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ब्लॉग: हालात बदलने के लिए उत्तराखंड का जनादेश, मोदी के नाम पर मिले वोट

उत्तराखंड में कांग्रेस की भारतीय जनता पार्टी के सामने मुख्यमंत्री हरीश रावत को अकेला महारथी की तरह पेश करने की रणनीति काम नहीं आई. राज्य के मतदाताओं ने आखिर नरेंद्र मोदी पर ही विश्वास किया और भाजपा की लहर नहीं आंधी चली. हरीश रावत कांग्रेस के किले को ही नहीं अपनी दोनों सीटें हरिदवार ग्रामीण और किच्छा नहीं बचा सके. राज्य की सत्तर सीटों में 57 भाजपा को सौंपकर मतदाताओं ने एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपना भरोसा जताया है. पिछले कई सालों से सत्ता की खींचतान और निर्दलियों की सौंदेबाजी से परेशान उत्तराखंड की जनता ने स्पष्ट जनादेश के साथ अपनी अपेक्षाओं को जता दिया है. मोदी स्वच्छ प्रशासन और तेजी से काम का वादा करके गए हैं, उत्तराखंड का जनादेश इन अपेक्षाओं के साथ है. कांग्रेस की रणनीति कांग्रेस की यही रणनीति थी कि चुनाव किसी न किसी रूप में हरीश रावत और मोदी के बीच का एक मुकाबला हो जाए और स्थानीय नेता कहीं न कहीं पहाड़ी चेहरे के तौर पर वोट आखिर में हरीश रावत को दे दें. कांग्रेस का पूरा चुनावी अभियान इसी रूप में चला. यहां तक कि कांग्रेस हाइकमान और सेलिब्रिटी भी चुनाव प्रचार अभियान में नजर नही आए. जिन राजबब्बर को राज्यसभा की सीट उत्तराखंड ने दी वो उत्तर प्रदेश के चुनावी रैलियों और मंचों पर दिखे. कहा भी जाने लगा था कि अगर कांग्रेस जीतती है तो यह हरीश रावत की जीत होगी और अगर पराजित होती है तो हरीश रावत की पराजय होगी. लेकिन ऐसे स्लोगन के बीच कांग्रेस दूसरे पहलुओं को नजरअंदाज करती चली गई. जिस कांग्रेस में बगावती स्वर रह रह कर गूंजते रहे उसकी परवाह नहीं की गई. सामंती शैली में चलते राज्य की व्यवस्था में कांग्रेस यही मानकर चलती रही कि हरीश रावत कोई करिश्मा करेंगे और भारतीय जनता पार्टी में नए पुराने चेहरों के बीच के संघर्ष, मुख्यमंत्री बनने की होड़ के बीच लोग आखिर कांग्रेस पर ही अपना भरोसा जताएंगे. मगर इसके विपरीत एक तरह से यह मोदी के नाम पर वोट बरसे जो उत्तराखंड के न केवल पहाड़ी क्षेत्र बल्कि मैदानी तराई बावर क्षेत्र में भी यही स्थिति दिखी. तराई बाबर क्षेत्र में किसी तरह पार्टी दो सीट ले पाई. गढवाल कुमाऊ के पहाड़ी क्षेत्र या फिर मैदानी तराई बावर सारे क्षेत्रों की सियासत में भाजपा के लिए एकतरफा जीत रही. राज्य में 70 सीटों में भाजपा के पक्ष में 57 सीटें आना मतदाताओं के मिजाज को स्पष्ट बता रहा था. बसपा के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं बची और सौदेबाजी के लिए निर्दलीयों का आकंडा भी दो सीट लेकर दूर छिटक गया. मैदानी इलाकों में तो हरीश रावत पूरी तरह बेअसर रहे. जिस शैली में एक विपक्ष के नाते भाजपा चलती रही, जिस तरह लगभग मित्र विपक्ष की शैली में पांच साल तक मौन पसरा रहा, जिस तरह कई कदावर नेताओं के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने की वायद को भाजपा का ही आसन्न संकट मान कर चला गया उससे एक बारगी यह लगने भी लगा था कि भाजपा कही अपने ही बनाए चक्रव्यूह में न घिर जाए. कहना होगा अगर लडाई हरीश रावत की कांग्रेस और उत्तराखंड की भाजपा के बीच ही होता तो इलेक्टोनिक मशीन के नतीजे चौंका भी सकते थे. लेकिन जब भाजपा का प्रचार अभियान नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चला तो उत्तराखड का जनमानस उस