, जब हमारे कुछ उद्योगपति बैंकों में घोटाले कर विदेश भागे या फिर केंद्र में एनडीए के कुछ सहयोगी दल साथ छोड़ने लगे तो कहा जाने लगा कि ‘जब जहाज डूबने वाला होता है तो सबसे पहले चूहे भागते हैं’ यह भी एक मान्यता प्राप्त कहावत है. इतना तो स्प्ष्ट है कि जो भी कुछ गलत होता है, उसका नाता चूहों से जोड़ दिया जाता है. क्या यह अन्याय इसलिए हो रहा है कि चूहे संगठित नहीं हैं या फिर उनका कोई वोटबैंक नहीं है?
मुझे याद है कि आज से लगभग 25 साल पहले जब हम रातपाली की ड्यूटी निभाकर घर लौट रहे होते थे तो मुंबई की लोकल ट्रेनों के डिब्बों में अक्सर चूहे नजर आ जाते थे. सड़कों के किनारे कचरे के ढेर पर, ट्रेन की पटरियों पर, गटरों में, दुकानों के अगल-बगल, सब्जी मंडियों में, गोदामों में, बंदरगाहों में, पुस्तकालयों में- जहां देखिए वहां मोटे-मोटे चूहे धमाचौकड़ी करते नजर आते थे. यह मंजर देख कर जगतप्रसिद्ध उपन्यासकार अल्बेयर कामू के कालजयी उपन्यास ‘द प्लेग’ का भयंकर नजारा जीवंत हो जाता था. ये बेअदब और मुंहजोर चूहे किसी को भी काट लेते थे जिससे जान-माल का बड़ा नुकसान होता था.
जब सरकारी अमला चूहों की आबादी को काबू में नहीं कर पाया तो बीएमसी ने महानगर में प्लेग और लेप्टोस्पाइरोसिस फैलने के भय से प्रति चूहा रेट फिक्स करके चूहे मारने का ठेका निजी हाथों को सौंप दिया. दावे की पुष्टि के लिए चूहों की लाशें गिनानी होती थीं. बेरोजगार लोग रात-रात भर जागकर लाठी और टॉर्च से लैस होकर चूहे मारते फिरते थे. लेकिन कहते हैं कि उसमें भी बड़ा भ्रष्टाचार हुआ. मारे गए चूहों की संख्या कुछ और होती थी, कागज पर भुगतान कुछ और. लेकिन तब बात दबी रह गई थी.
इस बार तो फडणवीस सरकार के ही पूर्व राजस्व मंत्री एकनाथ खड़से ने एक आरटीआई के हवाले से विधानसभा के अंदर ‘चूहा घोटाला’ उजागर कर दिया है. उनका दावा है कि जब बीएमसी अपने विशाल तंत्र के साथ 730 दिन में मात्र 6 लाख चूहे मार पाती है, तब कोई निजी कंपनी महज 7 दिन में मंत्रालय की इमारत के भीतर 319400 चूहे कैसे मार सकती है. यह गणना अमानवीय और अविश्वसनीय लग सकती है किंतु इस हिसाब से तो एक दिन में प्रति मिनट 31.68 चूहे की दर से लगभग 45000 यानी 9125 किलोग्राम चूहे मारे गए. सवाल यह भी है कि इन्हें कितने ट्रकों में भर कर कहां दफनाया गया और ले जाते हुए किसने देखा?
इन दिनों यह प्रकरण महाराष्ट्र समेत पूरे देश में चटखारे लेने का सामान बना हुआ है और बेचारे चूहे पॉलिटिकल स्कोर सेटल करने के काम आ रहे हैं. मशहूर और प्रतिष्ठित उपन्यासकार बदीउज्जमां ने अपने बहुचर्चित फैंटेसी उपन्यास ‘एक चूहे की मौत’ की रचना प्रक्रिया का सार समझाते हुए कहा था कि सारी दुनिया ही एक बहुत बड़ा चूहाखाना है, जहां चूहेमार बनकर ही जिंदगी बसर की जा सकती है. लेकिन हमारा कहना है कि एक चूहे की जान की कीमत महज 18 रुपए नहीं होती इसलिए चूहे की ताकत को कभी भी अंडरएस्टीमेट न किया जाए. ‘बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?’ जैसी चूहों के लिए अपमानजनक कहावतें बनाने वालों से लेकर चूहों के नाम पर घोटाले करने वाले लोग यह न भूलें कि अगर चूहे अपनी औकात पर आ जाएं तो मज़बूत से मजबूत इमारत की नींव को भी ध्वस्त कर सकते हैं. हा! हा! हा!
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