प्याज़ के दाम को लेकर देशभर में हाहाकार है. इसे शतक-वीर कहा जा रहा है क्योंकि इसका दाम 100 रुपये प्रति किलोग्राम को पार कर चुका है. सरकार कहती है कि मौसम की मार की वजह से प्याज़ का उत्पादन क़रीब 28-29 फ़ीसदी गिरा है. लेकिन कोई ये बताने वाला नहीं है कि 30 प्रतिशत पैदावार घटने से दाम सामान्य के मुक़ाबले चार से पांच गुना यानी 400 से 500 फ़ीसदी तक क्यों बढ़ गये? क्या उत्पादन में आयी गिरावट को देखते हुए जनता ने ज़्यादा प्याज़ खाना शुरू कर दिया, वो भी इतना ज़्यादा कि दाम बढ़ने के बावजूद ख़पत भी बेतहाशा बढ़ने लगे? वर्ना, दाम बढ़ने पर तो ख़पत घटनी चाहिए. वो बढ़ कैसे सकती है?
प्याज़ के दाम में ऐसी आग भी तब लगती है जब अर्थव्यवस्था की विकास दर के औधें मुंह गिरने का सिलसिला सालों-साल से जारी है. विकास दर गिरने का मतलब है -- देश के सकल घरेलू उत्पादन में गिरावट. इसका स्वाभाविक असर होता है -- जनता की औसत आमदनी में कमी. यानी, आम आदमी की आमदनी घट रही है, बेरोज़गारी बढ़ती ही जा रही है, तो फिर वो लोग कौन और कितने हैं जो आसमान छूती क़ीमतों के बावजूद प्याज़ पर टूटे पड़े हैं? प्याज़ को लेकर सीधा और छोटा सा सवाल सिर्फ़ इतना ही है. लेकिन सही जबाब नदारद है.
सरकार कभी अफ़ग़ानिस्तान से तो कभी मिस्र से प्याज़ के आयात का भारी-भरकम आंकड़ा देकर कहती है कि 'देश में तो सब ठीक है’. सारा क़सूर विश्व बाज़ार की तेज़ी का है. ज़रूर होगा. सरकार भला क्यों झूठ बोलेगी? वो तो अब बस इतना बता दे कि क्या भारतीय जनता उस दौर में भी बेहद महंगे प्याज़ की बेतहाशा ख़पत कर रही है, जब उसका दाम आसमान छू रहा हो? बेशक़, प्याज़ का दाम न तो कोई राष्ट्रीय समस्या है और ना ही कोई प्राकृतिक आपदा. हरेक दो-तीन साल पर प्याज़ ऐसे ही और लाल हो उठता रहा है. पिछली सरकारों ने भी प्याज़ पर कोई कम आंसू तो बहाये नहीं. लिहाज़ा, सवाल फिर वही है कि यदि प्याज़ की राष्ट्रीय किल्लत है तो आंसुओं की सकल मात्रा घटने के बजाय बढ़ क्यों रही है?
अरे! जब प्याज़ ही कम होगा तो इसे छीला-काटा भी कम ही जाएगा. कम प्याज़ कटेंगे तो इसके काटने पर बहने वाले आंसुओं की मात्रा भी तो घटनी चाहिए या नहीं? बहरहाल, प्याज़ की किल्लत जितनी भी सच्ची या झूठी हो, लेकिन इसे लेकर होने वाली बातों में कहीं कोई कंजूसी नहीं है. हर कोई प्याज़-मर्मज्ञ बना फिरता है. आपने ज़रा सा ज़िक्र छेड़ा नहीं कि सामने वाला फ़ौरन शुरू हो जाएगा. देखते ही देखते अपनी बातों से आपको छलनी कर देगा. इसकी वजह बहुत सीधी है. लोकतंत्र में जनता अपनी सरकार के दिखाये रास्ते पर चलती है. सरकार भी ज़मीन पर कुछ करे या ना करे, बातें करने में कभी कंजूसी नहीं करती. दरअसल, ये दौर ही बातों का है. बातें करना ही असली काम है. कमर्ठता की निशानी है.
ये लेख भी तो बातें ही कर रहा है. इससे न तो प्याज़ का उत्पादन होगा और ना आयात. दाम भी कम होने से रहा. सरकार भी जागने से रही. फिर भी बातें करने का धर्म तो निभाना ही होगा. कोई अपना धर्म कैसे छोड़ सकता है भला? कुत्ते का धर्म है भौंकना, सांप का धर्म है डसना, मच्छर का धर्म है ख़ून चूसना. ऐसे ही क़ुदरत ने हर चीज़ का एक धर्म तय कर रखा है. सभी अपने-अपने धर्म का पालन करना होता है. इसीलिए जितनी बातें प्याज़ की कमी की होती है, उतनी ही इसके आयात की भी होती है. कमोबेश वैसे ही जैसे 2016-17 में दालों के आयात की अनन्त बातें हुआ करती थीं.
