युद्ध, प्राकृतिक आपदा, देश का बंटवारा, चुनावी रंजिश, सरकारी नीतियां और व्यापारिक साठगांठ का भारत में अगर कोई सबसे बड़ा शिकार रहा है, तो वह उपेक्षित किसान वर्ग है. लेकिन चुनावी राजनीति में किसानों की बढ़ती अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनका शुक्रिया अदा करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को भोपाल में विराट रैली आयोजित करनी पड़ रही है और उनके दबाव का मुकाबला करने के लिए उद्योगपतियों की हितैषी मोदी सरकार को किसानों के हित में सरकारी खजाने का मुंह खोलना पड़ रहा है.पीएम किसान पोर्टल लॉन्च कर दिया गया है, जिसमें 25 फरवरी से किसान सम्मान निधि डाली जाने लगेगी.


सालों पहले टीवी पर एक विज्ञापन आता था, जिसकी टैगलाइन थी- सोने जैसे गेहूं से बना आटा. लेकिन सोने जैसा गेहूं उगाने वाले किसान का इस विज्ञापन में कोई जिक्र या संकेत तक नहीं था. राजनीतिक गलियारों से लेकर गल्ला मंडियों तक किसान इस कदर उपेक्षा का शिकार था कि उसे अपनी फसलों के उचित दाम के लिए संसद से सड़क तक आंदोलन करने को मजबूर होना पड़ रहा था. तमिलनाडु के नरमुंडमालाधारी किसान तो राजधानी दिल्ली में विरोध प्रदर्शन के दौरान अपनी विष्ठा खाने की धमकी तक दे चुके थे! मगर पिछले साल कुछ विधानसभा चुनावों के नतीजे क्या आए, सोने जैसी फसल उगाने वाले किसान पर चांदी बरसाने का दौर चल पड़ा है और राजनीतिक दलों में किसानों का शुभचिंतक बनने की होड़ मच गई है. पीएम मोदी कटाक्ष कर रहे हैं कि कांग्रेस सरकार की कर्जमाफी सिर्फ चुनाव जीतने के लिए है, तो पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम पलटवार कर रहे हैं कि क्या मोदी जी की किसान राहत योजना चुनाव हारने के लिए है!


कहावत है कि बिना रोए मां ही बच्चे को दूध नहीं पिलाती. देश का किसान आजादी के बाद से ही ‘जय जवान जय किसान’ और ‘गरीबी हटाओ’ जैसे खोखले नारों की घुट्टी पीकर नागरिकों का पेट पालता चला आ रहा है. लेकिन जब महाराष्ट्र से शुरू हुए किसान आंदोलन ने मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा से लेकर दिल्ली तक अपनी धमक का अहसास कराने की जुर्रत की, तोउनकी बोली का जवाब गोली से दिया गया. मंदसौर में आंदोलनकारी किसानों पर गोलियां चलीं और दिल्ली में अपनी मांगें लेकर पहुंचे किसानों को लाठियां झेलनी पड़ीं. किसान ने देखा कि सत्ताधारियों ने उसकी हैसियत किसी सरकारी दफ्तर के चपरासी से भी बदतर कर दी हैऔर बात भी सुनने को तैयार नहीं हैं, तो उसने अपने वोट से चोट करने का रास्ता अख्तियार कर लिया.


विडंबना यह है कि जब तक कोई समुदाय या जाति हमारे देश में खुद को वोट बैंक के रूप में प्रस्तुत नहीं करती, उसका दबाव समूह ही नहीं बनता और वह गरीब की लुगाई बनकर रह जाती है. किसानों का मामला भी कुछ ऐसा है. चूंकि किसान-वर्ग में हर जाति, वर्ण और संप्रदाय के लोग शामिल हैं, इसलिए उनका वोट भी बिखर जाता है. वोट देते समय किसान अपनी हाड़तोड़ मेहनत और कौड़ियों के मोल बिक रही उपज का दर्द भूलकर ब्राह्मण, ठाकुर, यादव, पाटिल, पटेल, पासी, कुर्मी, हिंदू-मुसलमान वगैरह बन जाता है. इसी का लाभ राजनीतिक दल हमेशा से उठाते आ रहे हैं. लेकिन जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में अन्नदाता ने सिर्फ किसान बनकर वोट डाला, तो राजनीतिक दलों के होश उड़ गए. किसानों के अचानक बदले इस रुझान पर सत्ताधारियों का ध्यान केंद्रित होना इसलिए भी लाजिमी था कि उक्त तीनों राज्यों के चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने अपनी सरकारें बनते ही किसान कर्जमाफी का वादा किया था और तीनों राज्यों में कांग्रेस को ही विजय मिली.


