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BLOG: वैक्सीन का स्वागत है, तो साइंस में औरतों का भी स्वागत कीजिए

वैक्सीन के इतिहास में हमेशा से पुरुषों का बोलबाला रहा है. लेकिन इस बार बाजी मारने का काम औरतों ने किया है. कोविड-19 की वो सारी वैक्सीन जिससे लोगों को उम्मीदें हैं या फिर जिन्हें लेकर चर्चा की जा रही है उन सबको औरतें ही डेवलप कर रही हैं.

जिस विज्ञान ने बरसों से औरतों को हाशिए पर धकेला है, आज वही औरतें मेडिसिन के क्षेत्र में धाक जमा रही हैं. यह पढ़ना दिलचस्प है कि कोविड-19 की सभी बड़ी वैक्सीन को विकसित करने वाली औरतें ही हैं, यह बात और है कि वैक्सीन के इतिहास में हमेशा से पुरुषों का बोलबाला रहा है. लेकिन इस बार बाजी मारने का काम औरतों ने किया है. क्या प्रतिभा किसी जेंडर की मोहताज होती है?

एमआरएनए वैक्सीन पर काम कर रही हैं कैटलिन केरिको सवाल उठाया जा सकता है कि क्या औरतों और मर्दों के बीच कोई प्रतियोगिता छिड़ी है, जो हम बाजी मारने की बात कर रहे हैं. दरअसल सदियों के उत्पीड़न ने इसे प्रतिस्पर्धा ही बना दिया है. लेकिन यह सब बाद में! पहले यह जानना जरूरी है कि कोविड-19 की वैक्सीन विकसित करने वाली औरतें हैं कौन? इसमें सबसे पहला नाम आता है- कैटलिन केरिको का. कैटलिन मूल रूप से हंगरी की रहने वाली हैं. काम के सिलसिले में अमेरिका पहुंचीं और वहीं की होकर रह गईं.

कैटलिन का सारा काम एमआरएनए वैक्सीन पर है. यह मॉडर्ना और फाइजर/बायोएनटेक वैक्सीन का टेक्नोलॉजिकल बेस है. इन्हीं दोनों वैक्सीन का नाम सबसे ज्यादा लिया जा रहा है.एमआरएनए वैक्सीन हमारे शरीर के सेल्स को बताती है कि उसे इम्यून सिस्टम के रिस्पांस को शुरू करने के लिए कौन सा प्रोटीन बनाना है. कैटलिन ने एक दूसरे साथी ड्रू वीसमैन की मदद से मानव शरीर में आरएनए को इंजेक्ट करने का काम किया. बाद में कैटरिन ने बायोएनटेक के साथ भी काम किया.

महामारी विशेषज्ञ हैं ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन बनाने वाली टीम की प्रमुख सारा गिलबर्ट

इसके बाद ऑक्सफोर्ड वाली वैक्सीन से लोगों को बहुत सी उम्मीदे हैं. इससे बनाने वाली टीम की प्रमुख हैं, आयरिश मूल की सारा गिलबर्ट. वह महामारी विशेषज्ञ हैं और उन्होंने मलेरिया की वैक्सीन ईजाद करने वाली टीम के साथ अपना करियर शुरू किया था. फिलहाल वह एस्ट्राजेनेका नामक फार्मा कंपनी के लिए वैक्सीन बना रही हैं. इसके अलावा एक और वैक्सीन का नाम लिया जा रहा है, नोवोवैक्स. यह मैरीलैंड में बनाई जा रही है. फिलहाल नोवोवैक्स के नतीजे अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं लेकिन यह काफी आशाजनक लग रही है. नोवोवैक्स की टीम में सिर्फ महिलाएं हैं और टीम की प्रमुख हैं, नीना पटेल.नीना एक गुजराती हैं. काफी निर्धन परिवार में जन्मी थीं लेकिन शिक्षा ने उन्हें अमेरिका पहुंचाया और अब वह एक महत्वपूर्ण अभियान में लगी हुई हैं.

तो, मेडिसिन और रिसर्च के क्षेत्र में औरतों की उपलब्धियों का क्या कहना. हां, यह दुखद है कि 2019 में यूनेस्को इंस्टीट्यूट ऑफ स्टैटिसटिक्स की एक स्टडी में कहा गया था कि दुनिया में जितने भी साइंस रिसर्चर्स हैं, उनमें महिलाएं की संख्या 30% से भी कम है. इसके अलावा, अपने देश में भी हालात कोई बहुत अच्छे नहीं.देशभर के आईआईटीज़ में लड़कियां लगभग 20% हैं.

