(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
पर्यावरण दिवस पर केंद्रीय कृषि मंत्री ने लिखा ब्लॉग, अन्नदाता को बताया पर्यावरण का प्रहरी
आज हम वर्ष 2021 का विश्व पर्यावरण दिवस मना रहे हैं. इस विश्व पर्यावरण दिवस को पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) की बहाली पर संयुक्त राष्ट्र दशक का शुभारंभ भी हो रहा है. विश्व पर्यावरण दिवस हमारे लिए केवल एक रस्म-भर नहीं है, बल्कि यह खास दिन पर्यावरण के महत्व को उजागर करने और लोगों को यह याद दिलाने के लिए मनाया जाता है कि प्रकृति को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व वाले देश के रूप में भारत के लिए परंपरागत रूप से जीवन जीने का एक तरीका रहा है और कई समुदाय अभी भी प्रकृति को एक मार्गदर्शक शक्ति के रूप में देखते हैं.
यह दिवस भारत सरकार की पहल पर, इस बात पर मंथन करने का एक विशेष अवसर है कि देश कैसे कई संस्कृतियों व परंपराओं पर आधारित कार्यक्रमों के साथ पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली की प्रक्रिया में अग्रणी भूमिका निभा सकता है, जो हमारे जीवन का एक हिस्सा हैं. पेड़ उगाना, हरा-भरा शहर, फिर से जंगल बनना, खान-पान में बदलाव या नदियों व तटों की सफाई, ये पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली की प्रक्रियाएं हैं. इसमें उन बातों को भी शामिल करना आवश्यक है, जिन्हें हम भूल चुके है अथवा जो नष्ट प्रायः हो चुकी हैं, साथ ही साथ स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण भी जरूरी हैं.
बहाली कई तरह से हो सकती है. एक पारिस्थितिकी तंत्र को उसकी मूल स्थिति में वापस करना हमेशा संभव नहीं होता है. हमें अभी भी उस जमीन पर खेत और बुनियादी ढांचे की जरूरत है, जो कभी जंगल था और यही प्रकृति की जरूरत है. पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली के हस्तक्षेप के आर्थिक लाभ निवेश की लागत से कई गुना अधिक हैं. हर पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल किया जा सकता है- जंगल, खेत, शहर, आर्द्रभूमि और महासागर. सरकारों और विकास एजेंसियों से लेकर व्यवसायों, समुदायों और व्यक्तियों तक, लगभग किसी के द्वारा भी बहाली की पहल शुरू की जा सकती है.
आइए, देश में स्वच्छता अभियान की अलख जगाने वाले, पर्यावरण की रक्षा के सेनापति, हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार द्वारा की गई कुछ प्रमुख पहलों पर विचार करें, जिन्हें विकास की प्रक्रिया में पर्यावरणीय सिद्धांतों का पालन करने के लिए प्रारंभ किया गया है. किसी न किसी रूप में भूमि का क्षरण गंभीर चिंता का विषय है, जो कृषि की स्थिरता को खतरे में डालता है. पहाड़ी क्षेत्रों में बारिश एवं बहते पानी के कारण भूस्खलन और वनों की कटाई, जंगल व अन्य मैदानी क्षेत्रों में अतिचारण और दोषपूर्ण सांस्कृतिक प्रथाओं के कारण मिट्टी, पानी व हवा के कटाव को उजागर करती है.
भारत उन 70 देशों में से एक है, जो मरूस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (United Nations Convention to Combat Desertification- UNCCD) में शामिल हैं, जिसने कन्वेंशन की भूमि क्षरण तटस्थता रणनीति के एक भाग के रूप में वर्ष 2030 तक भूमि क्षरण तटस्थता लक्ष्यों तक पहुंचने का वचन दिया है. UNCCD के एक हस्ताक्षरकर्ता के रूप में, भारत ने भूमि क्षरण तटस्थता प्राप्त करने के लक्ष्य के साथ भूमि क्षरण व मरूस्थलीकरण से निपटने कई नीतियों-कार्यक्रमों को लागू किया है.
