बीजेपी-शिवसेना ने इस बार महाराष्ट्र में चुनाव-पूर्व गठबंधन करके पिछली बार के मुकाबले खराब प्रदर्शन के बावजूद 288 सीटों वाली विधानसभा में कुल मिलाकर बहुमत के आंकड़े 145 से कहीं ज्यादा 161 विधायक जितवाए हैं, फिर भी सरकार है कि नतीजे घोषित होने के 14 दिन बीत जाने ने के बाद भी नहीं बन सकी है. हालत यह है कि राजधानी मुंबई से लेकर दिल्ली तक पल-पल राजनीतिक घटनाक्रम बदल रहा है.
बीजेपी और शिवसेना के बीच शह-मात और चूहा-बिल्ली के खेल वाला दृश्य नया नहीं है. हमें इसे देखने की आदत तभी से है, जब से शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का निधन हुआ है और बीजेपी, शिवसेना की तुलना में बहुत अधिक सीटें जीतने लगी है. बीजेपी-शिवसेना का सर्वप्रथम चुनाव पूर्व गठबंधन हिंदुत्व के साझा मुद्दे पर 1989 के लोकसभा चुनावों के लिए हुआ था, जिसके शिल्पकार बाल ठाकरे और दिल्ली के भाजपाई दूत प्रमोद महाजन थे. बड़े से बड़े आपसी विवाद ठाकरे और महाजन बैठकर आपस में सुलझा लिया करते थे. लेकिन आज ये दोनों इस दुनिया में नहीं हैं. नतीजा यह है कि बीजेपी और शिवसेना गठबंधन के भीतर और बाहर रह कर महाराष्ट्र की सत्ता में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा भोगने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें ताने रहती हैं.
इस बार तो हद ही हो गई! शिवसेना को अपने विधायकों के बीजेपी के हाथों बिकने और तोड़-फोड़ से सुरक्षित रखने के लिए उन्हें मुंबई के बांद्रा पश्चिम स्थित तीन सितारा रंग शारदा होटल में कैद करना पड़ गया है. पहले जिस भय से कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल डरते थे, उस बला के ‘थैलीशाह’ सहयोगी दल से शिवसेना थर-थर कांप रही है. उसे अपने विधायकों को फोन बंद रखने तक के निर्देश देने पड़े!
जब केंद्र और राज्य के स्तर पर पहले पहल यह गठबंधन हुआ था तब शिवसेना और बाल ठाकरे ने कल्पना भी नहीं की होगी कि बीजेपी न सिर्फ राज्य में उनसे दोगुनी सीटें जीतने लगेगी बल्कि बीएमसी में भी चुनौती देने लायक बड़ी ताकत बन जाएगी. 1989 में बीजेपी का महाराष्ट्र में लगभग वैसा ही जनाधार था जैसा कि आज तमिलनाडु या केरल में है. बीजेपी की रणनीति यह रही होगी कि वह इस मजबूत क्षेत्रीय सहयोगी की पीठ पर बैठ कर महाराष्ट्र से अपने कुछ सांसद जिता लेगी, जो केंद्र की राजनीति के हिसाब से उस वक्त बेहद अहम कारक था. मराठी मानुस वाला आंदोलन ठंडा पड़ने के बाद बाल ठाकरे ने भी सोचा होगा कि बीजेपी के हिंदुत्व से जुड़े राष्ट्रीय मुद्दों को सीढ़ी बनाते हुए वह कांग्रेस के गढ़ महाराष्ट्र में सेंध लगाकर राज्य की सत्ता पर कब्जा करने का सपना साकार कर लेंगे.
गठबंधन की शुरुआत में बाल ठाकरे का दबदबा ऐसा था कि 1990 में हुए विधानसभा चुनावों में शिवसेना 183 सीटों पर लड़ी और बीजेपी को मात्र 104 सीटें ही दी गई थीं. यह बात और है कि शिवसेना और बीजेपी इनमें से क्रमशः 52 और 42 सीटें ही जीत सकीं. जाहिर है बीजेपी की सफलता का अनुपात शिवसेना से काफी ज्यादा था. 1995 में शिवसेना ने 73 और बीजेपी ने 65 सीटें जीतीं. अधिक विधायक वाले फार्मूले के अनुसार पहली बार मुख्यमंत्री तो शिवसेना का ही बना लेकिन संख्या बल के मामले में बीजेपी और शिवसेना की ताकत लगभग बराबर हो चली थी.
