OROP को पूरा किए बिना मोदी सरकार अगर चुनावी फायदा चाहती है तो विपक्ष की राजनीति भी जायज!
पूर्व सैनिक राम किशन ग्रेवाल की आत्महत्या ने वन रैंक वन पैंशन ( ओआरओपी ) के मुद्दे को फिर से जिंदा कर दिया है. सैनिकों की अधिकांश मांगे मानने के बाद मोदी सरकार इसे भुनाने में लगी थी और विपक्ष कमियों की तलाश कर रहा था ताकि मोदी सरकार को घेरा जा सके. ग्रेवाल की खुदकुशी ने कांग्रेस और आप को यह मौका दे दिया है. अब इस बहाने ही सही अगर पूर्व सैनिकों की बची हुई मांगे भी मोदी सरकार स्वीकार कर लेती है तो ग्रेवाल की खुदकुशी कुर्बानी में तब्दील हो सकेगी अन्यथा सरकार और विपक्ष के बीच तकरार का मुद्दा बनकर ही रह जाएगी.
रक्षा मंत्री मनोहर परिक्कर का कहना है कि सिर्फ एक लाख सैनिकों को ही ओआरओपी मिलना बाकी है और यह काम भी तेजी से निपटाया जा रहा है. उनकी बात पर यकीन किया जाए तो ग्रेवाल अगर थोड़ा संयम रखते तो आज जिंदा होते. यहां यह सवाल भी खड़ा किया जा सकता है कि आखिर रक्षा मंत्री एक लाख वंचित सैनिकों को भरोसा क्यों नहीं दे पाए कि उनकी समस्याएं भी बस अब सुलझने वाली है.
यह सही है कि ओआरओपी को काफी हद तक लागू कर दिया गया है और 5500 करोड़ की पहली किश्त भी जारी कर दी गयी है लेकिन अभी भी कुछ बुनियादी बातों पर दोनों पक्षों का सहमत होना बाकी है. इसमें सबसे बड़ी मांग तो हर साल समीक्षा की है जिसे सरकार हर पांचवे साल करना चाहती है. इसके आलावा इसे लागू करने की तिथि से लेकर बेस ईयर को लेकर मतभेद बने हुए हैं. उधर रामकिशन ग्रेवाल जैसे बहुत से सैनिक हैं जिन्हे ओआरओपी का पूरा लाभ नहीं मिल रहा है. ऐसी शिकायते रक्षा मंत्रालय से पास पहुंचती रही है और मंत्रालय भी अपनी तरफ से मामले की जांच करवाता रहा है. अब जब खुद रक्षा मंत्री कह रहे हैं कि एक लाख सैनिकों तक लाभ पहुंचाना बाकी है तो इसका मतलब यही है कि ओआरओपी पूरी तरह से अभी लागू किया जाना बाकी है. ऐसे में अगर सरकार चुनावी लाभ उठाने की कोशिश करती है तो विपक्ष को भी राजनीति करने से रोका नहीं जा सकता.
राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से राम किशन की खुदकुशी पर राजनीति की क्या उसे जायज ठहराया जा सकता है. इससे भी बड़ा सवाल कि जिस तरह से दिल्ली पुलिस ने दोनों के साथ बर्ताव किया और राजनीति करने का मौका दिया क्या उसे मोदी सरकार की रणनीतिक भूल कहा जा सकता है. साफ है कि तमाशा खड़ा करने का पूरा अवसर दिल्ली पुलिस के बड़े अधिकारी मीणाजी ने ही दिया. अगर राहुल और केजरीवाल पांच दस मिनट के लिए अस्पताल के अंदर जाकर पूर्व सैनिक के घरवालों से मिल लेते तो इसमें मोदी सरकार का क्या बिगड़ जाता. चैनलों पर भी एक छोटी सी खबर तक ही सीमित हो जाते दोनों. पहले दोनों को पुलिस बताती रही कि अस्पताल राजनीति का अड्डा नहीं है फिर दो-दो बार हिरासत में लिया गया. कार्यकर्ताओं को सड़क पर आने का मौका दिया गया और अंत में दोनों को छोड़ दिया गया. लेकिन बात यहीं तक खत्म नहीं हुई. सेना प्रमुख रह चुके जनरल वी के सिंह ने सैनिक रामकिशन की मानसिक हालत पर सवाल उठाए. क्या इन सबसे बचा नहीं जा सकता था. बीजेपी अब सत्ता में है लेकिन वह विपक्ष की जगह भी अपने पास रखना चाहती है. लोकतंत्र के लिए क्या यह ठीक नीति है. इस पर भी विचार किया जाना चाहिए.
यह बात सही है कि राहुल गांधी और केजरीवाल ने सैनिक की आत्महत्या को भुनाने की जम कर कोशिश की. कांग्रेस के समय 1973 में ओआरओपी का विवाद शुरु हुआ था. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सैनिकों की पेंशन और अफसरशाही की पेंशन में गहरा अंतर पैदा कर दिया था. इसके बाद से ही सैनिक संघर्ष करते रहे हैं . 2009 में सैनिकों का संघर्ष तेज हुआ और यूपीए सरकार ने जाते जाते फरवरी 2014 में ओआरओपी का झुनझुना थमा दिया. यह सिर्फ कागजों में था और आधा अधूरा था. उधर बीजेपी ने चुनावी वायदा पहले टाला लेकिन जब सैनिक जंतर मंतर पर बैठे तो ओआरओपी की गांठे खोलने की कोशिश की. काफी हद तक बीच का रास्ता भी निकाल गया और सैनिकों के एक बड़े हिस्से को संतुष्ट भी किया. स्वाभाविक है कि ऐसे में कांग्रेस की उछलकूद नौटंकी के आलावा कुछ नहीं. केजरीवाल तो ओआरओपी के मुद्दे पर न तीन में है और न तेरह में. लेकिन राजनीति करने में सबसे आगे हैं. यह बात सही है कि मुख्यमंत्री होने के नाते उनका अस्पताल जाने का पूरा हक बनता था और दिल्ली पुलिस को उन्हे रोकना नहीं चाहिए था लेकिन खुदकुशी करने वाले को शहीद का दर्जा देकर और एक करोड़ का मुआवजा पकड़ा कर आखिर वह क्या कहना चाहते हैं. ऐसे ही कुछ सवाल सत्ता पक्ष से भी पूछे जाने चाहिए. सत्ता में आने के बाद जिम्मेदारी बढ़ जाती है. केन्द्र में मंत्री वी के सिंह अगर मानसिक स्थिति की बात करते हैं या सैनिक को कांग्रेसी बताते हैं या हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खटटर सैनिक आत्महत्या कर नहीं सकता जैसा बयान देते हैं तो साफ है कि सत्तारुढ़ दल की गरिमा और मर्यादा भंग कर रहे हैं. जरुरत सैनिकों की समस्याओं का आकलन करने और उन्हे दूर किए जाने की है न कि सियासत करने की. यह काम विपक्ष के सहयोग से सत्तापक्ष को करना है. इससे कोई इनकार नहीं कर सकता.