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ब्लॉग: हरीश रावत का दुर्भाग्यपूर्ण फैसला

राहत इंदौरी का एक मशहूर शेर है..

'सरहदों पर बहुत तनाव है क्या, कुछ पता तो करो चुनाव है क्या'

लेकिन यहां चुनाव जरूर है पर सरहदों पर तनाव नहीं, लेकिन यह तनाव अपने ही घर में बढ़ सकता है. दरअसल, उत्तराखंड की हरीश रावत सरकार ने कैबिनेट में एक फैसला लिया है कि हर मुस्लिम सरकारी कर्मचारी को जुम्मे के दिन डेढ़ घंटे की छुट्टी नमाज पढ़ने के लिए दी जाएगी जिसका विपक्षी पार्टी बीजेपी ने विरोध शुरू कर दिया है. हरीश रावत सरकार का यह फैसला कांग्रेस पार्टी की धर्मनिरपेक्ष छवि को जहां एक ओर बट्टा लगाता है तो वहीं दूसरी ओर उसकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति को उजागर करता है. आने वाले दिनों में उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं शायद ये फैसला उसी को देख कर लिया गया हो.

भारतीय संविधान में यह व्यवस्था रखी गई है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म के पालन करने की स्वतंत्रता है, लेकिन राजनीतिक पार्टियां इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपना सियासी उल्लू सीधा करना चाहती हैं. हरीश रावत सरकार का इस तरह का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है. जिसकी जितनी आलोचना की जाए उतनी कम है. सारे देश में इसकी आलोचना शुरू भी हो गई है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो जहां कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान पहुंचेगा. वहीं हिमालय के एक प्रदेश से इस तरह का संदेश देश को नाजुक दौर में ले जा रहा है कांग्रेस हाईकमान खास तौर से राहुल गांधी को इस पर जल्द ही संज्ञान लेना चाहिए क्योंकि गलत बात को जितना जल्द रोका जाए उतना अच्छा होता है. क्या हरीश रावत सरकार को यह लगता है कि मुस्लिम समुदाय के लोगों को उनके धर्म का पालन भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में नहीं करने दिया जा रहा. जिसको लेकर उनकी कैबिनेट ने यह फैसला लिया है? एक मुस्लिम पांच वक्त की नमाज रोज़ पढ़ता है और उस पर किसी किस्म की बाधा नहीं है.

कई इस्लामिक देशों ने रविवार को अपनी छुट्टी रख ली है जिससे उन्हें व्यापार और बेंकिंग में फायदा पहुंचा रहा है. देश में धर्म और धार्मिक कर्मकांडों के अलावा भी कई मुद्दे हैं जिन पर शायद सरकार का ध्यान नहीं जाता. अगर हम वास्तव में अल्पसंख्यकों का भला चाहते हैं तो उनकी शिक्षा के लिए उचित प्रबंध करें सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं के बारे में उनको बता कर उसका लाभ दिलवाएं हमारी सरकारों ने ऐसी कई योजनाएं बनाई हैं. जो मुस्लिम और अल्पसंख्यक समुदाय के लिए कारगर काम कर सकती हैं. अगर हम आर्थिक रुप से माइनॉरिटी को सक्षम बनाना चाहते हैं, तो नेशनल माइनॉरिटी फाइनेंस डेवलपमेंट फंड, मौलाना आजाद फाउंडेशन स्कॉलरशिप स्कीम के तहत मिलने वाले फायदों को लेकर उनके बीच क्यों नहीं जाते. हम उन्हें ऐसी तालीम क्यों नहीं देते जो समाज में उनकी स्थिति मजबूत कर सके. कुछ दशक पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में डॉक्टर खलीलुल्लाह और सैयद हामिद ने तालीमी कारवां के नाम से एक अभियान चलाया था क्या ऐसे अभियान हमारी सरकारें अल्पसंख्यक समुदाय या कहें की मुस्लिमों के लिए नहीं चला सकतीं? जिससे शिक्षा के क्षेत्र में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके और इन समुदाय से एक पढ़ा-लिखा वर्ग सामने आए. हमारे देश में मुस्लिम समुदाय के लोगों की हालत इतनी खराब है कि अस्पतालों, थानों और वेश्यालयों में एक बड़ा तबका पाया जाता है क्या हम उसके लिए काम नहीं कर सकते. हमारे देश में लगभग 70 हजार करोड़ रुपए की अल्पसंख्यकों के लिए विभिन्न स्कीम चलाई जा रही हैं. लेकिन इस तरफ किसी का भी ध्यान नहीं है. सियासतदानों से ये कौन पूछे कि आखिर वह इस ओर काम क्यों नहीं करना चाहते. उत्तराखंड की हरीश रावत सरकार के इस फैसले को लेकर जहां सियासत तेज हो गई है तो वहीं आगामी चुनाव में कांग्रेस को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है. क्योंकि इससे उत्तराखंड जैसे राज्य में ध्रुवीकरण की राजनीति शुरु हो जाएगी जिसका फायदा उन सियासी पार्टियों को मिल सकता है जो बहुसंख्यक समुदाय की पैरोकार बनती हैं.

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