बयार में कमल को जिताने चल पडा. नरेंद्र मोदी की आखरी समय की ताबडतोड चार बड़ी जनसभाओं ने माहौल को काफी कुछ बदल दिया. नरेंद्र मोदी ने पूरी कुशलता से चुनावी सभाओं में लोगों को भरोसे मे ले लिया कि वह पहाडों में विकास के लिए कृतसंकल्प हैं. बड़ी कुशलता से उन्होंने हर क्षेत्र के अऩुरूप अपने मुद्दों को सामने रखा. श्रीनगर की सभा में वह मुजफ्फरनर कांड की याद दिलाना नहीं भूले. ठीक चुनावी अधिसूचना से पहले पहाडों में चार धामों में बारहमासा सड़क की घोषणा और सैन्य क्षेत्र में कुछ बड़ी नियुक्तियों से अप्रत्यक्ष संदेश देने की कोशिश की गई कि केंद्र की सरकार उत्तराखंड के मामले मे संवेदनशील रवैया रखती है. इसलिए भाजपा के प्रचार तंत्र और मोदी की सभाओं में लोगों को महसूस कराया गया कि राज्य के लिए भाजपा का आना जरूरी होगा. नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार संभाओं में हरीश रावत की सरकार को भ्रष्ट साबित करने के लिए कोई कसर नहीं छोडी और बडी कुशलता से अपनी इमानदार और तेजी से काम करने वाले नेता की छवि को सामने रखा. अपनी सभाओं में पहाड़ी भाषा का पहला वाक्य कहकर मोदी ने बहुत चुन चुन कर अपने मुद्दों को रखा साथ ही लोगों के मन में यह बात बिठाई कि गैरसैण राजधानी पंरपरागत खेती खान पान आदि की बातें महज छलावे के साथ है. दलबदलुओं को संभाला एक स्तर पर भाजपा ने जान लिया था कि वह राज्य स्तर के संगठन और महज अपनी पिछली सरकारों के कामकाजों को सामने रखने की स्थिति में नहीं है. भाजपा की दुविधा कांग्रेस छोडकर आए बागी और उससे पहले या बाद में शामिल हुए कुछ दिग्गज नेताओं की मौजूदगी के साथ उठे कुछसवालों से जूझना भी था. कांग्रेस से बगावत करके भाजपा में आए विजय बहुगुणा, हरक सिंह रावत और मोहभंग की स्थिति में कमल को पकडे सतपाल महाराज और यशपाल आर्य तमाम नेता कांग्रेस की अग्रिम पंक्ति की नेताओं में रहे हैं. उनके समय में भाजपा की आलोचना के केंद्र में ये बड़े नेता आते थे. फिर अब वही दलबदल कर भाजपा में आए हैं तो उन उठाए सवालों से बचना और फिर विधानसभा सीट को लेकर भाजपा के पुराने लोगों और इन बड़े नेताओं में द्वंद की स्थिति होन स्वाभाविक था. कांग्रेस को भाजपा में कुछ ऐसी ही घमासानों की अपेक्षा थी. लेकिन कुछ जगहों पर टकराहट की स्थिति जरूर बनी लेकिन बाकी जगह बगावतियों की टिकट और भाजपा के संभावित प्रत्याशियों के बीच की खींचतान को आखिर पार्टी ने किसी तरह सुलझा ही लिया था. देखा गया कि भाजपा ने कांग्रेस के बागियों को टिकट देने से कतई संकोच नहीं किया. और भाजपा ने यही माना कि इन बागियों में चुनाव जीतने का कौशल है. भाजपा ने चुनाव जीतना ही पहली और जरूरी कसौटी माना. यमकेश्वर से सीटिंग विधायक का टिकट काटकर भुवन चंद्र खंडूडी की बेटी ऋतु खंडूडी को टिकट देना चौकाने वाला निर्णय था. लेकिन भाजपा ने यह दांव भी खेल लिया. और पार्टी के अंदर भुवन चंद खंडूडी की नाराजगी से होने वाली किसी अप्रिय स्थिति को टाल दिया. भाजपा के चुनावी अभियान में सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, विजय बहुगुणा, सुबोध उनियाल, यशपाल आर्य को किसी नायक की तरह प्रस्तुत नहीं किया गया. बल्कि रणनीति यही रही कि वे चुपचाप अपने क्षेत्र में सक्रिय रहे. भाजपा ने यह बात भूलकर भी नहीं दोहराई कि कांग्रेस से नेता किस तरह टूटे. भाजपा जान रही थी कि बागियों को नायक की तरह प्रस्तुत करने में कुछ नुकसान भी हो सकते हैं. इसलिए उनका प्रचार अभियान अपने