पढ़ाई-लिखाई की दुनिया में इन दिनों बवंडर मचा है. कॉलेज, यूनिवर्सिटीज के टीचरों-प्रोफेसरों पर लगातार सेक्सुअल हैरेसमेंट के आरोप लग रहे हैं. हमें समझ नहीं आ रहा कि ये सब क्या हो रहा है. पढ़े-लिखे लोगों से न्यायप्रियता की सबसे ज्यादा उम्मीद की जाती है. हायर स्टडीज में लड़कियों की बढ़ती मौजूदगी उल्लास का विषय है. इस तरह के बर्ताव से उनकी आगे पढ़ने की ललक कहीं दबा दी जाएगी- यह डर भी है. लिखते-लिखते थकान होती है, बार-बार दोहराते हुए ऊब होती है- पढ़ने वाले भी पक जाते हैं. लेकिन सच तो सच है- आप भोंपू लगाकर न बोलें तो भी वह कानों से चिपका ही रहेगा. लड़कियां अब स्कूल, कॉलेजों, यूनिवर्सिटीज में भी सेफ नहीं हैं. आप हॉस्टलों में नाइट कर्फ्यू लगाकर चैन की नींद नहीं सो सकते. इसीलिए लड़कियों के विरोध को समझिए-क्योंकि सबसे सुरक्षित समझी जाने वाली जगहें भी सुरक्षित नहीं हैं!


दिल्ली की अंबेडकर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लॉरेंस लियांग के बाद जेएनयू के प्रोफेसर अतुल जौहरी का मामला मुंह बाए खड़ा है. इस एक केस में अब तक लगभग आठ लड़कियों ने जौहरी पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं. इधर एक स्कूली छात्रा ने तो टीचरों पर हैरेसमेंट का आरोप लगाकर सुसाइड ही कर ली. पीछे फरीदाबाद के ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के नेशनल हेड कन्नूरी राव को जनवरी में यौन शोषण के आरोप के चलते डिसमिस कर दिया गया. उन पर उनकी एक जूनियर ने तीन साल तक परेशान करने की कम्प्लेन फाइल की थी.


 यूं टीचरों ने मानों हद ही कर दी है. कोझिकोड, केरल के फारुख कॉलेज में सोशल साइंस पढ़ाने वाले जौहर मुनव्विर लड़कियों के दुपट्टे, हिजाब से सीना न ढंकने पर नाराजगी जाहिर करते हैं. वह कहते हैं, लड़कियों के ब्रेस्ट तरबूज की माफिक होते हैं. एक फांक देखकर तरबूज के स्वाद का जायजा लिया जाता है, मतलब लड़कियां भी अपने यौवन का अंदाजा देने के लिए ही अपनी छातियों को ढंकती नहीं. ऐसी सोच का क्या किया जाए- क्योंकि औरत की आप देह से इतर देख ही नहीं पाते. ऐसे में उसके पढ़-लिखकर कुछ हासिल करने की इच्छा को आप कैसे समझेंगे. लड़कियों को हायर स्टडीज में कैसे आने देंगे?


हमारे यहां लड़कियों का पढ़ना यूं मुश्किल है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय खुद कहता है कि सेकेंडरी लेवल पर हर 100 लड़कियों में से 32 से ज्यादा स्कूल छोड़ देती हैं. हां, स्कूल तक पढ़ लेती हैं तो आगे पढ़ने का जज्बा जरूर रखती हैं. मंत्रालय की अपनी रिपोर्ट्स बताती हैं कि लड़कियों की संख्या ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन में बढ़ी है. पोस्ट ग्रैजुएशन में तो कमाल के आंकड़े मिले हैं. मास्टर ऑफ आर्ट्स में हर 100 लड़कों पर लड़कियों की संख्या 160 है. साइंस की पोस्ट ग्रैजुएट क्लासेस में हर 100 लड़कों पर 167 और कॉमर्स में 158 लड़कियां हैं. इसी तरह बैचलर ऑफ साइंस (नर्सिंग) में 100 लड़कों पर 384 लड़कियां हैं. हां, यह जरूर है कि बीटेक, लॉ या मैनजमेंट में लड़के ज्यादा हैं, लड़कियां कम. पर भले ही किसी स्ट्रीम में वे लड़कों से कम हैं, फिर भी आगे बढ़ने को लेकर उत्साह से भरी हुई हैं. चाहती हैं कि पढ़-लिखकर आजाद हवा में सांस लें.


