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ब्लॉग: यकीन मानिए- लड़कियों की दिमागी धुलाई करना आसान नहीं

प्राइवेसी का अधिकार सभी को है- लड़कियों को भी. इसमें धार्मिक प्राइवेसी भी शामिल नहीं है. धर्म मेरा अपना है, मैं जिस तरह से उसका पालन करूं.

अपने यहां कहा जाता है, लड़की की कोई जाति नहीं होती. वह जिस परिवार में शादी होकर जाती है, उसी परिवार की जाति अपना लेती है. बेशक, सोसायटी के लिए वह ऑब्जेक्ट ही है इसीलिए जिसका मालिकाना हक, उसी की जाति. दिलचस्प बात यह है कि इन दिनों लड़कियों की जाति, धर्म को लेकर ही सबसे ज्यादा मार मची है. लड़की आपकी सांस्कृतिक परंपरा की ऐतिहासिक रक्षक जो बनी हुई है. सामाजिक मर्यादा और पवित्रता का शब्द रूप. उसकी अपनी मर्जी की इसीलिए कोई सुनवाई नहीं है. बालिग होकर सरकार चुनने का दिमाग उसके पास है लेकिन अपनी जिंदगी का फैसला करने की आजादी उसे नहीं है. सरकारी अफसरान से लेकर मुंसिफ तक को इस बात का डर है कि किसी साजिश के तहत उसके दिमाग की धुलाई की जा रही है. उसका धर्म बदलकर उसे दूसरे मजहब में तब्दील किया जा रहा है. आम लोगों की अवचेतना या अर्धचेतना में पड़ी धार्मिक आस्थाओं को लगातार झकझोरा जा रहा है.

मामला नया है. राजस्थान की 22 साल की पायल ने आरिफा बनकर फैयाज मोदी से लव मैरिज की. उसके माता-पिता को आपत्ति थी. उन्होंने कोर्ट में गुहार लगाई. कोर्ट ने शादी को तो माना लेकिन यह भी कहा कि अब धर्म परिवर्तन करने वालों को जिला कलेक्टर को पूरी जानकारी देनी होगी. कहीं कोई किसी को बरगला तो नहीं रहा. इसीलिए ऐसे लोगों का नाम नोटिस बोर्ड पर एक हफ्ते तक चस्पा रहेगा. अगर कोई ऑब्जेक्शन करना चाहे तो उसका स्वागत है. यूं ऑब्जेक्शन तो कोई न कोई करता ही रहता है- कभी मुंह जुबानी, कभी लाठी-डंडों से. मेरठ में कुछ दिन पहले एक लड़का-लड़की की पिटाई कर दी गई. दोनों अलग-अलग धर्म के थे. शादी करने चले थे. मुश्किल हुई. पुलिस आई. लड़की अपने घर, लड़का अपने.

यूं राज्य सरकारें भारत के राष्ट्रीय स्वरूप की बुनियाद से छेड़छाड़ करने की कोशिश लगातार करती रही हैं. राजस्थान सरकार 2006 में धर्म स्वतंत्रता बिल पास कर चुकी है. इस एंटी कनवर्जन बिल को अभी राष्ट्रपति की मंजूरी मिलनी बाकी है. ऐसी ही स्थिति दूसरे कई राज्यों की भी है. ओड़िशा, मध्य प्रदेश, गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य एंटी कनवर्जन कानूनों को लागू कर चुके हैं. गुजरात में तो धर्म परिवर्तन के लिए इजाजत लेनी पड़ती है. यह बात और है कि इन कानूनों को लंबा अदालती सफर तय करना पड़ा. तमिलनाडु में तो इस तरह के एक कानून को खुद सरकार ने निरस्त कर दिया. हिमाचल प्रदेश के कानून की कई धाराओं को हाई कोर्ट ने वैध नहीं माना था. हाई कोर्ट ने तब कहा था कि यह व्यक्ति का अधिकार है कि वह किस पर विश्वास करे- उस विश्वास को बदले या उस विश्वास को गुप्त रखे. हाल ही में झारखंड ने भी एंटी कन्वर्जन कानून बनाया है, जिसके तहत लोकल एडमिनिस्ट्रेशन को शपथ पत्र के जरिए कन्वर्जन की सूचना देना जरूरी है. क्या ऐसे फैसले हाई कोर्ट के फैसलों के खिलाफ नहीं...

