औद्योगिक रूप से सुदृढ़ और समृद्ध गुजरात से हिंदी पट्टी के मजदूरों को भगाने के लिए लगाया गया संगठित और सामूहिक हांका विभाजनकारी राजनीति का वीभत्स रूप बन कर उभरा है. यह स्वतंत्र भारत में सक्रिय प्लेटफॉर्म सिंड्रोम है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि देश में एक भाग के लोगों को किसी अन्य क्षेत्र में अवांछित बताकर धमकाया जा रहा हो. गुजरात से पहले महाराष्ट्र में भी ऐसा उन्माद समय-समय पर देखने को मिल चुका है. वहां पहले शिवसेना और अब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) में मराठी बनाम बाहरी का मुद्दा उछालने की स्पर्धा रहती है.


मनसे उन उत्तर भारतीयों को निशाना बनाती है जो परीक्षाएं देने महाराष्ट्र जाते हैं, पेट भरने के लिए पुल पर अपनी फुटकर दुकानें लगाते हैं, फुटपाथ पर छोटा-मोटा सामान बेचते हैं, टैक्सी-रिक्शा चलाकर गुजारा करते हैं, दूध-सब्जियां बेच कर वहां के नागरिकों की सेवा करते हैं. पूर्वोत्तर में भी अक्सर यूपी-बिहार और राजस्थान के लोग वहां के अराजक तत्वों की घृणा झेलते हैं. तमाम प्रतिभा के बावजूद दक्षिण में तो उनकी भाषा और उच्चारण का लहजा ही उनकी खोट बन जाता है. साझा तथ्य यह है कि इस नफरती चपेट में हर जगह उत्तर भारतीय ही आते हैं.


गुजरात में अभी जो हुआ है, उसकी जड़ें 28 सितम्बर को साबरकांठा जिले के हिम्मतनगर में 14 माह की एक मासूम बच्ची से बलात्कार की घटना में स्थित हैं. इस मामले में आरोपी बिहार निवासी रवींद्र साहू नाम के प्रवासी मजदूर को गिरफ्तार कर लिया गया था. लेकिन इसे बहाना बनाकर सारे उत्तर, पूर्व और मध्य भारतीय कामगारों को निशाने पर ले लिया गया. क्या वाकई यह महज एक मासूम के साथ हुए दुराचार से उपजा सामूहिक आक्रोश था? या यह एक क्षेत्र विशेष के लोगों के प्रति धीरे-धीरे संचित हुई घृणा का परिणाम था.


क्या वजह थी कि बलात्कार की घटना साबरकांठा में होती है और पलक झपकते ही गांधीनगर, अहमदाबाद, पाटन, अरावली, सुरेंन्द्रनगर और मेहसाणा में मारकाट शुरू हो जाती है. वॉट्सऐप पर उत्तर भारतीयों के प्रति नफरत फैलाने और उनसे बदला लेने का आवाहन करने वाले संदेशों की बाढ़ आ जाती है. स्पष्ट है कि यह षड्यंत्र बहुत पहले से रचा जा रहा होगा. लेकिन हमारे देश, राज्य और समाज पर इसके क्या दूरगामी परिणाम होंगे, इस बारे में नहीं सोचा गया.


यह सच है कि रोजगार के संदर्भ में अक्सर प्रवासियों के कारण संबंधित क्षेत्र के स्थानीय लोगों के एक वर्ग में नाराजगी रहती है, किंतु इसे दूर करने की बजाए क्षेत्र में हिंसा और वैमनस्य को बढ़ावा देना किसी भी सामाजिक घृणा को शाश्वत बनाए रखना है. बलात्कार जैसी घृणित आपराधिक घटना के लिए किसी क्षेत्र विशेष के लोगों को मारना-पीटना, कानून हाथ में लेकर उन्हें पलायन के लिए विवश करना कहां का न्याय है? जब हम कहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म या क्षेत्र नहीं होता तो अपराधी का कैसे हो सकता है? क्या किसी एक जाति, धर्म या क्षेत्र विशेष का कोई एक व्यक्ति अपराध करे, तो उस समूची जाति, धर्म या क्षेत्र विशेष के लोगों को दंडित किया जाना चाहिए?


