यूं तो हम उस रोज सुबह हबीबगंज स्टेशन पहुंचे थे. पनवेल से रेलगाड़ी आने वाली थी जिसमें मध्यप्रदेश के प्रवासी श्रमिकों को वापस लाया जा रहा था. प्रवासी श्रमिक इन दिनों बड़ी खबर हैं जिसमें दुख दर्द और पीड़ा सब है. मगर सुबह पांच बजे आने वाली रेल दस बजे तक नहीं आयी थी और ये हमारे लिए हैरानी की बात थी. जब देश में ट्रेन ही नहीं चल रही तो उस दौरान चलने वाली इक्का दुक्का ट्रेन भी क्यों कई घंटे देरी से चल रहीं थी यह सवाल था.


खैर हमने यह कह कर खुद को समझाया कि भारतीय ट्रेन का मतलब ही देरी से चलने वाली रेलगाडियां हैं. श्रमिक स्पेशल ट्रेन अब बारह बजे आने वाली थी. ऐसे में चूंकि दफ्तर बंद है तो दो घंटे क्या किया जाए.. हम निकल पड़े भोपाल के बाहर होशंगाबाद की ओर जहां एक तरफ होशंगाबाद से आने वाला राजमार्ग था जो भोपाल के बाहर से होते हुए विदिशा इंदौर और ग्वालियर तरफ निकलता था. दरअसल पूरे देश में प्रवासी श्रमिक अब सड़कों पर हैं. जेट और बुलेट ट्रेन के जमाने में वो सैकड़ों किलोमीटर पैदल सफर कर रहे हैं. असंभव सी दूरियां वो अपने हौसले से तय करने निकल पड़े हैं. हमने आजादी के बाद का बंटवारा तो नहीं देखा मगर मजदूरों के विस्थापन के दृश्य देखकर कलेजा मुंह को आता है. ये गरीब, मजदूर, श्रमिक हर सरकार के भाषणों में सबसे उपर होते हैं. मगर सच्चाई में ये सरकारों से कितने दूर हैं ये इन दिनों पता चल रहा है.


कोरोना से पूरा देश मिल जुलकर लड़ रहा है और आगे भी लड़ेगा मगर क्या बेहतर नहीं होता कि लॉकडाउन एक लॉकडाउन दो और लाकडाउन तीन का सरप्राइज देने से पहले सरकार इन मजदूरों के रोजगार खाना पीना और उनके घर जाने के बारे में भी सोचती. सड़कों पर उतरे ये मजदूर खुशी खुशी घर नहीं जा रहे. ना ही इनको अपने घर से बुलावा आया है कि आजा उमर बड़ी है छोटी, अपने घर में भी है रोटी. मजदूरों के फोटो देखकर ही उस पर कमेंट करने वाले हमेशा यही कहेंगे कि ये गरीब क्यों शहरों से निकल पडे हैं. ये गांव क्यों जा रहे हैं. यहां इनको किसने भगाया.. अरे इनको इतना भी नहीं मालूम कि रेल की पटरी पर सोया नही जाता.


मगर ये घरों से क्यों निकले ये हमें सरयू यादव ने बताया. सरयू करीब पैंसठ साल की आयु वाले बुजुर्ग हैं जो पांच अन्य साथियों के साथ मुंबई के बोरीवली से इलाहाबाद जाने के लिए 29 तारीख को निकले और पिछले आठ दिनों से चलते हुए भोपाल के ग्यारह मील वाले बाइपास पर पहुंते थे. अभी इनका साढ़े सात सौ किलोमीटर का सफर हुआ है. तकरीबन इतना ही इनको और चलना पड़ेगा. पैरों में प्लास्टिक चप्पल, तहमत जैसी लपेटी हुयी सफेद धोती, उपर बिना बांहों वाला कुर्ता, कंधे पर लटका हुआ एक बड़ा सा झोला, एक हाथ में कुछ दूर पहले मिला हुआ कुछ खाने का सामान तो दूसरे हाथ में प्लास्टिक की पुरानी बोतल से पानी को ठंडा रखने की नाकाम कोशिश, सिर पर बाल तकरीबन उड़ ही गये हैं तो चेहरा धूप में चलने के कारण झुलसा हुआ सा और इन दिनों सबसे जरूरी चेहरे पर आधा लगा आधा गिरता हुआ ढीला सा मैला मास्क जिसके एक ओर कान पर बुझी हुई बिडी फंसी थी.


तकरीबन यही हाल इनके साथ चल रहे पांच दूसरे साथियों का भी था. हां ये जरूर है कि इनमें से दो लोगों के पैरों में छाले पड़ कर फूट चुके थे और उन पर पटिटयां बांधकर घाव को ढके रखने की कोशिश हो रही थी. दादा क्यों चल पड़े इतनी दूर? इस धूप में क्या भूख प्यास नहीं लग रही? वहीं मुंबई में रूके रहते तो क्या बिगड़ जाता? मेरे मुंह से ये बचकाने से सवाल होते ही सरजू दादा चलते चलते रूके मेरी आंखों में झांका और बोले हां भैया रूकना तो हम भी वहीं चाहते थे. पिछले आठ सालों से तो वहां रूके ही थे. खोली में रहते थे. हम सब एक साथ, बुनकर हैं हर सात दिन में पगार मिलती थी, जिसमें से कुछ खर्च करते, कुछ घर भेजते थे. मगर जब पहले हफ्ते काम बंद हुआ तो हमारे मालिक ने हमें पगार दी. फिर दूसरे हफ्ते भी बंद रहा तो पगार नहीं दी, राशन पानी दिया. फिर तीसरे और चौथे हफ्ते भी काम नहीं खुला तो वो भी क्या करे. हमसे खोली खाली करवा कर कह दिया दूसरा ठिकाना तलाशो. अब बताओ भैया हमें रोजगार और खाना पीना रूकना मिलता तो हम क्यों इन तेज धूप भरी सड़कों पर पागलों के तरह अपने गांव की ओर चलते.


उन्होंने आगे कहा कि सुबह चार बजे से चलना शुरू करते हैं तो बारह एक बजे तक चलते हैं. फिर दो तीन घंटे कहीं छांह देखकर रूकते हैं. जो रास्ते में मिलता है खाते हैं. नहीं मिलता है तो पानी पी पीकर भूख प्यास दोनों मिटाते हैं और रात में जहां सड़क किनारे थोड़ी साफ सुथरी जगह मिल जाती है कुछ घंटे सो जाते हैं. कभी कोई ट्रक वाला बैठा लेता है तो कभी कोई गाड़ी वाला, इस तरह सफर चल रहा है. हम सबके पास ये छोटा सा मोबाइल है जिससे कभी कभार घर परिवार से बात हो जाती थी, मगर चार्ज नहीं हुआ तो बंद पड़ा है. यही कहानी हम सबकी है. निकल पड़े हैं तो पहुंच ही जाएंगे मगर इस उमर में यूं निकलना हमें भी अच्छा नहीं लग रहा और उस पर भी आप पूछते हो क्यों निकले. इस सवाल का जबाव पुलिस को देते देते थक गए और अब तुम भी पूछ रहे हो. क्या हम अपने घर भी पूछ-पूछ कर जाएंगे. ये कहते कहते सरजू भाई की आंखों में आंसू आ गए और वो सुबक सुबक कर रोने लगे. सरजू भाई के साथ के लोगों ने उनको संभाला और बिना मेरी तरफ देखे वो फिर चल पड़े इलाहाबाद की ओर जो यहां भोपाल से सात सौ किलोमीटर दूर है.