सरकार आर्गेनिक/ प्राकृतिक खेती को बहुत ज्यादा बढ़ावा दे रही है. परंपरागत कृषि विकास योजना/ भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति योजना/ जीरो बजट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जा रहा हैं, जिससे निश्चित ही पर्यावरण को असीमित फायदा होगा. पवित्र गंगा नदी की शुद्धता केंद्र सरकार की प्राथमिकता रही है, गंगा के किनारे जितनी खेती है, उसे आर्गेनिक/ प्राकृतिक में बदलने की योजना क्रियान्वित की जा रही है ताकि कोई भी केमिकल- फर्टिलाइजर वगैरह गंगा नदी में ना जाए, जल-पर्यावरण की दिशा में यह कदम मील का पत्थर हो सकेगा.
हमारे देश के दूर-दराज के वनवासी इलाकों में, जहां बहुतायत में आदिवासी वर्ग के लोग स्थानीय खेती करते हैं और वे अधिकांशतः खाद का इस्तेमाल नहीं करते हैं अथवा कुछ जगह करते भी है तो बहुत कम करते हैं, उन पूरे वृहद क्षेत्रों को आर्गेनिक सर्टिफिकेशन के लिए हमारे प्रयास आगे बढ़ रहे हैं. अंडमान-निकोबार द्वीप समूह जैसा क्षेत्र इसका एक उदाहरण है. इससे ये क्षेत्र प्राकृतिक खेती के रूप में ही उपयोग किए जाएंगे, सर्टिफिकेशन के फलस्वरूप किसानों की आय बढ़ेगी.
नए नैनो फर्टिलाइजर की आमद भी खेती-किसानी में हुई है, जिनके कारण सामान्य फर्टिलाइजर की खपत कम होगी, जिससे निश्चय ही खेतों की ऊर्वरा शक्ति बढ़ेगी. जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों के बीच टिकाऊ कृषि के लिए सरकार द्वारा अपनाई जा रही सबसे महत्वपूर्ण रणनीतियों में से एक कृषि में जल उपयोग दक्षता में वृद्धि करना है. सूक्ष्म सिंचाई प्रौद्योगिकियों के माध्यम से सटीक जल उपयोग ने खेत के स्तर पर जल पदचिह्न को कम करने में बहुत बड़ा वादा दिखाया है. माइक्रो इरिगेशन का बजट पहले 5 हजार करोड़ रूपए का था, जिसे इस बजट में बढ़ाकर केंद्र सरकार ने दोगुना कर दिया है और अब 10 हजार करोड़ रूपए के बड़े फंड से सूक्ष्म सिंचाई द्वारा खेतों को, अन्नदाताओं को काफी लाभ होगा. इसके कारण, भूमिगत जल कम निकाला जाएगा, जिससे सीधे-सीधे पर्यावरण को अत्यधिक फायदा होगा.
बायोस्टिमुलेंट्स को लेकर भी सरकार ने नई पालिसी बनाई है, ताकि केमिकल-खाद का कम उपयोग हो और खेतों की स्थिति सुधरें. मक्का से एथेनाल बनाने की योजना पर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन में सतत् काम चल रहा है, जिससे आयात कम होने के साथ ही पेट्रोल-डीजल की खपत में कमी आने से भी पर्यावरण की बहुत रक्षा होगी.
हमारा खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र भी कृषि आय बढ़ाने और गैर-कृषि रोजगार के सृजन के अलावा संरक्षण और प्रसंस्करण बुनियादी ढांचे में ऑन-फार्म और ऑफ-फार्म निवेश के माध्यम से कृषि और संबद्ध क्षेत्र के उत्पादन के बाद के नुकसान को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. खाद्य अपव्यय, पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि करता है, जिससे काफी हद तक बचा जा सकता है. खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय ने अपनी योजनाओं के माध्यम से फार्म गेट बुनियादी ढांचे के निर्माण को प्रोत्साहित करके, खाद्य प्रसंस्करण क्षमता बढ़ाने और विभिन्न कृषि-बागवानी उत्पादों की मूल्य श्रृंखला को मजबूत करके, फसल के बाद के नुकसान में कमी की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. 2 लाख नए उद्यमों को अपग्रेड करने और 9 लाख उद्यमियों को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण उद्यम योजना (पीएमएफएमई) के प्रधानमंत्री औपचारिकीकरण की नई पहल, कृषि और संबद्ध उत्पादों के सतत प्रसंस्करण को बढ़ावा देने और पर्यावरण को आगे बढ़ाने में एक लंबा सफर तय करेगी.