ज़रा उस दौर को याद करें. क्या तब सरकार ने आयात की धमकी देकर या वास्तव में दालों के आयात करके इसकी किल्लत को दूर करने और दाम को काबू में लाने की कोशिश नहीं की थी? बेशक़ की थी. सरकार कार्रवाई नहीं करती तो क्या दालें 500 रुपये प्रति किलोग्राम के दाम से नहीं बिकती? तब भी तो खाद्य आपूर्ति मंत्री की ओर से जनता को मीठी गोली दी जाती थी कि 'दालों का ऐसा आयात किया जा रहा है, मानों सारे पुराने रिकॉर्ड ध्वस्त होकर ही मानेंगे.’ बातें ख़ूब हुईं इसीलिए दाल के दाम तभी नरम पड़े जब किसानों ने बम्पर पैदाकर करके दिखाया. हालांकि, ज़्यादा दलहन उत्पादन के बावजूद अभागे किसानों की दुर्दशा बनी ही रही, क्योंकि उनके मुनाफ़े को बिचौलियों, आढ़तियों और सूदख़ोरों की मिलीभगत ने हड़प लिया.
कालाबाज़ारियों और मिलावटख़ोरों की तब भी पौ-बारह थी और आज भी है. इनके लिए कमी दालें बहार का सबब बनती हैं तो कभी आलू-प्याज़ और टमाटर जैसी चीज़ों के दाम. केन्द्र की हो या राज्यों की, इस पार्टी की हो या उस पार्टी की, कोई भी कालाबाज़ारियों का बाल तक बांका नहीं कर पाता. आयात करने वाली सरकारी कम्पनियों को तभी नींद से जगाया जाता है, जब चिड़ियां खेतों को चुग कर फ़ुर्र हो चुकी होती हैं. सौ दिन चले अढ़ाई कोस के संस्कारों में ढली सरकारी कम्पनियां क़ीमतों को नीचे लाने के लिए यदि एक लाख टन सामान की ज़रूरत होगी तो हज़ार टन का आयात करते-करते हांफ़ने लगती हैं.
अब ज़रा ये समझिए कि ऐसी तमाम बातें कितनी बनावटी होती हैं?
सरकार के पास एक से बढ़कर एक एक्सपर्ट यानी विशेषज्ञ होते हैं, जो वक़्त रहते आगाह करते हैं कि अति-वृष्टि यानी अत्यधिक बारिश की वजह से किसानों की किन-किन फ़सल को कैसा-कैसा नुकसान होने वाला है. इसी बुरी ख़बर से कालाबाज़ारियों में ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है. ज़माख़ोर तैयार होकर शिकार पर निकल पड़ते हैं. सरकारी बाबुओं को भी रिश्वतख़ोरी और मक्कारी की ख़ुराक़ मिल जाती है. छापेबाज़ी का ढोंग किया जाता है. तरह-तरह की झूठी ख़बरें 'प्लांट’ होती हैं. इससे जनता को बहकाया और बरगलाया जाता है.
वर्ना, ज़रा सोचिए कि यदि हम भारत में 80 प्रतिशत ईंधन की आपूर्ति आयातित कच्चे तेल से हमेशा कर सकते हैं कि तो वक़्त रहते प्याज़ का आयात करके क़ीमतों पर नकेल क्यों नहीं कस पाते? क्या सिर्फ़ इसलिए कि कच्चे तेल का आयात हमारी बड़ी प्राथमिकता है, क्योंकि यही केन्द्र और राज्य सरकारों की आमदनी यानी टैक्स-संग्रह का सबसे बड़ा ज़रिया है. दूसरे शब्दों में कहें तो कच्चे तेल के आयात में यदि कोताही होगी तो ये सरकार को बहुत ज़्यादा भारी पड़ेगा. उसके कर्मचारियों को तनख़्वाह के लाले पड़ने लगेंगे. सरकारी ठाठ-बाट और शान-ओ-शौक़त पर आंच आएगी. दूसरी ओर प्याज़-टमाटर, खाद्य तेल और दालों की क़ीमतों के चढ़ने-उतरने से सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. उल्टा उसके चहेते ज़माख़ोरों में हर्ष और उल्लास की लहर दौड़ने लगेगी. तभी तो 'अच्छे दिन’ का मज़ा मिलेगा.
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)