गुजरात से जो पलायन करके भागे हैं, उनका दर्द उन्हीं को पता है. नेताओं में तो राजनीतिक रोटियां सेंकने की होड़ लगी हुई है. गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने समूचे घटनाक्रम के लिए कांग्रेस, खास तौर पर क्षत्रिय ठाकोर सेना के नेता और कांग्रेस विधायक अल्पेश ठाकोर को जिम्मेदार ठहरा दिया है. वह राज्य के डीजीपी के सुर में सुर मिलाते हुए यह भी कह रहे हैं कि लोग हिंसा की वजह से पलायन नहीं कर रहे, बल्कि त्योहारों की वजह से अपने-अपने घर जा रहे हैं.


हकीकत यह है कि अहमदाबाद समेत चार बड़े रेल्वे स्टेशनों से 5 और 7 अक्टूबर के बीच यात्री-निर्गमन पिछले साल की तुलना में काफी बढ़ा हुआ था. अकेले गांधीधाम स्टेशन में 6 अक्टूबर को 137 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई. अगर लोग केवल त्योहारों के लिए जा रहे होते तो इतनी बढ़ोतरी होना मुश्किल था. राज्य के गृहमंत्री प्रदीप जडेजा कह रहे हैं कि यह पलायन पिछला विधानसभा चुनाव हारने वालों की कारस्तानी है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार टेलीफोन पर रूपाणी जी से बात करके अपनी-अपनी राजधानियों में बैठकर गुजरात की मौजूदा कानून-व्यवस्था पर संतोष जता रहे हैं.


एक ही दल की सत्ता-शक्ति होने के बावजूद ये जिम्मेदार जनप्रतिनिधि रोग को रोग मानने से इंकार कर रहे हैं. फिर इलाज कैसे होगा? कोई यह नहीं देख पा रहा है कि वाइब्रेंट गुजरात के तहत आने वाली औद्योगिक इकाइयों की धड़कन इन्हीं प्रवासियों के खून-पसीने से चलती है. सूरत के उद्योग से करीब 70 फीसदी और अहमदाबाद में 50 फीसदी के आसपास प्रवासी कामगार कार्यबल के रूप में जुड़े हैं.


हिंसा और स्वार्थ की राजनीति करने वाले यह भी नहीं देखना चाहते कि गुजरात में लगभग 80 लाख गैर-गुजराती श्रमिक कार्यरत हैं, जो हीरा, कपड़ा, टाइल्स, रसायन, ऑटो, फार्मा और लघु-मध्यम विनिर्माण इकाइयों में काम करते हैं. गुजरात औद्योगिक विकास निगम चांगोदर के अध्यक्ष राजेंद्र शाह के अनुसार, ''हमले के भय से 10 से 40 फीसदी श्रमिक काम छोड़कर चले गए हैं, जिससे कई फैक्टरियों का काम बंद हो गया है.'' क्या इससे राज्य से पलायन कर गए लगभग 70 हजार श्रमिकों का नुकसान ही होगा?


पलायन अपने आप में एक भयावह प्रक्रिया है. मानव सभ्यताओं के विकास को क्षेत्र विशेष की भौगोलिक-सामाजिक परिस्थितियों ने आदिकाल से प्रभावित किया है, जिसके चलते समय-समय पर सामूहिक पलायन भी होता आया है. लेकिन भारत में आजादी के बाद सरकारी संसाधनों के असमान विकास और वितरण ने हाशिए पर पड़े राज्यों की एक बड़ी आबादी को रोजी-रोटी की तलाश में पलायन का दंश झेलने हेतु मजबूर कर दिया है. असंगठित क्षेत्र में आमतौर पर गरीब लोग आकस्मिक मजदूरों के रूप में पलायन करते हैं और दयनीय सुविधाओं के बीच खुद को खपाते हैं और स्वामियों का अपमानजनक व्यवहार और प्रताड़ना झेलते हुए दोयम दर्जे के नागरिक की जिंदगी जीते हैं.


यह अलग मुद्दा है कि समृद्ध राज्यों को सतत मजदूर-आपूर्ति करने वाले उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा आदि के मुख्यमंत्रियों को सोचना चाहिए कि उनके राज्यों में ही रोजगार के इतने अवसर सृजित कर दिए जाएं कि मेहनतकशों का पलायन न होने पाए, लेकिन गुजरात से हुआ पलायन विपरीत पलायन है. आने वाले चुनावों में इसकी कसक अवश्य रंग दिखाएगी और दीर्घकालीन कार्रवाई में श्रम और अस्मिता का यह अपमान भारत की अखंडता के लिए खतरा भी बन सकता है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)


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