BLOG: यूपी-बिहार का स्थायी शोक बन चुकी है जापानी इंसेफेलाइटिस
जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए SC ने बच्चों की मौत के इस भयानक खेल की तह तक जाने की मंशा से इस मामले में केंद्र, बिहार सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस भेजा है.
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मेरी ही एक हालिया कविता है- “प्यारे बच्चो/ जब तुम्हें खेलना था खिलौनों से/ तुम मौत का खिलौना बना दिए गए/ इस खेल में कौन-कौन थे बाजीगर/ पक्ष-विपक्ष-अस्पताल या डॉक्टर/ मौसम-लीची-सुअर-आवारा इंसेफेलाइटिस या मच्छर?/ यह शायद ईश्वर भी नहीं जानता/ हम महज इतना जानते हैं/ कि अब तुम्हारी छायाएं नहीं बनेंगी सूरज-चांद के सामने/ जहां गूंजा करती थीं तुम्हारी किलकारियां/ वहां माताओं की चीखें आसमान का कलेजा चीर रही हैं.”
शायद यही वजह है कि जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए बच्चों की मौत के इस भयानक खेल की तह तक जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बिहार के मुजफ्फरपुर में इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतों के मामले में केंद्र, बिहार सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस भेजा है. इस मामले में तीनों सत्ता केंद्रों से 7 दिन के भीतर पूरी तफसील के साथ हलफनामा दाखिल करने को कहा गया है. बता दें कि वर्ष 2017 के अगस्त माह में पूर्वी यूपी के गोरखपुर स्थित बीआरडी मेडिकल कॉलेज में भी इसी बीमारी से पीड़ित 325 बच्चे ऑक्सीजन के सिलेंडर की कमी से मरे थे. इतना ही नहीं, सरकारी आंकड़ों पर भरोसा करें तो जनवरी 2005 से दिसंबर 2016 तक इस बीमारी से पूर्वी उत्तर प्रदेश में 7586 बच्चों की मौत हुई थी, वहीं गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 35 वर्षों (सन् 1978 से 2013 तक) के वक्फे में 50 हजार से अधिक लोग जापानी इंसेफेलाइटिस का शिकार हुए! यानी यूपी-बिहार में यह कोई अचानक आ धमकी बला नहीं है. बिहार में चमकी बुखार से 2014 में 355, 2015 में 225, 2016 में 102, 2017 में 54 और 2018 में 33 मौतें दर्ज की गई थीं. स्पष्ट है कि यूपी-बिहार की भयंकर रूप से बीमार स्वास्थ्य मशीनरी को पहले खुद स्वस्थ होने की जरूरत है.
दिल्ली से लेकर बिहार तक सत्ता और विपक्ष में विचरण कर रहे कई ताकतवर लोगों के दौरों, दावों और आश्वासनों के बावजूद बिहार में जापानी एन्सेफलाइटिस (चमकी बुखार) तथा एक्यूट एन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस ) से मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं. सरकारी आंकड़ों के इतर अगर मीडिया रिपोर्ट्स की बात करें तो अभी तक यहां 200 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है. दहशत के चलते कई गांवों में हुए पलायन से सन्नाटा पसर चुका है. बीमारी की मार झेल रहे स्थानीय लोगों की मदद के लिए अभी तक कोई भी बड़ा कदम नहीं उठाया गया है. यह हमारी बेहाल हो चुकी स्वास्थ्य सेवाओं तथा बीमार हो चुकी राजनीतिक व्यवस्था का ऐसा आईना है, जो सरकारी मशीनरी और सियासी रहनुमाओं को तनिक भी शर्मिंदा नहीं करता और मात्र एक ही बीमारी के झपट्टे से साल दर साल सैकड़ों गरीब और मासूम बच्चे काल के गाल में समाते चले जा रहे हैं.
