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भारत के किसानों ने 2018 में ही 2019 और उससे आगे के लिए कमर कस ली है
इस साल सत्ताधीशों और उनके जमीनी संगठनों को भी अच्छी तरह से समझ में आ गया कि अब किसानों को गरीब की लुगाई समझना भारी पड़ेगा और अगर किसान दर्द से करवट बदलेंगे तो तख्त-ओ-ताज पलट जाएंगे!
भारत की 1952 से शुरू हुई सुदीर्घ चुनावी राजनीति ने अब जाकर 2018 में देखा है कि देश के किसानों ने खुद को अवर्ण-सवर्ण, अगड़ा-पिछड़ा के खांचों में न बांटते हुए पहली बार मात्र अपनी तकलीफों को केंद्र में रखकर बड़े पैमाने पर मतदान किया और मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ की सरकारें एक ही झटके में बदल डालीं. इस साल सत्ताधीशों और उनके जमीनी संगठनों को भी अच्छी तरह से समझ में आ गया कि अब किसानों को गरीब की लुगाई समझना भारी पड़ेगा और अगर किसान दर्द से करवट बदलेंगे तो तख्त-ओ-ताज पलट जाएंगे! यही वजह है कि सदा के उपेक्षित, उत्पीड़ित और अपमानित किसान आज सबकी चुनावी चिंताओं का केंद्रबिंदु बन गए हैं.
ऐसा नहीं है कि किसानों ने तख्तनशीनों के सामने पहले अपना दुखड़ा नहीं रोया था लेकिन 2018 उनके आक्रोश को पूंजीभूत करने का वर्ष साबित हुआ. हाल ही की बात करें तो दो वर्ष पूर्व तमिलनाडु के किसानों को दिल्ली के जंतर-मंतर पर पेशाब पीकर, चूहों को मुंह में दबाकर, मानव कंकाल ओढ़े नम आंखों से अपनी बदहाली की कहानी सुनाते देखा-सुना गया था. पिछले साल मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसान आंदोलन के दौरान छह निर्दोष किसानों की पुलिस की गोलियों से निर्मम हत्या सबने देखी थी. इस साल के आरंभ में ही महाराष्ट्र के किसान अपनी मांगों को लेकर नंगे पांव नासिक से मुम्बई पहुंच गए थे. बीती 2 अक्तूबर को गांधी जयंती पर जो अहिंसक किसान राजघाट में बापू को श्रद्धांजलि देना चाहते थे, उन्हें पुलिस की हिंसा झेलनी पड़ीं. इसी साल 29-30 नवंबर को दिल्ली की रैली में अधिकतर किसान फसल बीमा और गन्ना के भुगतान को लेकर सवाल उठा रहे थे. लेकिन सत्ताधीशों ने संसद भवन से दो कदम चल कर रैलीस्थल पहुंचने में अपनी तौहीन समझी.
किसानों की करुण पुकार सुनकर केंद्र सरकार की कुम्भकरणी नींद में कोई खलल नहीं पड़ रहा था. उल्टे किसानों को विरोधी दलों का दलाल, कम्युनिस्टों का पिट्ठू, जींस पहनने वाला और बिसलेरी पीने वाला अलाल, एनजीओ का एजेंट... जाने क्या-क्या कह कर अपमानित किया जाता रहा! सत्ता के अहंकार में किसान उन्हें कीट-पतंग दिखाई दे रहे थे. आखिरकार 2018 में किसानों के वोट का दम देखने के बाद उनके खेमों में हड़कंप मच गया. स्पष्ट है कि किसानों को ‘का चुप साध रहा बलवाना’ का मर्म समझ में आ गया है और यकीन हो चला है कि वे किसी भी दबंग को उठाकर पटक सकते हैं.