यह फार्मूले का दबाव ही था कि 1999 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन के बावजूद बीजेपी शिवसेना के कम से कम विधायक जीतते देखना चाहती थी और चुनावी समर में यही मंशा शिवसेना की भी दिखाई दी. नतीजा यह हुआ कि दोनों को मिलाकर (शिवसेना 69+ बीजेपी 56) भी बहुमत का आंकड़ा हिमालय बन गया और 23 दिन तक मुख्यमंत्री पद को लेकर इनकी आपसी खींचातान चलती रही. दोनों की लड़ाई का एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने लाभ उठाया और कांग्रेस के विलासराव देशमुख को सीएम बना कर सरकार चलाने लगे. विपक्ष में बैठ कर शिवसेना बीजेपी को ‘कमलाबाई’ कह कर ताने कसती रही.
लेकिन इसे मजबूरी कहिए या मजबूती, हिंदुत्व का गोंद इतना गाढ़ा था कि सालों तक एक-दूसरे की टांगखिंचाई करने के बावजूद दोनों गठबंधन करके चुनाव लड़ते रहे. साल 2004 में केंद्र और राज्य की सत्ता से बाहर होने के बाद दोनों दलों के मतभेद फिर से बढ़ने लगे थे. हर बार झगड़ा इस जिद को लेकर होता था कि शिवसेना को सीट भाजपा से ज्यादा चाहिए और कोई भी पार्टी ज्यादा सीटें जीते लेकिन हर हाल में मुख्यमंत्री शिवसेना का ही होगा. लेकिन साल 2009 में पहली बार ऐसा भी हो गया कि बीजेपी ने शिवसेना से अधिक सीटें जीतकर दिखा दीं और 2014 में यह भी देखा गया कि मोदी लहर में सीट बंटवारे को लेकर बीजेपी ने अड़ैयल रवैया अपना लिया और गठबंधन टूट गया. अलग लड़ कर बीजेपी ने शिवसेना ने लगभग दुगुनी सीटें जीत लीं.
बीजेपी ने राज्य में सरकार भी बना ली लेकिन समर्थन देने के मामले में शिवसेना झुकने को तैयार नहीं थी. सरकार को टिकाऊ बनाने के लिए बीजेपी की तरफ से मान-मनौव्वल और सौदेबाजियों का दौर चलता रहा. आखिरकार शिवसेना कांग्रेस-एनसीपी को सत्ता से बाहर रखने और बीजेपी की स्वाभाविक सहयोगी होने की आड़ में मामूली मंत्री पद लेकर सरकार में शामिल हो गई. लेकिन महाराष्ट्र में बीजेपी के बहुत बड़े से बहुत छोटा भाई बन जाने का दर्द इतना तीखा था कि पूरे पांच सालों तक वह विपक्ष से भी ज्यादा तीखे तेवर अपनाए रही. सरकारी नीतियों को लेकर दोनों दल अक्सर उलझ पड़ते थे. मराठी मानुस की निगाहों में बहादुर और हितैषी बने रहने के लिए भगवा दल का मुखपत्र ‘सामना’ अपनी ही सरकार के खिलाफ हर मुद्दे पर आग उगलता रहा और प्रधानमंत्री मोदी पर निजी हमले करने से शिवसेना एक बार भी नहीं चूकी.
देश भर के उप-चुनावों और हिंदी पट्टी के तीन प्रमुख राज्यों में बीजेपी की करारी हार तथा महाराष्ट्र में मराठा क्षत्रप शरद पवार की अति सक्रियता के मद्देनजर 2019 में एक बार फिर दोनों को चुनाव-पूर्व गठबंधन करना पड़ा. महाराष्ट्र में बीजेपी की मौजूदा ताकत और अलग-अलग लड़ने का नुकसान भांपकर शिवसेना ने कम सीटों पर लड़ने का कड़वा घूंट भी पी लिया. लेकिन नतीजों के बाद बीजेपी का गिरा हुआ ग्राफ देख कर शिवसेना की अकड़ लौट आई है. वह सीएम पद और राजकाज में 50:50 वाले फार्मूले से टस से मस नहीं हो रही है.
शिवसेना समझ चुकी है कि अगर यह मौका हाथ से गया तो सालों की मेहनत से बनाया गया उसका वोट बैंक छीन कर जो बीजेपी आज मराठी आसमान पर चमक रही है, आगे साम-दाम-दंड-भेद की चाणक्य नीति से उसकी कमर ही तोड़ देगी. तो क्या अस्तित्व बचाने का संघर्ष कर रही शिवसेना महाराष्ट्र में ऐसा कुछ करेगी जो उसने आज तक नहीं किया था! उद्धव ठाकरे के सामने दृश्य, फार्मूले, विकल्प, कयास और समीकरण तो असीमित हैं, लेकिन कुछ अनोखा कर गुजरने के लिए उनके पास पिछली विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने (9 नवंबर, 2019) तक का समय ही सीमित है.
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)