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क्या इस्लाम में जबरदस्ती धर्म परिवर्तन की इजाजत है? क्या कहता है कुरान, इस्लामिक स्कॉलरों की व्याख्या क्या है? पढ़ें

जब से उत्तर प्रदेश के एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड यानी एटीएस ने 1 हज़ार से ज्यादा हिंदुओं का जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करने के आरोप में मुफ्ती जहांगीर और उमर गौतम नाम के दो व्यक्तियों की गिरफ्तारी की है, तब से ये बहस ज़ोर पकड़ने लगी है कि क्या इस्लाम में जबरदस्ती धर्म परिवर्तन की इजाजत है?

उमर गौतम और जहांगीर पर आरोप है कि इन्होंने गुमराह करके एक हज़ार से ज्यादा हिंदुओं का इस्लाम में प्रवेश कराया और इनके निशाने पर वो गरीब हिंदू युवा भी थे जो बोलने और सुनने में सक्षम नहीं हैं, यानी जो मूक और बधिर हैं.

कहा जा रहा है कि ये लोग पाकिस्तान की खुफिया एंजेंसी ISI के इशारे पर काम करते थे और इसके लिए इन्हें ISI से फंड भी मिलता था, लेकिन सवाल ये है कि किसी का जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराकर किसी को मिलता क्या है? और क्या इस्लाम इसकी इजाजत देता है? आज मैं आपके इन्हीं सवालों का जवाब देने की कोशिश करूंगा

एक भारतीय वेबसाइट न्यू एज इस्लाम पर गुलाम गौस सिद्दीकी नामक लेखक कुरान की एक आयत का हवाला देते हैं, जिसमें कहा गया है ला इकराहा फिद्दीन, जिसका सरल भाषा में अर्थ है कि धर्म में किसी भी प्रकार का दबाव या जबरदस्ती स्वीकार्य नहीं है. इस पूरे वाक्य का अर्थ है कि धर्म में जबरदस्ती की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है और ये इस्लाम में पूरी तरह से प्रतिबंधित है.

गुलाम गौस सिद्दीकी कुरान में ही लिखी बातों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि कुरान में लोगों पर जुल्म करने वालों के लिए भी सज़ा का प्रावधान है. जो लोग ज़ालिम होते हैं उन्हें दोजख यानी नर्क में जगह मिलती है और वहां उन्हें आग की एक दीवार घेरे रहती है, जब ज़ालिम लोग तड़पते हुए पीने के लिए पानी मांगते हैं तो उन्हें पीने के लिए पिघली हुई गर्म धातुएं यानी Molten Metal दिया जाता है. गुलाम गौस सिद्दीकी कुरान का ही हवाला देते हुए ये भी लिखते हैं कि अगर अल्लाह चाहता कि धरती पर सभी इस्लाम अपना लें..तो वो गैर मुसलमानों को धरती पर जन्म ही क्यों लेने देता ?

इस्लाम के मशहूर कानूनविद इब्न कदामाह अल मकदूसी ने तो यहां तक लिखा है कि अगर किसी ने इस्लाम कबूल कर लिया है तो भी उसे तब तक मुसलमान ना माना जाए जब तक ये साबित ना हो जाए कि उसके साथ कोई ज़ोर जबरदस्ती तो नहीं की गई है. और इसके पीछे वो भी यही तर्क देते हैं कि कुरान में साफ तौर पर कहा गया है कि धर्म में किसी जबरदस्ती की कोई गुंजाइश नहीं है यानी ला इकराहा फिद्दीन.

14वीं शताब्दी के मशहूर इस्लामिक इतिहासकार और स्क़ॉलर इब्न कसीर भी अपनी मशहूर किताब तफसीर अल कुरान अल अज़ीम में कुरान की इसी आयत की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस्लाम में जबरदस्ती की कोई गुंजाइश नहीं है और ये बात बहुत सरल और स्पष्ट है.

ऐसी ही बातें इस्लाम के तमाम इतिहासकारों, स्कॉलर्स और जानकारों ने कही है, लेकिन फिर भी कुछ लोग गैर मुसलमानों को बहला फुसलाकर, धोखेबाज़ी से या जबरदस्ती करके उन्हें इस्लाम कबूल करने पर मजबूर करते हैं और ये सरासर गुनाह है. यहां तक कि एक किस्सा तो ये भी है कि पैगंबर मोहम्मद साहब के ज़माने में एक व्यक्ति ने इस्लाम स्वीकार कर लिया..लेकिन कुछ दिनों बाद उसने वापस अपने धर्म में जाने की इजाजत मांगी तो पैगंबर मोहम्मद साहब ने उसे खुशी खुशी अपने पुराने धर्म में वापस लौटने की इजाजत दे दी.

इतना ही नहीं पैगंबर मोहम्मद के उत्तराधिकारियों ने भी कभी किसी के साथ इस मामले में जबरदस्ती नहीं की. हुआ कुछ यूं हैं कि खलीफा उमर एक बुजुर्ग ईसाई महिला को मिलने आने का निमंत्रण देते हैं. महिला उनसे मिलने भी आती है, लेकिन ये फिर वापस लौट जाती है. इसके बाद खलीफा उमर को बहुत दुख होता है और वो ग्लानी से भरकर ये कहते हैं कि मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई क्योंकि उस महिला ने कहीं ये ना सोच लिया हो कि मैं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम कबूल करने के लिए कह रहा हूं.

अब आप सोचिए जब इस्लामिक धर्म ग्रंथों में किसी के जबरदस्ती धर्म परिवर्तन की इजाजत नहीं है. इस्लाम के जानकार भी इसे गलत बताते हैं तो फिर आखिर वो कौन लोग हैं जो लोगों को गुमराह करके जबरदस्ती उनका धर्म परिवर्तन कराते हैं. ये जो भी लोग हैं आपको इन्हीं से सावधान रहना है.

--लेखक एक पत्रकार हैं और दैनिक हिंट व निवाण टाइम्स के सम्पादक हैं. इनसे ट्विटर पर @KapiltyagiIND पर जुड़ सकते हैं.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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