तारीख थी 27 मई, 1977. उस दिन बिहार की राजधानी पटना का एक गांव बेलछी खून से रंग गया था. घंटों गोलियां चली थीं. 11 लोगों को आग में जिंदा जला दिया गया था. मरने वाले पासवान जाति से थे. हत्याकांड को अंजाम देने वाले कुर्मी थे, जिन्होंने हथियारों से लैस होकर गांव पर धावा बोल दिया था. यह वही हत्याकांड था, जिसके पीड़ितों से मिलने के लिए इंदिरा गांधी को हाथी पर बैठकर नदी पार करके बेलछी जाना पड़ा था. और यह वही हत्याकांड था, जिसने बिहार में दलित बनाम कुर्मी की लड़ाई को और ज्यादा बड़ा कर दिया. और फिर जिसे बाद की सियासत में नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने अपने-अपने हिसाब से एक दूसरे के लिए इस्तेमाल किया.
इस लड़ाई की शुरुआत होती है आपातकाल के ठीक बाद हुए चुनाव से. 1977 में आपातकाल हटने के बाद जब लोकसभा के चुनाव हुए तो बिहार में तीन लोगों को खुद जय प्रकाश नारायण के कहने पर लोकसभा का टिकट मिला था. पहले थे लालू यादव, दूसरे थे रामविलास पासवान और तीसरे थे महामाया प्रसाद सिन्हा. हालांकि नीतीश कुमार भी दावा करते हैं कि जेपी के कहने पर उन्हें भी लोकसभा का टिकट मिला था, लेकिन तब वो जेल में थे और वक्त पर मैसेज नहीं मिल पाया था, जिसकी वजह से वो लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ पाए थे. वक्त पर मैसेज न मिलने के पीछे नीतीश कुमार रामविलास पासवान को जिम्मेदार मानते थे और यहीं से उनकी अदावत शुरू हो गई थी.
लेकिन फिर बिहार में आए विधानसभा के चुनाव. 1977 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को हरनौत से टिकट मिला जनता पार्टी का. पार्टी की उस वक्त पूरे देश में लहर थी. हाल ही में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में सरकार भी बनी थी. लेकिन नतीजा आया तो नीतीश कुमार चुनाव हार गए थे. इसकी वजह है बेलछी का नरसंहार. नीतीश कुमार जाति से कुर्मी हैं और बेलछी नरसंहार का आरोप लगा था कुर्मी समुदाय के ही लोगों पर जिसका नतीजा चुनाव में नीतीश कुमार को चुकाना पड़ा था. जीत मिली थी निर्दलीय चुनाव लड़े भोला प्रसाद सिंह को. 1980 के चुनाव में भी यही कहानी दोहराई गई और नीतीश कुमार लगातार दूसरा विधानसभा चुनाव भी हरनौत से हार गए थे.
2005 में जब नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने की बात शुरू हुई थी तो उस वक्त रामविलास पासवान ने कहा था कि अब 1977 की जनता पार्टी की लहर में चुनाव हारने वाला भी बिहार का मुख्यमंत्री बनेगा. ये कहानियां सिर्फ इसलिए, ताकि आपको नीतीश कुमार और रामविलास पासवान के बीच की पुरानी अदावत का अंदाजा हो जाए और उसे आप अब के परिदृश्य से देख सकें कि कैसे मौका मिलने पर नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान की बनाई पार्टी को लगभग खात्मे की ओर धकेल दिया है. अब पासवान की बनाई पार्टी से उनके बेटे चिराग को ही अलग कर दिया गया है और पांच सांसदों के साथ पार्टी के नेता बन गए हैं रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस, जो नीतीश कुमार की सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रहे हैं और उन्हें नीतीश का करीबी माना जाता रहा है.
लेकिन इस नतीजे तक आने में नीतीश कुमार को करीब 44 साल का वक्त लगा है. इन 44 साल की राजनीति में नीतीश और रामविलास पासवान एक दूसरे के साथ शह और मात का खेल खेलते रहे हैं. इसकी एक और बानगी दिखती है 1990 के चुनाव में, जब लालू यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे. तब केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी. बिहार में विधानसभा चुनाव के बाद वीपी सिंह ने मुख्यमंत्री पद के लिए रामसुंदर दास के नाम पर मुहर लगाई थी. लेकिन तब लालू यादव खुद मुख्यमंत्री बनने के दावेदार थे. उन्होंने भी कहा कि विधायक दल के नेता के तौर पर वो भी चुनाव लड़ेंगे. उस वक्त लालू यादव के सबसे बड़े रणनीतिकार होते थे नीतीश कुमार. दांत काटी दोस्ती टाइप का मामला था. लालू यादव के पक्ष में लॉबिंग की जिम्मेदारी संभाली नीतीश ने. वहीं लालू यादव ने चंद्रशेखर से मदद मांगी. चंद्रशेखर ने विधायक दल के नेता की रेस में रघुनाथ झा को भी उतार दिया. नतीजा ये हुआ कि लालू यादव विधायक दल के नेता चुन लिए गए और बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. इस चुनाव के वक्त रामविलास पासवान के भाई पशुपति कुमार पारस अलौली से विधायक थे. उन्होंने विधायक दल के नेता के तौर पर राम सुंदर दास को मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट किया था.