खाद्य उद्योग की अत्यधिक विविध प्रकृति के कारण, अक्षम प्रसंस्करण तकनीक, हैंडलिंग और पैकेजिंग संचालन से अपशिष्ट पैदा होते हैं, जिनका यदि उपचार नहीं किया जाता है तो प्रदूषण की गंभीर समस्या पैदा हो सकती है. पिछले 5 वर्षों के दौरान, मंत्रालय ने 50 एकड़ क्षेत्र में फैले विशाल मेगा फूड पार्कों से लेकर छोटी मूल्य श्रृंखला लिंकेज परियोजनाओं तक लगभग 800 खाद्य प्रसंस्करण अवसंरचना परियोजनाओं को सहायता प्रदान की है. नवीन प्रसंस्करण तकनीकों को अपनाना, जल उपचार संयंत्र सहित अपशिष्ट निपटान तंत्र और उपचारित पानी का पुन: उपयोग, अपशिष्ट उपचार संयंत्र के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट निपटान संयंत्र मेगा फूड पार्क, कृषि प्रसंस्करण क्लस्टर आदि की प्रमुख योजनाओं के तहत सहायता के लिए अनिवार्य है. नवीकरण को नियोजित करने वाली परियोजनाओं में सौर पैनल और कुशल ऊर्जा उपयोग मशीनरी जैसे ऊर्जा स्रोतों को सहायता के लिए प्राथमिकता दी जाती है.
मंत्रालय खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में नवीन उत्पाद और प्रक्रिया विकास के लिए अनुसंधान गतिविधियों को भी बढ़ावा देता है और "अपशिष्ट से धन" इन अनुसंधान परियोजनाओं के प्रमुख फोकस क्षेत्रों में से एक है. भारतीय खाद्य प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी संस्थान, तंजावुर- मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के तहत एक स्वायत्त संस्थान है, जिसने कटहल से स्वादिष्ट प्लेट और आइसक्रीम कोन विकसित किए हैं, जो अक्सर क्षेत्र में विशाल उत्पादन क्लस्टर के कारण बेकार हो जाते हैं, इस प्रकार इसके पर्यावरण प्रभाव को कम करते हैं. संस्थान द्वारा खाद्य अपशिष्ट से विकसित कुछ प्रौद्योगिकी/उत्पाद हैं: (अ) कटहल के बीज और स्ट्रैंड पाउडर से तैयार मिश्रित उच्च फाइबर आटा, जिसका उपयोग कुकीज़, बिस्कुट और पास्ता, नूडल्स जैसे एक्सट्रूडेड उत्पादों की तैयारी के लिए किया जाता है (ब) खाद्य मिश्रणों में स्वाद बढ़ाने के लिए प्याज के अपशिष्ट उत्पादों जैसे प्याज के डंठल, छिलके और प्याज के फूलों से प्याज पाउडर का उत्पादन (स) अनार के बीज और छिलके, अंगूर पोमेस, आलू के छिलके, काले चने की पिसाई अपशिष्ट (पाउडर व भूसी) के अंशों को कुकीज, केक आदि तैयार करते समय आटे में मिलाया जाता है, ताकि पोषण मूल्य बढ़ाया जा सके. वाणिज्यिक खाद्य उद्योग अपशिष्ट धाराओं के उपयोग पर ध्यान केंद्रित किया गया है. चावल, बाजरा, मक्का प्रसंस्करण इकाइयों से अपशिष्ट स्टार्च सामग्री का उपयोग करके खाद्य पैकेजिंग के लिए विकास, बेकार पेड़ के लॉग का उपयोग करके बायोडिग्रेडेबल प्लेटों का विकास, धान मिलिंग उद्योगों से चावल की भूसी राख का उपयोग और बायोडिग्रेडेबल के उत्पादन के लिए चीनी उद्योगों से सामान का उपयोग खाद्य पैकेजिंग सामग्री, आम के बीज की गिरी से तेल निकालने के लिए पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकी क्षेत्र में चल रही कुछ प्रमुख शोध गतिविधियां हैं.
