पीएम नरेंद्र मोदी ने साल 2019 के पहले ही दिन टीवी पर सवालों के अपेक्षाकृत बड़े दायरे का सामना करके यह जताने का प्रयास किया कि वह प्रेस या संसद का सामना करने से हरगिज नहीं घबराते. लेकिन इंटरव्यू दिखाए जाने के 24 घंटे बाद ही उन्होंने संसद में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और विपक्षी दलों के प्रश्नों का उत्तर देने के बजाए पंजाब जाकर रैली करना बेहतर समझा. इससे स्पष्ट हो गया कि आगामी 2019 के आम चुनाव उनके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं. पीएम मोदी के वर्तमान शिड्यूल से जाहिर है कि उन्होंने गुरदासपुर की रैली के साथ ही लोकसभा चुनाव घोषित हुए बगैर ही शंखनाद कर दिया है.


आगामी एक-दो माह के अंदर 20 राज्यों में लगभग 123 सीटों पर 100 तूफानी रैलियां करने की उनकी योजना है. लेकिन मूल प्रश्न यह है कि पीएम मोदी मतदाताओं के सामने अबकी बार कौन से मुद्दे लेकर जाएंगे? एनडीए सरकार यूपीए के भ्रष्टाचार, शासन-प्रशासन की पंगुता और अपनी बहुप्रचारित महत्वाकांक्षी योजनाओं को लेकर जनता के सामने अब पहले जैसे आत्मविश्वास के साथ खड़ी नहीं हो पाएगी क्योंकि उज्जवला योजना, स्वच्छ भारत अभियान, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, मुद्रा योजना आदि सरकारी विफलता की दास्तान बन चुकी हैं.


कोर्ट, कैग, चुनाव आयोग, लोकपाल, आरबीआई, सीबीआई, ईडी आदि संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उपजे अविश्वास ने नित नई इबारतें लिखी हैं. केंद्र की आयुष्मान भारत योजना का क्रियान्वयन और असर देखा जाना अभी शेष है. लेकिन काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती. यद्यपि वोट बैंक की दृष्टि से पीएम आवास योजना और एससी-एसटी एक्ट को लेकर संसद में पलटा गया सुप्रीम कोर्ट का निर्णय उसके लिए अवश्य ढाल का काम कर सकता है.


पीएम मोदी ने एएनआई को दिए इंटरव्यू में कहा है कि मंदिर मुद्दे पर वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे, लेकिन राम मंदिर के मुद्दे पर संघ परिवार द्वारा बनाया जाने वाला माहौल भी बीजेपी के लिए तिनके का सहारा बन सकता है. इसके बावजूद पीएम मोदी और बीजेपी के रणनीतिकार यह जानते हैं कि 2014 और 2019 के बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका है, मोदी मैजिक भी असर खो रहा है, सत्ताविरोधी लहर भी बीजेपी का ही पीछा करेगी, इसलिए केंद्र की सत्ता में वापसी के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना ही पड़ेगा. इसके बरक्स प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस का चुनावी ठंडापन देखकर कहीं से नहीं लगता कि उसे आम चुनाव लड़ना भी है.


फिलहाल वह पीएम मोदी की अनुपस्थिति में भी उन्हें संसद में घेरने में व्यस्त है. कांग्रेस को हाल ही में मिली तीन राज्यों की जीत से लोगों को संभावनाएं दिखने लगी हैं, लेकिन राहुल गांधी चुनावी सड़क पर कब उतरेंगे, कोई नहीं जानता. कांग्रेस का असमंजस यह भी है कि वर्तमान में महागठबंधन का फिलहाल कोई अता-पता नहीं है. एसपी, बीएसपी, एनसीपी, टीएमसी, आरजेडी, टीडीपी, बीजद, टीआरएस जैसे क्षेत्रीय विपक्षी दल अभी तक तराजू के मेढक ही बने हुए हैं. ऐसे में राहुल गांधी किस रणनीति के तहत जनता के सामने जाएं? एकला चलो वाला सुर लगाएं या साथी हाथ बढ़ाना वाला राग अलापें!


लेकिन पीएम मोदी अपने सहयोगियों और विपक्षियों के एकजुट होने की परवाह किए बगैर काम पर लग चुके हैं. बीजेपी की रणनीति यह है कि पिछली बार हारी हुई सीटों पर सत्ता विरोधी स्थानीय लहर का सामना नहीं करना पड़ेगा और पीएम मोदी का चेहरा काम कर जाएगा. इन 123 सीटों से यूपी-बिहार, एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई की जा सकती है. उधर राहुल गांधी की 2019 के आम चुनाव के लिए जो भी तैयारियां हों लेकिन इतना तो तय है कि जिन किसानों ने अभी तीन राज्यों में कांग्रेस की नैया पार लगाई है, वे पार्टी की आंख के तारे बने रहेंगे.


मजबूर होकर एनडीए सरकार को भी किसानों को केंद्र में रख कर तरह-तरह की घोषणाएं करनी पड़ेंगी, जिसे राहुल अपनी जीत कह कर प्रचारित करेंगे. हालांकि मोदी सरकार पर संवैधानिक संस्थाओं का क्षरण करने की एक उंगली उठाने पर चार उंगलियां खुद उनकी तरफ ही उठेंगी, फिर भी 2 बजे रात सीबीआई मुख्यालय पर हुई कार्रवाई, स्वायत्त रूप से काम न करने देने पर आरबीआई गवर्नर का इस्तीफा, बेरोजगारों को 2.5 करोड़ नौकरियां देने का वादा, सीमा पर बार-बार युद्धविराम का उल्लंघन, काला धन वापस लाकर सबके खाते में 15 लाख रुपए डालने का जुमला, सुप्रीम कोर्ट के चार जजों का खुले में प्रेस कांफ्रेंस करना, नोटबंदी की व्यर्थता आदि उनके तरकश के घातक तीर होंगे.


गुजरात चुनावों के बाद हुए चुनावी घटनाक्रम के नतीजे में आत्मविश्वास से लबरेज राहुल गांधी किसानों की आत्महत्या, अर्थव्यस्था में गिरावट, बैकिंग सेक्टर के घोटालों को लेकर सीधे मोदी पर हमलावर हैं. राफेल नामक ब्रह्मास्त्र तो उन्होंने चला ही रखा है, जिससे बचने के लिए मोदी सरकार संसद से सड़क तक आंकी-बांकी हुई जा रही है. फिलहाल पीएम मोदी भले ही लोकप्रियता और चुनावी तैयारियों के मामले में विपक्षियों से आगे नजर आ रहे हों और चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ नेशनल हेराल्ड, राबर्ट बाड्रा जैसे मुद्दों को अपना हथियार बना लें, लेकिन क्रोनी कैपटलिज्म, सूट-बूट की सरकार और गब्बर सिंह टैक्स के नारों का आरोप झेल रही उनकी सरकार को किसान कर्जमाफी से आगे का रोडमैप घोषित करना होगा. अब नेहरू-गांधी परिवार पर हमलों का द्रुत-विलंबित राग मतदाताओं पर कोई असर डालने वाला नहीं है. 2019 की लड़ाई फिलहाल मोदी बनाम राहुल की तरफ ही बढ़ रही है और अबकी राम मंदिर नहीं बल्कि किसानों का मुद्दा ही सत्ता की राह प्रशस्त करेगा.


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