क्षेत्रों तक सिमटा रहा. और उनकी अपनी लडाई कठिन भी थी. मोदी की अपने प्रचार अभियान में लोगों तक यह संदेश देने की कोशिश रही कि वे हरीश रावत की सरकार को भ्रष्टाचार में डूबी हुई साबित करे. इसलिए वे सीधे सीधे आक्षेप लगाते रहे. भाजपा ने इस मुद्दे को अपनी रणनीति के तहत एक अभियान के रूप में लिया. माहौल यही बनाया गया कि इस सरकार को हटाकर नई व्यवस्था में ही राज्य को प्रगति पर लाया जा सकता है. जिस पहाड़ी चेहरे की छवि के साथ और उत्तराखंडी नेता की छवि के साथ हरीश रावत भाजपा को पीछे छोडना चाहते थे, वह तानाबाना बिखर सा गया. हाल के दो वर्षों में पहाड़ी व्यंजन, पहाड के त्यौहार और लोकजीवन से नाता रखने की छवि देने की कोशिश के पीछे एक व्यक्तित्व देने की कोशिश थी, लेकिन चुनाव में हरीश रावत नायक नहीं बन पाए. उत्तराखंड के नेता की छवि देने की उनकी कोशिश तब कारगर होती अगर मजबूत संगठन उनके साथ होता. बेशक हरीश रावत कांग्रेस में सबसे बडे और प्रभावी नेता की तरह दिख रहे थे , लेकिन यह ऐसी कांग्रेस थी जो अंदर से बेहद कमजोर नजर आ रहा था. यह हरीश कांग्रेस के रूप में ऐसी किश्ती का रूप ले चुकी थी जिसमें माझी तो कुशल तैराक है पर नौका जर्जर थी. जाहिर है ऐसे में कुशल तैराक खिवेया पर लोग ज्यादा भरोसा नहीं कर पाए. वे टूट रही किश्ती को भी देख रह थे. भारतीय जनता पार्टी की राज्य इकाई अबीर गुलाल के सा उल्लास मना रही है. लेकिन सच्चाई यही है कि उत्तराखंड में वोट मोदी के नाम पर बरसें है. यह संघर्ष स्थानीय ताकतों के भरोसे ही होता तो हरीश रावत ज्यादा कुशलता से काम कर जाते. राज्य के हालातों में कभी नहीं लगा कि यह पार्टी लोगों के हित को लेकर सडकों में उतर सकती हैं. उत्तराखंड में राज्य भाजपा अध्यक्ष अपनी किसी पहचान के साथ है तो यही कि उन्हें कांग्रेस शानदार मित्र विपक्ष के तौर पर प्रचारित करते रहे. राज्य में भाजपा की तरफ से कोई आवाज नहीं उठी जिसमें कांग्रेस शासन के तौर तरीकों पर उसे घेरा गया हो. बागियों का आना और कांग्रेस में उठापटक होना एक सियासी रणनीति है. लेकिन राज्य भाजपा सड़क पर उतर कर संघर्ष करने वाली पार्टी नहीं दिखी. लेकिन राज्य के लोगों ने यही भरोसा किया कि केंद्र में बैठी मोदी की सरकार राज्य की ओर देखेगी. राज्य की दो सीटों पर पर्चा भरते समय हरीश रावत कई ऐंगल को एक साथ साधने की कोशिश करते रहे. जितनी लड़ाई पहाड़ की थी तराई बावर और मैदानी इलाकों के संघर्ष और पेने थे. जिस तरह विजय बहुगुणा सितारगंज की ओर गए थे लगभग उसी शैली में हरीश रावत हरिद्वार को देख रहे थे. हरिद्वार ग्रामीण उनके लिए बेहद आसान सीट होती लेकिन मुकाबला जब भाजपा कांग्रेस के बीच ही नहीं रहा तो स्थिति जटिल होती गई. वह कुमाऊ को भी नहीं छोड सकते थे. स्थिति यहां तक आई कि कोई भी कांग्रेसी यह कहने की स्थिति में नहीं था कि हरीश रावत के लिए ज्यादा सहज सीट कौन सी है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के साथ भी सियासी नौकझोंक और पैंतरे जिस तरह दिखे उसमें साफ झलकता रहा कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा. भाजपा के अंदरूनी संकट की कहानी तो बाहर आती रही लेकिन कांग्रेस के अंदर क्या चल रहा है उसका कम शोर मचा. लेकिन वह अंदर ही अंदर कांग्रेस को चित्त कर रहा था. ले देकर काग्रेस के उम्मीदवारों को हरीश रावत के करिश्मे का सहारा ही था. मगर इन हालात में किस तरह का करिश्मा काम करता. हरीश रावत की सरकार अपने मतदाताओं के सामने ऐसे