पर इसकी शुरुआत में ही गड़बड़झाला है. अगर चार्ल्स डार्विन जैसे वैज्ञानिक कहते हों कि शादीशुदा आदमी पुअर स्लेव होते हैं. पर उनके लिए स्लेव यानी गुलाम बनना जरूरी है क्योंकि वे सारी जिंदगी अकेले नहीं रह सकते तो बाकियों का क्या? क्या वैज्ञानिकों का यह पूर्वाग्रह उनके काम पर हावी नहीं होगा. हालांकि जेंडर और साइंस पर कोई ठोस स्टडी तो नहीं की गई है लेकिन रिपोर्ट्स लगातार ये दावा करती आई हैं कि विज्ञान में भी औरतों के साथ पक्षपात किया जाता रहा है.इसीलिए महिला वैज्ञानिक भी कम हुईं और जोहुईं, उनका नामलेवा कोई नहीं रहा.

वैज्ञानिक शोध खुद औरतों को कमतर मानते हैं

नोबल पुरस्कार की सूची भी यह साबित करती है. 1901 से अब तक विज्ञान के लिए 25 से भी कम महिला वैज्ञानिकों को नोबल मिला है. 2019 में एक भी महिला यह पुरस्कार नहीं जीती. 2020 में तीन महिलाओं को यह पुरस्कार मिला. इस पर एंजेला सैनी नाम की ब्रिटिश साइंस जर्नलिस्ट ने एक किताब लिखी है, जिसका नाम है, ‘इनफीरियर’. इस किताब की कैचलाइन है ’हाऊ साइंस गॉट विमेन रॉन्ग एंड द न्यू रिसर्च दैट्स रीराइटिंग द स्टोरी. विज्ञान ने महिलाओं के साथ जो भेदभाव किया है, इस किताब में इसी का विश्लेषण किया गया था.

अक्सर स्टेम यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स की शिक्षा में लड़कियों की संख्या कम होती है. फिर पूछा जाता है कि विज्ञान आखिर किसका विषय है.पर विज्ञान जो भेद करता है, उसका क्या? चूंकि विज्ञान के क्षेत्र पर भी पुरुषों का प्रभुत्व है.‘इंफीरियर’ में वैज्ञानिकों के इंटरव्यू हैं और कहा गया है कि वैज्ञानिक शोध खुद औरतों को कमतर मानते हैं जिसकी एक वजह यह है कि उन शोधों को करने वाले पुरुष ही हैं.

औरतें साइंस रिसर्च की क्षेत्र में 30 प्रतिशत से भी कम हैं जैसा कि यूनेस्को इंस्टीट्यूट ऑफ स्टैटिसटिक्स की स्टडी कहती है, औरतें साइंस रिसर्च की क्षेत्र में 30 प्रतिशत से भी कम हैं. लेकिन क्या इन बची-खुची औरतों के साथ भी अच्छा व्यवहार होता है. उन्हें लगातार इसी सोच का शिकार बनाया जाता है कि विज्ञान उनके लिए नहीं है. साइंटिफिक करियर पर इंडियाना यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्री जे स्कॉट लॉंन्ग का एक पेपर है जिसमें कहा गया है कि विज्ञान के क्षेत्र में महिला और दूसरे अल्पसंख्यकों की भागीदारी, उत्पादकता और मान्यता श्वेत पुरुषों के मुकाबले बहुत कम है.

यह रिसर्च विज्ञान के समाजशास्त्र पर है जोकि कहती है कि यहां करियर अटेनमेंट्स यानी उपलब्धियों में बहुत अधिक भेदभाव किया जाता है. इसका एक बड़ा कारण यह है कि औरतों को घर-परिवार की जिम्मेदारियां निभानी पड़ती हैं जिनके कारण उनके लिए नेटवर्क बनाना मुश्किल होता है. वे वर्क इवेट्स और कांफ्रेंस में हिस्सा नहीं ले पातीं. यह भी कहा गया कि फैमिली फ्रेंडली पॉलिसीज़ ने मर्दो को अपना काम करने के लिए आजाद बनाया, चूंकि महिलाओं के लिए घर परिवार की सेवादारी करने की बाध्यता बढ़ी है. उन्हें वर्क-फैमिली बैलेंस ज्यादा बनाना पड़ता है.

अगर महिलाओं की विज्ञान में मौजूदगी बढ़ेगी तो स्थितियां बदल सकती हैं अगर वैक्सीन की ईजाद से महिलाओं की विज्ञान में मौजूदगी बढ़ेगी, या लोगों का नजरिया बदलेगा, तो स्थितियां बदल सकती हैं. वैसे खुद एक महिला ने भूली बिसरी महिला वैज्ञानिकों को याद करने का एक नायाब तरीका निकाला था. 2018 में न्यूयॉर्क की एक आर्टिस्ट और न्यूरोसाइंस स्टूडेंट अमांडा पिंगबोधिपक्या ने ‘बियॉन्ड क्यूरी’ नाम से एक डिजाइन प्रॉजेक्ट चलाया जिसमें विज्ञान की दुनिया की 42 मशहूर महिला वैज्ञानिकों पोट्रेट्स की सिरीज जारी की गई. कम से कम औरतें तो अपनी साथिनों की सफलता का जश्न मना ही सकती हैं.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखिका के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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