भारत को शान दिलाने के लिए अब कोई बन पाएगा ऐसा 'फ्लाइंग सिख' ?
खेल की दुनिया में भारत की आन-बान और शान रहे फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह आखिरकार दुनिया को अलविदा कह गये. उनके जाने से एथलेटिक्स-जगत के एक युग का अंत हो गया और कोई नहीं जानता कि भविष्य के भारत में अब कोई और मिल्खा सिंह पैदा होगा भी या नहीं. भारत-पाक विभाजन के दंगों में अपनी आंखों के सामने अपने पिता और परिवार के अन्य लोगों का कत्ल होते देख बमुश्किल अपनी जान बचाने वाले इस महान एथलीट की जिंदगी जीवटता के दम पर अपने संकल्प को सच में बदल देने की अनूठी मिसाल है.
विभाजन के वक़्त दोनों तरफ हुए कत्लेआम के बीच लाहौर से ट्रेन के ज़नाना डिब्बे में बर्थ के नीचे छुप कर दिल्ली पहुंचने वाले मिल्खा सिंह ने गरीबी की इंतेहा को न सिर्फ देखा बल्कि खुद भी झेला. बगैर किसी मेहनताने के उन्होंने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने फ़ुटपाथ पर बने ढाबों में बर्तन साफ़ किए ताकि कुछ खाने को मिल सके, बचा-खुचा ही सही. लेकिन अपने हौंसले के जज़्बे को जिंदा रखा.
खेल की दुनिया में ऐसी मिसाल बहुत कम ही देखने को मिलती है कि किसी नौजवान ने सेना की दौड़ में महज इसलिये हिस्सा लिया हो कि उसके बदले में उसे एक गिलास दूध मिलेगा. उस एक गिलास दूध के स्वाद ने दौड़ने का ऐसा चस्का लगाया कि मिल्खा को दुनिया का महान एथलीट बनने से कोई रोक नहीं पाया. कुदरत का अजब संयोग देखिये कि हफ्ता भर पहले ही कोरोना से ही उनकी पत्नी निर्मल कौर का भी 85 बरस की उम्र में निधन हुआ. वह अपने जमाने में भारतीय वॉलीबाल टीम की कप्तान रहीं थीं.
भारत के इतिहास में यह भी पहली बार हुआ था कि 60 के दशक में ब्रिटेन में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में जब मिल्खा सिंह ने गोल्ड मैडल जीता, तो उस खुशी में पूरे देश में एक दिन की छुट्टी घोषित कर दी गई थी. मिल्खा ने एक इंटरव्यू में उस पूरे वाकये का जिक्र करते हुए बताया था कि "जब इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ ने मेरे गले में स्वर्ण पदक पहनाया और मैंने अपने भारतीय झंडे को ऊपर जाते देखा, तो मेरी आखों से आंसू बह निकले." तभी मैंने देखा कि वीआईपी इन्क्लोजर से एक छोटे बालों वाली, साड़ी पहने एक महिला मेरी तरफ़ दौड़ी चली आ रही हैं. भारतीय टीम के प्रमुख अश्वनी कुमार ने उनसे मेरा परिचय करवाया. वह ब्रिटेन में भारत की उच्चायुक्त विजयलक्ष्मी पंडित थीं.
मिल्खा सिंह ने उस ऐतिहासिक जीत को याद करते हुए बताया था, ''उन्होंने मुझे गले लगाकर मुबारकबाद दी और कहा कि प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संदेश भिजवाया है कि इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल करने के बाद वह इनाम में क्या लेना चाहेंगे? मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या मांगूं. मेरे मुंह से निकला कि इस जीत की खुशी में पूरे भारत में छुट्टी कर दी जाए. मैं जिस दिन भारत पहुंचा पंडित नेहरू ने अपना वादा निभाया और पूरे देश में छुट्टी घोषित की गई.''
गुरु नानक देव, गुरु गोबिंद सिंह और भगवान शिव में आस्था रखने वाले मिल्खा ने तब 440 ग़ज़ की इस दौड़ को जीतकर पहली बार विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई. उन्होंने कार्डिफ़ में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में तत्कालीन विश्व रिकॉर्ड होल्डर मैल्कम स्पेंस को हराकर वह स्वर्ण पदक जीता था.