हालांकि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने एईएस और जापानी इंसेफेलाइटिस से निबटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के साथ मिलकर जरूरी उपाय किए थे और एक्शन प्लान 2018 लॉन्च किया था. इसी का नतीजा था कि गोरखपुर में 2017 में हुई 557 मौतों के मुकाबले 2018 में 187 मौतें दर्ज की गईं. देखा जाए तो नीतीश कुमार सरकार ने भी जापानी इंसेफेलाइटिस और एईएस के बढ़ते मामलों के मद्देनजर 2015 में मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) की शुरुआत की थी. लेकिन इस साल के हालात देखकर यह स्पष्ट हो गया कि बिहार में ईसओपी का पालन ही नहीं किया गया. इसके उलट पॉलिसी रिसर्च स्टडीज की साइट बताती है कि 2017-18 में बिहार सरकार का स्वास्थ्य बजट मात्र 7002 करोड़ का था, जो 2016-17 की तुलना में 1000 करोड़ घटा दिया गया था. सूबे की जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं को बदतर बनाने का इससे बेहतर सरकारी प्रयास भला और क्या हो सकता था?
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और कुशीनगर के अलावा जापानी मस्तिष्क ज्वर से प्रभावित क्षेत्रों में दक्षिण-पश्चिमी बिहार का बड़ा हिस्सा भी दशकों से शामिल रहा है, जहां से लोग जान बचाने के लिए भाग कर गोरखपुर मेडिकल कॉलेज ही आते थे. इसके बावजूद विपक्ष कभी इतना भी नहीं पूछ पाया कि बिहार में पिछड़ों और महादलितों की बस्तियों में टीकाकरण और कुपोषण दूर करने के कार्यक्रमों का क्या हुआ? स्वच्छता अभियान का ढोल बजाने के बाद सूबे की बस्तियां इतनी गंदी क्यों हैं? अस्पतालों में चली आ रही दवाओं और डाक्टरों की कमी को अब तक पूरा क्यों नहीं किया गया?
ऐसा भी नहीं है कि भारत में इस किस्म का मस्तिष्क ज्वर पहली बार यूपी-बिहार में ही दर्ज किया गया हो. दरअसल पहला मामला तमिलनाडु में सन् 1955 के दौरान सामने आया था. इसके कुछ मरीज पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में आज भी निकल आते हैं. लेकिन हालात देखिए कि आंध्र और तमिलनाडु में जापानी मस्तिष्क ज्वर का आज नाम भी नहीं सुनाई देता जबकि यूपी-बिहार में इसका तांडव बदस्तूर जारी है. जापानी इंसेफेलाइटिस यूपी-बिहार का स्थायी शोक बन चुकी है. लेकिन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का बयान है कि इस बीमारी पर रिसर्च के लिए एक साल का समय और चाहिए!
मच्छरों के प्रजनन की रोकथाम और सुअरों को बस्तियों से दूर हटा कर यूपी-बिहार को बच्चों के यमराज की राजधानी बनने से बचाया जा सकता था. लेकिन हुआ यह कि ‘इस सीजन में तो बच्चे मरते ही हैं’ जैसी क्रूर वाक्य-रचना नेताओं द्वारा संभव की गई. यूपी-बिहार में तीस-चालीस बच्चों की मौत सरकारी अमले और नेताओं को पुस्तक-कॉपी वितरण जैसी खबर प्रतीत होती है. लेकिन अब जबकि मौतों को लेकर राजनीति शुरू हो गई है तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, मुख्यमंत्री वगैरह- डॉक्टर, दवाइयां, बेड, नर्सें और अस्पताल की संख्या बढ़ाने की बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर रहे हैं. शरद यादव जैसे नेता और खेसारीलाल जैसे अभिनेता मेडिकल कॉलेज का अनाहूत दौरा करके अफरातफरी का माहौल बना रहे हैं!
ये मंत्री-संत्री संवेदनशीलता का चाहे जितना दिखावा कर लें, जापानी इंसेफेलाइटिस का असली दर्द तो वे माता-पिता ही समझ सकते हैं जिन्होंने सालोंसाल से अपने लाल खोए हैं और आज भी खो रहे हैं. तथ्य यह भी है कि अधिकतर मरने वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले गरीब किसान-मजदूरों के ही होते हैं. संसाधनों की कमी के कारण एक ही बेड पर तीन से चार बच्चों का इलाज चल रहा है. माताएं अपनी नन्हीं जान की सलामती के लिए बिलख रही हैं. मुजफ्फरपुर के ये दारुण दृश्य तो कैमरे में कैद हो गए हैं, लेकिन कौन जाने, जिस क्षण आप यह लेख पढ़ रहे हैं, उसी क्षण मस्तिष्क ज्वर में तपते कुछ और मासूम बच्चों ने यूपी-बिहार की किसी अनजान जगह पर दम तोड़ दिया हो! अब उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से ही है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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