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वो बैड गर्ल्स हैं. शोर मचाती हैं, चिल्लाती हैं, जोर-जोर से हंसती हैं, गुस्सा उनकी नाक पर धरा रहता है. जरा सी चूं की तो फुफकारने लगती हैं. यह गुड गर्ल होने की निशानी नहीं है. उन्हें गुड गर्ल बनना चाहिए. चुप रहना चाहिए, सहनशील बनना चाहिए, कोई कुछ भी कहे, करे तो शांति से जवाब देना चाहिए. लड़की होना इसी को कहते हैं. और किसे कहते हैं?
जब कोई आप पर हावी हो तो उसे ऐसा करने दें. तब उसके गुस्से का शिकार नहीं होंगी. यह सीख हम नहीं, एच टी संगलियाना दे रहे हैं. एक्स एमपी हैं. टॉप कॉप रहे हैं. उनकी बात का कोई मतलब तो होगा. बेंगलूर में 2012 के निर्भया कांड को याद करते हुए उनकी यही सलाह है कि जब आपको कोई ओवर पावर करे तो सरेंडर कर दें. बाद में गुहार लगाएं. इससे आप मरने से बच जाएंगी.
संगलियाना हमें गुड गर्ल बनाना चाहते हैं. गुड गर्ल्स मरना पसंद करती हैं, शोर मचाना नहीं, प्रतिरोध करना नहीं. फिल्में, टीवी सीरियल्स, हमारे घर-परिवार, सोसायटी- सभी हमें गुड गर्ल्स बनाना चाहते हैं. गुड गर्ल्स अक्सर बच जाती हैं यूं इसकी कोई गारंटी नहीं. हां, बैड गर्ल्स लाठियां-डंडे खाकर भी चुप नहीं रहतीं. तभी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की लड़कियों ने पिछले साल पुलिस की मार खाने के बावजूद अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखा. प्रदर्शन छेड़छाड़ के खिलाफ था. कॉलेज प्रशासन के मर्दवादी बर्ताव के खिलाफ था. तब लड़कियों ने कहा था कि गुड गर्ल की इमेज से चिपके रहने की वजह से हम अपनी आवाज नहीं उठा पाते थे. लेकिन अब हम गुड गर्ल्स बनकर नहीं रहना चाहतीं.
गुड गर्ल बनी रहती हैं इसीलिए किसी के बहुतेरे शोषण के बावजूद आवाज नहीं उठा पातीं. अमेरिकन फिल्म प्रोड्यूसर हार्वे विनस्टीन के हैरेसमेंट को बताने में औरतों को कितना समय लगा. फिर रोज मैकगोवन, एश्ली जड जैसी एक्ट्रेस ने उनके रवैये की तरफ उंगली उठाई तो 82 और औरतें सामने आईं.
रोज मैकगोवन का ट्विटर अकाउंट सस्पेंड हो गया. हीरोइन थीं उसके लिए कैसी नैतिकता? क्या-क्या नहीं करती रही होगी. फिर भी रोज चुप नहीं रही. भली औरत की इमेज टूटी और ‘बुरी औरत’ बाहर आ गई. गुड गर्ल्स सिर्फ अपने देश में नहीं होतीं. दुनिया के हर देश में लड़की के भीतर गुड-बैड के बीच की लड़ाई चलती रहती है. अच्छा है, चिल्ला पड़ने वाली बैड गर्ल जीत जाती है.
बैड गर्ल को जीतना ही चाहिए. किसी ने कहा लड़की बेहया हो गई. बेहया होना बैड ही तो है. बिना हया की लड़की जिसे घिसे पिटे रिवाजों की हया नहीं होती. गुलाम संस्कृति उसे रास नहीं आती. ऐसी बेहया ‘बैड गर्ल्स’ को कपड़े पहनने, चलने-फिरने, सबके बारे में सलाह दी जाती है.