आप कड़ियां जोड़ते जाइए, पूरी कहानी खुलती जाएगी. क्योंकि नीतीश कुमार ने लालू यादव के लिए जो किया था, उसका इनाम भी लालू यादव ने नीतीश को दिलवाया था. 21 अप्रैल, 1990 को जब वीपी सिंह ने केंद्र में अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया था तो देवीलाल के कोटे से दो लोग केंद्र में मंत्री बने थे. एक तो थे जगदीप धनखड़ और दूसरे थे नीतीश कुमार. नीतीश कुमार को उस वक्त कृषि और को-ऑपरेशन का राज्य मंत्री बनाया गया था.
तब रामविलास पासवान केंद्रीय मंत्री थे.
लेकिन 1996 में जब संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी और पहले देवगौड़ा और फिर गुजराल प्रधानमंत्री बने तो उस वक्त पासवान का कद नीतीश कुमार की तुलना में और ज्यादा बड़ा हो गया. तब पासवान केंद्रीय रेल मंत्री बन गए. साथ ही वो लोकसभा में सदन के नेता भी बन गए, क्योंकि दोनों ही प्रधानमंत्री राज्यसभा के सांसद थे. रेल मंत्रालय एक ऐसा विभाग है, जिसमें कई लोकलुभावन वादे किए जाते हैं. पासवान ने भी वही किया. कई योजनाओं का उद्घाटन किया. कई योजनाओं के उद्घाटन का वादा किया. और इनकी बदौलत रामविलास पासवान ने बिहार की सियासत में लोकप्रियता हासिल कर ली.
लेकिन 1998 में नीतीश ने बाजी मार ली. वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो रेल मंत्रालय नीतीश कुमार के हाथ आ गया. पासवान के जिम्मे आया दूरसंचार विभाग. इस विभाग में भी पासवान ने लोकलुभावन काम किए. लेकिन दो साल के अंदर ही ये विभाग चला गया प्रमोद महाजन के पास. पासवान के पास आया इस्पात. वहीं नीतीश को मिला ट्रांसपोर्ट. और फिर 2002 में गुजरात में हुए गोधरा दंगे के बाद पासवान एनडीए से बाहर आ गए. तब तक पासवान जनता दल तोड़कर लोजपा बना चुके थे. वहीं नीतीश कुमार एनडीए के साथ बने रहे थे. 2000 के विधानसभा चुनाव में एक हफ्ते के लिए बिहार के सीएम बन चुके नीतीश कुमार को मार्च 2001 में केंद्र में कृषि के साथ रेलवे का भी विभाग दे दिया गया था. उसके बाद पूरी तरह से रेलवे नीतीश के पास आ गया था.
वहीं पासवान सत्ता से बाहर थे. लेकिन नीतीश और पासवान के बीच सियासी खींचतान लगातार चलती रही थी. फरवरी, 2005 के चुनाव में ये खींचतान और लंबी तब हो गई, जब किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. वहीं रामविलास पासवान किंगमेकर की भूमिका में आ गए. उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था, क्योंकि 2004 में वो यूपीए में शामिल हो गए थे और केंद्र में मंत्री बन गए थे. उनके पास 28 विधायक थे. किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाने की सूरत में वो समर्थन देने को तैयार थे. लेकिन बात नहीं बनी और बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करके नए चुनाव का ऐलान कर दिया गया.
उसके बाद नवंबर, 2005 में नीतीश कुमार और बीजेपी ने मिलकर सरकार बना ली. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. रामविलास पासवान केंद्र में मंत्री बने रहे. तब लालू यादव ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और मात खा गए थे. पासवान अपने सियासी करियर में सिर्फ एक बार ही सियासत का मौसम भांपने में फेल हो गए थे. वो 2009 का चुनाव था, जब वो यूपीए से अलग होकर लालू यादव की आरजेडी के साथ चुनाव लड़े थे. हाजीपुर से वो चुनाव हार गए. और हारे भी किसके हाथ. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रहे राम सुंदर दास के हाथ, जिन्हें 1990 में मुख्यमंत्री बनाने के लिए रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस ने वोट दिया था. उस चुनाव में लोजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. 2014 में वो एनडीए के साथ आ गए और मरते दम तक एनडीए के ही साथ रहे.