गहन कृषि और सिंचाई पर बढ़ती निर्भरता के परिणामस्वरूप देश के कुछ सिंचित क्षेत्रों में लवणता, क्षारीयता और जल भराव भी हुआ. जलयोजन मुख्य रूप से उपजाऊ भूमि को प्रभावित करता है. भारत के साथ-साथ अन्य विकासशील देशों में, कृषि में जल एक महत्वपूर्ण घटक होने के कारण सिंचित भूमि के किसी भी नुकसान को उचित सिंचाई पद्धतियों, जल निकासी के प्रावधान, पानी के संयुक्त उपयोग आदि माध्यम से टाला जाना चाहिए. जलभराव का जोखिम इस तथ्य से उत्पन्न होता है कि किसान तब तक समस्या की पहचान नहीं कर सकते, जब तक कि यह उपज को प्रभावित करना शुरू न कर दें, और इसे तब तक रोका नहीं जा सकता जब तक कि भूजल स्तर की नियमित निगरानी न की जाए.
मृदा क्षरण के अलावा अन्य कारक भी हैं, जो मृदा पारिस्थितिकी तंत्र में गिरावट के कारण बनते हैं. गहन खेती के कारण मिट्टी के पोषक तत्वों की कमी व असंतुलन, विशेष रूप से सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी होती है, मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों में गिरावट आती है. इसके अलावा, बारिश के पानी के रिसने के कारण गीली स्थिति गंभीर कीटों को आकर्षित करती है. नाइट्रोजन व पानी के उच्च उपयोग ने नाइट्रोजन को जलस्तर तक ले जाने का कारण बना दिया है, जिससे यह लोगों के लिए भी प्रदूषित हो रहा है. इसको दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार द्वारा लगभग 12 करोड़ मृदा परीक्षण किए गए व भूमि स्वास्थ्य कार्ड का वितरण किया गया है, जिससे संतुलन उर्वरक उपयोग को बढ़ावा मिले. वनों की कटाई दुनिया में सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है. वन संपदा में गिरावट का मुख्य कारण जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप ईंधन की व अन्य लकड़ी की अधिक मांग, विकास परियोजनाओं की अंधाधुंध साइटिंग व जंगल की आग है. हाल के दिनों में वन क्षेत्र में ज्यादा बदलाव नहीं आया क्योंकि गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए इसके मोड़ को कमोबेश वनीकरण द्वारा भरपाई की गई है.भारत उन कुछ देशों में से एक है,जहां वन क्षेत्र बढ़ रहा है
भारत विविध कृषि-जलवायु परिस्थितियों वाला देश है जो विभिन्न प्रकार के जानवरों और पौधों को आश्रय देता है. पौधों की विविधता के मामले में भारत का एशिया व विश्व में उच्चतम स्थान है. जैसे-जैसे कृषि अधिक से अधिक व्यवसायिक होती जा रही है, कई पौधे और पशु प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं. अंतर-पीढ़ीगत पर्यावरणीय समानता सुनिश्चित करते हुए, प्राकृतिक संसाधन आधार को नष्ट किए बिना सभी को खाद्य और पोषण सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से कृषि तथा मत्स्य पालन सहित कृषि से सम्बद्ध सभी क्षेत्रों में और वनों के स्थायी प्रबंधन के लिए अनेक उपाय भारत सरकार द्वारा अपनाए गए हैं और कुल मिलाकर, यह संतोषप्रद स्थिति है कि हमारे अन्नदाता खेतों में पर्यावरण के प्रहरी बन रहे हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)