बेंगलूर में एक स्टडी में 450 लोगों ने कहा कि कपड़े पहनने की आजादी दे देंगे तो लड़कियां छुट्टा घूमने लगेंगी. स्टडी एक विमेन ग्रुप सौदामिनी ने की थी. लोगों से पूछा था कि गुड गर्ल और बैड गर्ल आप किसे कहेंगे? इसमें 89 परसेंट ने कहा कि जो शाम को समय पर घर लौट आए, माता-पिता के कहने पर शादी करे, किसी से फालतू बात न करे, मोबाइल फोन का कम इस्तेमाल करे, पोलाइट, शांत हो. शर्मो हया से लबरेज हो वह गुड गर्ल है.
बैड गर्ल जाहिर सी बात है इसकी उलट है. हां, 73 परसेंट ने कहा कि बैड गर्ल्स बनने से बचाना हो तो शुरुआत से ही नकेल कसकर रखनी चाहिए.
हम शुरू से नकेल कसकर लड़की को गुड गर्ल बनना चाहते हैं. इसीलिए भारतीय बार एसोसिएशन का सर्वे कहता है कि 69% औरतें यौन शोषण की रिपोर्ट नहीं करतीं. इसके बावजूद उसे झेलती हैं. वे गुड गर्ल बनी रहती हैं. रिपोर्ट कर भी देती हैं तो अदालतों में अपनी दलील नहीं दे पातीं. वकीलों की जिरह से घबरा जाती हैं. तभी एनसीआरबी का डेटा कहता है कि देश में सेक्सुअल हैरेसमेंट के मामलों में कनविक्शन रेट यानी सजा मिलने की दर करीब 18.9 परसेंट ही है.
मशहूर हिस्टोरिन और एक्टिविस्ट रेबेका सोलनिट का मानना है कि साइलेंस और पावरलेसनेस यानी शक्तिहीनता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. आप चुप रहेंगी तो शक्तिहीन हो जाएंगी. अपनी कहानी नहीं बता पाएंगी तो आपको जिंदा मौत मिलेगी. अपनी बात कहने का अधिकार वह संपत्ति है जिसे बांटना चाहिए. पक्की बात है. शक्तिशाली मर्द कितने प्रचंड होते हैं. बहुत आसानी से देखा जा सकता है. उन्हें गुड या बैड होने की कोई चिंता नहीं होती.
इसीलिए अब लड़कियां को भी गुड या बैड होने की चिंता से मुक्त होना चाहिए. धीरे-धीरे हो भी रही हैं. उनकी हंसी से कोई चिढ़े या चुटकी ले उसकी खिलखिलाहट हर ओर गूंज रही है. वे अपने पंख पसार रही हैं. उजाले की चादर ओढ़े निकल रही हैं.
निर्भया मामले के बाद सड़कों पर उनका भारी जुटान था. मॉरल पुलिसिंग के खिलाफ वे गुलाबी चड्डियां लहरा रही थीं. किस ऑफ लव जैसे कैंपेन से बता रही थीं कि सेक्स व्यक्तिगत च्वाइस है. वह हॉस्टल कर्फ्यू के खिलाफ पिंजड़ा तोड़कर चिल्ला रही हैं कि हमारी हदें हम खुद ही तय करेंगे. हैशटैग मी टू कैंपेन के साथ बता रही हैं कि उनके साथ कब, कहां गलत हुआ. उनकी सहमति मांगी गई, या बिना सहमति के कोई उन पर हावी हुआ.
बेशक, उनके खिलाफ हमारी कड़वाहट की कोई जायज वजह नहीं हो सकती. चूंकि हर आजाद प्रौढ़ा कुट्टिनी और हर युवा मनचली नहीं होती. उसे उसकी धरती और आसमान मिलना ही चाहिए.
एक साथी ने पूछा था कि लड़कियों को एंपावर करने की मुहिम जोर-शोर से चल रही है. क्या कोई लड़कों को भी इन एंपावर्ड लड़कियों के लिहाज से तैयार कर रहा है. हमें लड़कियों को परिभाषाओं से बाहर रखकर लड़कों के लिए भी कोई परिभाषा बनानी चाहिए. एक गुड ब्वॉय की परिभाषा. लड़कियां तो बैड ही अच्छी हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)