मिल्खा ने उस ऐतिहासिक पल को याद करते हुए यह भी बताया था कि, ''मैंने सफ़ेद टेप को उस समय देखा जब दौड़ ख़त्म होने में 50 गज शेष रह गए थे. मैंने वहां तक स्पेंस से पहले पहुंचने के लिए पूरा दम लगा दिया. जब मैंने टेप को छुआ तो स्पेंस मुझसे सिर्फ़ आधा फ़ीट पीछे था. अंग्रेज़ पूरी ताकत से चिल्ला रहे थे - कम ऑन सिंग, कम ऑन सिंग. टेप छूते ही मैं बेहोश होकर मैदान पर ही गिर पड़ा.''
मिल्खा सिंह को स्ट्रेचर से डॉक्टर के पास ले जाया गया, जहां उनको ऑक्सीजन दी गई. जब उन्हें होश आया, तब जाकर उन्हें अहसास होना शुरू हुआ कि उन्होंने कितना बड़ा कारनामा अंजाम दिया है. उनके साथियों ने उन्हें कंधे पर उठा लिया. उन्होंने तिरंगे को अपने जिस्म पर लपेटा और पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाया. यह पहला मौका था जब किसी भारतीय ने राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता था.
दरअसल, मिल्खा सिंह को 'फ्लाइंग सिख' का खिताब भारत की किसी हस्ती ने नहीं बल्कि पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अय्यूब खान ने दिया था. वह कहानी भी दिलचस्प है. 1960 में मिल्खा सिंह को पाकिस्तान से न्योता आया कि वह भारत-पाकिस्तान एथलेटिक्स प्रतियोगिता में भाग लें. इससे पहले वे टोक्यो एशियन गेम्स में वहां के सर्वश्रेष्ठ धावक अब्दुल ख़ालिक को फ़ोटो फ़िनिश में 200 मीटर की दौड़ में हरा चुके थे. पाकिस्तानी चाहते थे कि अब दोनों का मुक़ाबला पाकिस्तान की ज़मीन पर हो. मिल्खा ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया क्योंकि विभाजन के समय की कई कड़वी यादें उनके ज़हन में थीं जब उनकी आंखों के सामने उनके पिता को क़त्ल कर दिया गया था.
मगर पंडित नेहरू के कहने पर मिल्खा पाकिस्तान गए. लाहौर के स्टेडियम में जैसे ही स्टार्टर ने पिस्टल दागी, मिल्खा ने दौड़ना शुरू किया. दर्शकों द्वारा लगाए जा रहे 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारों के बीच मिल्खा ने जब टेप को छुआ तो वह ख़ालिक से करीब दस गज आगे थे और उनका समय था मात्र 20.7 सेकेंड. ये तब के विश्व रिकॉर्ड की बराबरी थी. जब दौड़ ख़त्म हुई तो ख़ालिक मैदान पर ही लेटकर रोने लगे. मिल्खा उनके पास गए. उनकी पीठ थपथपाई और बोले, ''हार-जीत तो खेल का हिस्सा है. इसे दिल से नहीं लगाना चाहिए.''
दौड़ के बाद मिल्खा ने विक्ट्री लैप लगाया. मिल्खा को पदक देते समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति फ़ील्ड-मार्शल अय्यूब खां ने कहा, ''मिल्खा आज तुम दौड़े नहीं, उड़े हो. मैं तुम्हें फ़्लाइंग सिख का ख़िताब देता हूं.''
मिल्खा सिंह की जिंदगी पर बनी फिल्म 'भाग मिल्खा भाग' भी बेहद लोकप्रिय हुई और पंजाब में तो उसने कामयाबी के नये झण्डे गाड़े.करीब आठ साल पहले मिल्खा ने बताया था कि इस फ़िल्म को देखकर कैसे वो और उनकी पत्नी निर्मल, फरहान अख़्तर और फिल्म के निर्देशक राकेश ओम प्रकाश मेहरा के साथ फूट कर रो पड़े थे. क्योंकि फ़रहान अख़्तर की एक्टिंग ने मिल्खा के किरदार के साथ पूरा इंसाफ़ किया था.
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