यह तो 2017 में हुए गुजरात चुनावों के दौरान ही नजर आना शुरू हो गया था कि किसान अपनी वर्णीय पहचान के बावजूद वर्गीय अस्मिता को लेकर सचेत होते जा रहे हैं. किसानों के असंतोष की वजह से ही ग्रामीण क्षेत्र सौराष्ट्र में सत्ताधारी दल भाजपा को मात खानी पड़ी थी. लेकिन राज्य में लगातार मिली जीत ने भाजपा का ध्यान इस ओर से हटा दिया और 2018 में होने यह लगा कि जिस वक्त हजारों किसान दिल्ली की तरफ पैदल कूच कर रहे थे, उसी वक्त राम मंदिर मुद्दा गरमाने के लिए नेताओं और साधु-संतों का अयोध्या कूच प्रायोजित हो रहा था. किसानों की हर पीड़ा को व्यर्थ की हिंदू-मुस्लिम बहस के शोर तले दबा दिया गया. लेकिन अब सत्ताधारियों की आंखें खुल चुकी हैं कि अगर किसानों से किए गए वादे पूरे नहीं हुए, तो इसका जवाब 2019 के चुनावों में अभी से लिखा धरा है.
बेचैनी इस कदर है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ललकार रहे हैं- ‘जब तक हिंदुस्तान के सभी किसानों का कर्ज माफ नहीं होता, वह मोदी जी को सोने नहीं देंगे.’ दूसरी तरफ पीएम नरेंद्र मोदी आरोप लगा रहे हैं कि महज चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने किसानों की पीठ में छुरा भोंका है! अकारण नहीं है कि उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और असम के किसान 2018 खत्म होते-होते सरकारों की कर्जमाफी के दायरे में आ चुके हैं. आगामी लोकसभा चुनाव में किसान अगर घोषणा पत्रों की आधी जगह घेर लें, तो आश्चर्य नहीं होगा.
आधुनिक चीन के निर्माता एवं आर्थिक शिल्पकार माओत्से तुंग का मानना था कि कृषि और उद्योग किसी देश का विकास करने वाले दो पैर होते हैं. एक भी पैर कमजोर होने से चाल के बिगड़ने का अंदेशा रहता है. लेकिन भारत में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने खेती से किसान का नियंत्रण छीन कर पानी, खाद, बीज और कीटनाशक, सभी कुछ कॉरपोरेट बिरादरी के हाथ में थमा दिया. नतीजे में हमने देखा कि विकास की चकाचौंध के बावजूद 2004 में आंध्र प्रदेश की चंद्रबाबू नायडु और कर्नाटक में एसएम कृष्णा सरकार किसानों के गुस्से का शिकार हो गई थीं. लेकिन किसान कभी भी किसी एकजुट राजनीतिक शक्ति के तौर पर नहीं उभरा और जाति-धर्म के चक्रव्यूह में फंस कर अलग-अलग दलों को वोट करता रहा. जबकि 2018 के हर छोटे-बड़े चुनाव में साफ नजर आया कि मौसम की अनिश्चितता, फसल की बढ़ती लागत, उपज की कम कीमत, बैंकों और साहूकारों के कर्ज तथा सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते खर्च की मार झेल रहे किसान ने खुद एक विराट वोट बैंक बन जाने का निर्णय कर लिया है. सरदार पटेल, चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत जैसे किसी चमत्कारी नेतृत्व की अनुपस्थिति के बावजूद किसानों की यह देशव्यापी गोलबंदी आर्थिक नीति निर्माताओं की सोच को हमेशा के लिए बदल सकती है.
कहावत है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है. पीएम नरेंद्र मोदी ने 2014 के आम चुनाव में किसानों की आय दोगुनी करने और एक साल के भीतर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वादा किया था. लेकिन मोदी सरकार ने ही 2015 में सूचना के अधिकार के तहत बताया और अदालत में शपथपत्र देकर कहा कि ऐसा करना संभव नहीं है. कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने तो साफ कह दिया था कि सरकार ने कभी ऐसा कोई वादा किया ही नहीं था. वर्तमान किसान एकजुटता का तात्कालिक असर यह होगा कि सब्जबाग दिखाकर या जातिगत ध्रुवीकरण करके उनके वोट पहले की तरह नहीं बांटे जा सकेंगे. दिल्ली के तख्त पर बैठने का सपना देख रहे दलों को उनकी तरक्की का रोड मैप घोषित करना ही पड़ेगा. 2018 ने दिखा दिया है कि 2019 के आम चुनाव और सुदूर भविष्य में राजनीतिक दलों की किस्मत लिखने के लिए किसानों ने कमर कस ली है.
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