तो, कटीली दीवारें फलांगती लड़कियों के रास्ते में दोबारा कांटे बिछाने का काम कौन कर रहा है... मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री ने लोकसभा में एक लिखित जवाब में बताया था कि 2016-17 में शैक्षणिक संस्थानों में यौन शोषण के दर्ज मामलों में पचास प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. उस साल हैरेसमेंट्स के 149 मामले यूनिवर्सिटीज में हुए और 39 मामले कॉलेजों में. शायद, लड़कियां यह सब बताने के लिए बाहर भी आ रही हैं. लेकिन मामले लगातार हो भी रहे हैं.


इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन ने 2017 में काम करने की जगहों पर सेक्सुअल हैरेसमेंट पर एक सर्वे किया था. इसमें 6,047 लोगों से बातचीत की गई थी. इसमें 93.5% लोगों ने माना था कि स्कूलों-कॉलेजों और काम करने की जगहों पर यौन शोषण होता है. इनमें 22% लोगों ने स्कूल या कॉलेज में खुद हैरेसमेंट झेला था. अधिकतर का कहना था कि स्कूलों, कॉलेजों या यूनिवर्सिटीज में कई बार इंटरनल कंप्लेन कमिटी यानी आईसीसी नहीं होती. तब आप कहां जाकर इसकी शिकायत करें... इसके अलावा जहां ये कमिटियां होती हैं, वे इस तरह के मामलों को गंभीरता से नहीं लेतीं. कई बार यह कहा जाता है कि चूंकि रेप हुआ ही नहीं तो इस पर क्या कार्रवाई की जाए.


वैसे भी अकादमिक दुनिया बहुत छोटी है. अधिकतर लोग एक दूसरे को जानते हैं. जिन डिसिप्लिन्स में वे स्पेशलाइज करते हैं, वे और भी छोटे कलेक्टिव होते हैं. इसी से सेक्सुअल हैरेसमेंट पर साइलेंस की संस्कृति को समझा जा सकता है. कोई एकदम अपना जब किसी मामले में इनवॉल्व होता है तो उसके खिलाफ बोलना बहुत मुश्किल होता है. सभी कद्दावर, सभी समर्थ. अपनी सुविधा के दायरों में चक्कर लगाते. कौन किससे बैर मोल ले.


ऐसी स्थिति से निपटने के लिए आप क्या कर सकते हैं? जाहिर सी बात है, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज में चुने हुए स्टूडेंट एसोसिएशंस और फैकेल्टी एसोसिएशंस को मिलकर कलेक्टिव फोरम बनाने चाहिए और स्टूडेंट-टीचर रिलेशनशिप्स के एथिक्स पर बातचीत करनी चाहिए. चूंकि सब कुछ इंटरनल कंप्लेन कमिटी के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता. फिलहाल यूजीसी भी इस दिशा में काम कर रहा है. उसने यूजीसी (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल ऑफ सेक्सुअल हैरसमेंट ऑफ विमेन इंप्लॉइज एंड स्टूडेंट्स इन हायर एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स) रेगुलेशंस, 2015 को नोटिफाई किया है. इन रेगुलेशनों में कहा गया है कि हॉस्टलों में भेदभाव वाले नियम नहीं होने चाहिए. कैंपस में महिला गायनाकोलॉजिस्ट होनी चाहिए. स्टूडेंट्स, नॉन टीचिंग और सिक्योरिटी स्टाफ के लिए जेंडर बेस्ड वर्कशॉप जरूर आयोजित होनी चाहिए. अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे स्ट्रीट लाइट और पब्लिक ट्रांसपोर्ट होना चाहिए. वॉर्डन, वीसी, प्रोवोस्ट, किसी को भी मॉरल पुलिसिंग करने का अधिकार नहीं होना चाहिए. अगर कॉलेज या यूनिवर्सिटी इस तरह के मामले में कार्रवाई नहीं करेगा तो उसके फंड्स को काटा जा सकता है.


सबसे जरूरी यह है कि लड़कियों की शिकायतों को समझा जाए. किसी प्रभुत्वशाली पर आरोप लगाने के लिए उसे कितनी हिम्मत की जरूरत होती है. लड़कियां अगर यह हिम्मत दिखा रही हैं तो उनकी दाद दीजिए और उनकी मदद कीजिए. उनकी साहस की विरासत को संभालने की जरूरत है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)