वहीं नीतीश कुमार ने जून 2013 में बीजेपी और एनडीए का साथ छोड़ दिया और लालू यादव की आरजेडी के साथ चले गए. 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा. फिर 2015 में बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा. नीतीश-लालू की जोड़ी ने 2015 में बीजेपी को मात भी दी और फिर से नीतीश मुख्यमंत्री बने. हालांकि इस बीच लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद नीतीश ने इस्तीफा देकर अपनी कुर्सी कुछ समय के लिए जीतन राम मांझी को भी सौंप दी थी और फिर मशक्कत करके उसे वापस हासिल भी कर लिया था. लेकिन 2017 में नीतीश लालू से अलग हो गए और फिर से बीजेपी के साथ आ गए. उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी बनी रही. रामविलास पासवान केंद्र में मंत्री बने रहे.
यानी कि जेडीयू और लोजपा दोनों ही एनडीए का हिस्सा बने रहे. भले ही नीतीश और रामविलास पासवान के बीच अदावत थी, लेकिन बीजेपी एक ऐसी कड़ी थी, जिसने दोनों को जोड़ रखा था. तभी तो लोजपा नेता पशुपति पारस सांसद बनने से पहले नीतीश सरकार में पशुपालन मंत्री भी रहे थे और नीतीश कुमार के करीबी भी. लेकिन 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले चिराग पासवान के हाथ में लोजपा की कमान थी. उन्होंने बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट कैंपेन चलाया और सीधे नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. रामविलास पासवान ने भी चिराग की बात का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन ही किया. इस बीच चुनाव से ठीक पहले रामविलास पासवान की मौत हो गई और फिर चिराग ने बिहार विधानसभा चुनाव में उन सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए, जहां जेडीयू के उम्मीदवार थे. खुद को प्रधानमंत्री मोदी का हनुमान बताकर कहा कि वो बीजेपी के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन नीतीश कुमार को वो सीएम पद से हटाकर ही दम लेंगे.
नतीजा आया तो चिराग का दावा फुस्स हो गया. कुछ भी हासिल नहीं हुआ चुनाव में. लेकिन उनके प्रत्याशियों की वजह से नीतीश को खासा नुकसान हो गया. उनके कई प्रत्याशी उन वोटों की वजह से हार गए, जिसे चिराग के उम्मीदवारों ने काटा था. इससे नीतीश चिराग के खिलाफ खुलकर बोलने लगे. मौके का इंतजार करने लगे. और फिर मौका आ गया. जेडीयू के कुछ नेताओं ने पशुपति पारस से संपर्क किया या फिर पशुपति पारस ने जेडीयू नेताओं से संपर्क किया, लेकिन काम हो गया. पशुपति पारस और नीतीश कुमार के पुराने संबंध काम आए. चिराग भले ही नीतीश के खिलाफ खुलकर बोलते रहे, लेकिन पशुपति पारस हमेशा नीतीश की सराहना ही करते रहे. और फिर जो हुआ, उसे सब देख रहे हैं.
अपने ही चाचा के घर का दरवाजा खुलवाने के लिए चिराग पासवान गाड़ी का हॉर्न बजाते रह जा रहे हैं, लेकिन 20 मिनट तक दरवाजा नहीं खुलता है. दरवाजा खुलता भी है तो पशुपति चिराग से मिलते नहीं हैं. ये वही पशुपति पारस हैं, जिनके लिए रामविलास पासवान ने अपनी परंपरागत हाजीपुर सीट छोड़ दी थी और खुद राज्यसभा के जरिए केंद्र में गए थे. वहीं जब रामविलास पासवान के दूसरे भाई रामचंद्र पासवान का निधन हुआ था तो समस्तीपुर सीट पर उनके बेटे प्रिंस को उम्मीदवार बनाया, जिताया और लोकसभा पहुंचाया. चिराग ने प्रिंस को प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया. लेकिन प्रिंस भी चिराग के साथ नहीं हैं. सूरजभान के छोटे भाई और सांसद चंदन सिंह हों या फिर वैशाली की सांसद वीणा देवी, रामविलास पासवान सबको साथ लेकर चलते रहे. लेकिन उनकी मौत के बाद इन्होंने चिराग से किनारा कर लिया. महबूब अली कैसर के साथ भी यही हुआ. वो भी रामविलास पासवान के साथी थे, लेकिन फैसलों के दौरान चिराग ने उनकी भी नहीं सुनी. नतीजा सामने है कि अब चिराग अपने ही पिता की बनाई पार्टी में अकेले पड़ गए हैं. जो सियासी दुश्मनी उनके पिता ने नीतीश कुमार से की थी, उसका खामियाजा अब चिराग को भुगतना पड़ रहा है, क्योंकि इस बार नीतीश ने उन्हें चेक-मेट कर दिया है.
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