ब्यौरे नहीं रख पाई कि उत्तराखंड को वह कहां तक ले गई. शासन लेते समय हरीश रावत जिन जुमलों को कह गए थे वह भाजपा के मंचों से बाणों की तरह चले. मैं अपनी आंखे बंद कर दूंगा तुम जो चाहे करो की बात उठने पर कांग्रेस नेता के पास कोई ठीक जवाब नहीं था. बार बार यह बात उठती थी कि हरीश रावत जैसे नेता तो उत्तराखंड को बदलना चाहते थे पर उनके ही नए नए मंत्री संगठन के लोग जकडे हुए हैं. कुछ मंत्रियों नेताओं का सामंतों की तरह व्यवहार करना राज्य में किसी परिवर्तन की चाह को जगा गया. कैलाश खैर के खाते में करोड रुपए जाना, संगीत कला के नाम पर कोष बहाना, केवल केदारनाथ मंदिर को परिसर ठीक कराकर आपदा पुर्नवास का काम को सीमित करके देखना, कई छोटी बड़ी मीडिया पर राज्य की संपत्ति लुटाना, राज्य के हित में किसी बड़ी योजना को सामने न ला पाना, केवल कोदा काफली झगोरा की लुभावनी बातें करना, तमाम ऐसे पहलू हैं जिसने लोगों को हताश किया. खनन माफिया, जमीन के सौदेबाजों के लिए जिस तरह उत्तराखंड मुक्त आकाश था उसने यहां के जनमानस को हैरान किया. बेशक यह सब सोलह वर्षों से अलग नहीं है. लेकिन लोग गहरी निराशा में यकीन कर रहे हैं कि शायद दिल्ली से अब नए मुखिया को कुछ बेहतर सलाह मिले. पर्यटन, बागवानी, योगचिकित्सा, आर्युवेद जडी बूटी जल ससाधन शिक्षा ऐसे पहलू है जिनसे राज्य को उन्नत बनाया जा सकता है. मुख्यमंत्री हरीश रावत उत्तराखंड की जनता से संवाद नहीं कर पाए कि आखिर वह वोट किस लिए मांग रहे हैं. किसी बड़े विजन के साथ वह नहीं दिखे. जबकि उनके अनुभव और लंबी राजनीतिक यात्रा यह अपेक्षा करती थी. देखा भी गया कि प्रचार अभियान में जहा भाजपा शुरू से बढे मनोबल के साथ थी वहीं कांग्रेसी खेमा चुनावी प्रचार की औपचारिकता ही निभा रही थी. उत्तराखंड में कांग्रेस कमजोर हुई है. सियासी वर्चस्व में जो हालात हरीश रावत और उनके साथी विजय बहुगुणा की सत्ता में पैदा करते रहे, उसी तरह के दांवपैंच उन्हें अपनी सत्ता में देखने को मिले. बेशक वह कह सकते हैं कि उन्हें कांग्रेसियों ने बीच मझधार में छोडा, बेशक उनके प्रवक्ता चिल्ला कर कहें कि जो नकली थे वो चले गए असली कांग्रेस वही है जो सामने हैं, लेकिन कांग्रेस को इस हाल में लाने में हरीश रावत का भी उतना ही हाथ है. कांग्रेस की राज्य शाखा को अपनी निजी पार्टी के रूप में चलाने की उनकी मंशा में वह भूल गए कि सपा बसपा के विपरीत कांग्रेस एक अलग तरह की पार्टी है. वह केंद्र हाइकमान के स्तर पर भले ही एक परिवार से निर्देशित होती हो लेकिन किसी क्षत्रप को इतनी आजादी नहीं मिलती है. आंध्र में भी कोई ऐसी भूल करने लगा था. संभव है कि पार्टी के उच्च नतृत्व ने हरीश रावत के स्तर पर ही हानि लाभ देखने की इच्छा संजोई हो. हरीश रावत के हाथों सत्ता आने पर लोग यकीन कर रहे थे कि एक अनुभवी पुराना राजनेता प्रदेश को कोई नई राह देगा, अब लोग चर्चा कर रहे है कि शायद कोई नया चेहरा आ सकता है जो प्रदेश को आगे ले जा सके. अनुभवी हाथों से राज्य के लोग बार बार धोखा खाते गए हैं. देखना है कि भाजपा अब अपने कद्दावरों को किस तरह साधती है. सब कुछ आसान यहां भी नहीं. नेतृत्व की होड़ जमकर दिख रही है. नेतृत्व को लेकर पल पल कयास लग रहे हैं. एक नहीं कई नाम उछले हैं. भाजपा के चुनाव जीतते ही इसकी संभावना प्रबल थी. लेकिन सियासत में कोई भी नाम चले यह अबूझ पहेली नहीं कि पर्ची तो अमित शाह की जेब में ही होनी थी.
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