खुद कानून और संविधान क्या कहते हैं? कानून की बात करें तो अलग-अलग धर्म वाले लोगों के लिए स्पेशल मैरिज एक्ट मौजूद है. संविधान भी व्यक्ति को सभी तरह के अधिकार देता है. अनुच्छेद 25 धर्म और विवेक की आजादी देता है, मतलब आप स्वतंत्र विचार रख सकते हैं. उस पर कोई पाबंदी नहीं है. अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आजादी देता है तो अनुच्छेद 19 भाषण, अभिव्यक्ति और संगठित होने की. बहरहाल निराशा के बाद भी हम अदालतों की ओट लेकर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने राइट टू प्राइवेसी का बात की है. मतलब, हम सभी को निजता का अधिकार है. धर्म पालन करना और इसके बारे में किसी को न बताना, प्राइवेसी का ही पार्ट है.

प्राइवेसी का अधिकार सभी को है- लड़कियों को भी. इसमें धार्मिक प्राइवेसी भी शामिल नहीं है. धर्म मेरा अपना है, मैं जिस तरह से उसका पालन करूं. जिस तरह से सोचूं और जिस तरह से अपने लिए दुआ मांगूं. लेकिन लड़कियों से यह उम्मीद की जा रही है कि वे उनके बताए तरीकों से यह सब करें. न करें, तो महीनों की नजरबंदी में थेरेपी तैयार है. केरल में प्रेम पर पाबंदियां लगाने वालों के लिए अच्छी खबर यह है कि उनके लिए दूसरे राज्यों में भी काम निकल रहा है. उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान और महाराष्ट्र तक में. एंटी कनर्वजन का डर ज्यादातर लड़कियों के लिए ही है. लड़का दूसरे धर्म की लड़की को ब्याहेगा तो हमारा क्या नुकसान... इससे तो हमारा समुदाय फलेगा-फूलेगा ही. हां, लड़कियां किसी की मर्दानगी पर रीझकर उसके झांसे में नहीं आनी चाहिए. दरअसल लड़कियों के पास आर्थिक और सामाजिक आजादी लड़कों के मुकाबले कम होती है इसीलिए उन्हें परिवार और समाज का ज्यादा दबाव झेलना पड़ता है. उन्हें अपने धर्म को सार्वजनिक स्तर पर घोषित करने की ज्यादा चिंता करनी पड़ती है. इसका परिणाम क्या होगा, उससे कैसे निपटा जाएगा, इसकी भी ज्यादा चिंता करनी पड़ती है.

यह चिंता इसलिए भी है क्योंकि रवायती तौर पर समझा जाता है, लड़कियों के विवेक पर भरोसा नहीं किया जा सकता. ओपन साइंटिफिक जनरल प्लॉस का एक सर्वे कहता है कि 6 साल की उम्र से लड़कियां खुद भी यह सोचने लगती हैं कि वे लड़कों से कम इंटेलिजेंट हैं. मर्दों ने उन्हें ऐसा ही ब्रेनवॉश किया है. उन्हें बताया है कि उनकी सोचने की ताकत पर यकीन नहीं किया जा सकता. कोई भी उनके दिलो दिमाग पर कब्जा कर सकता है. ठीक उसी तरह, जिस तरह कई राज्य सरकारें मानती हैं कि दलित और आदिवासी अज्ञानी और कमअक्ल हैं. कोई भी उनकी मति हर सकता है.

बेशक, व्यक्ति के कुछ मूलभूत अधिकार हैं. पर इसका स्रोत संविधान या सरकार नहीं, व्यक्ति खुद है और उसकी वैधता के लिए उसे किसी ठप्पे की जरूरत नहीं है. संविधान का काम उन अधिकारों की निशानदेही करना है और अदालत का काम उन अधिकारों की सुरक्षा करना है. अदालतें ऐसा करने की कोशिश गाहे-बगाहे करती रहती हैं. हमें भी लड़कियों को अपने मूलभूत अधिकारों का प्रयोग करने की आजादी देनी चाहिए. यकीन मानिए- वे मूढ़ बिल्कुल नहीं होतीं.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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