यह अलग बात है कि बीजेपी किसानों को अपने पाले में करने के साथ-साथ रामजन्मभूमि मुद्दे को भी पड़े पैमाने पर हवा देने में जुटी है, ताकि किसान मतदाता पहले की ही तरह तितरबितर हो जाएं. लेकिन वह पूर्व की भांति किसानों की उपेक्षा अब नहीं कर सकती. पहले तो आलम यह था कि किसान दिल्ली में अपना रोना लेकर पहुंचते थे और केंद्र की सत्ता में काबिज उनके मंत्री चार कदम चलकर धरनास्थल तक जाने की जहमत भी नहीं उठाते थे. अब सहायता राशि सीधे किसानों के बैंक खातों में डालने की घोषणा हो चुकी है और दो हेक्टेयर तक की जोत वाले किसानों को साल में 6,000 रुपये का नकद समर्थन देने की पेशकश की गई है.होड़ सिर्फ बीजेपी या कांग्रेस में ही सीमित नहीं है, आरजेडी, जेडीयू, टीएमसी, आम आदमी पार्टी, टीडीपी, टीआरएस, बीजेडी, डीएमके और जैसे क्षेत्रीय दल भी किसानों के लिए जमीन-आसमान के कुलाबे मिला देने के वादे कर रहे हैं.


हालांकि किसान समझते हैं कि राजनीतिक दल उनका वोट लेने के लिए जाल बिछा रहे हैं. जब तक राष्ट्रीय किसान आयोग के तहत एमएस स्वीनाथन समिति की सिफारिशें लागू नहीं हो जातीं, तब तक किसी भी सेक्टर से मुकाबला करना उनके लिए कठिन होगा. हर किसान आंदोलन के समय कृषि को राज्यों की सूची के बजाय समवर्ती सूची में लाने की मांग की जाती है, ताकि केंद्र व राज्य दोनों किसानों की मदद के लिए आगे आएं. लेकिन न तो इस मांग पर न तो राज्य सरकारें कदम बढ़ाती हैं न केंद्र सरकार समन्वय बनाती है. 2004 में गठित किसान आयोग ने फसल उत्पादन लागत से 50% ज़्यादा दाम किसानों को देने की सिफारिश की थी और कम दाम में अच्छी क्वालिटी के बीज, किसानों के लिए ज्ञान चौपाल, प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए कृषि जोखिम फंड, बेकार पड़ी ज़मीन को भूमिहीन किसानों में बांटना, वनभूमि को कृषि से इतर कामों के लिए कॉरपोरेट को न देना, सबको फसल बीमा सुविधा, एग्रिकल्चर रिस्क फंड और महिला किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड जारी करने का सुझाव दिया था. किसानों ने 2004 से लेकर 2019 तक केंद्र और राज्यों में लगभग हर प्रमुख राजनीतिक दल की अगुवाई वाली सरकारें देख ली हैं, लेकिन आयोग की सिफारिशों पर अमल करने की कार्रवाई किसी ने नहीं की.


ऐसे में आम चुनाव के मद्देनजर की जा रही किसान हितैषी घोषणाओं को देश का अन्नदाता जबानी जमाखर्च और चुनावी लालीपॉप क्यों न समझे? राजनीतिक दलों को भी यह समझ लेना चाहिए कि अगली बार जब किसान वोट डालने जाएगा, तो हिंदू-मुस्लिम के मुद्दे में नहीं फंसेगा और इस बात का ध्यान रखेगा कि खेती को लाभ का सौदा बनाने की इच्छाशक्ति सचमुच किस दल में है. इससे यह भी साबित हो जाएगा कि अब किसान ‘कोऊ नृप होय हमहिं का हानी’ वाली मानसिकता से बाहर आ चुका है.


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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)