चुनावी नतीजों के बाद एनालिसिस की बारिश है. एक डेटा का कहना है कि ओडिशा ने अपनी तरफ से महिलाओं को लोकसभा में रिजरवेशन दिला ही दिया है. यहां से जीतने वाले 21 सांसदों में से सात महिलाएं हैं. मतलब वहां 33% महिलाएं चुनाव जीती हैं. इन सात महिलाओं में पांच तो बीजू जनता दल की हैं और दो बीजेपी की. वैसे नवीन पटनायक ने चुनाव से पहले 33% महिलाओं को लोकसभा टिकट बांटे थे. इसका फायदा भी यह हुआ कि ओडिशा में औरतों को बड़ी संख्या में जीतने का मौका मिला.
शुरुआत ऐसे ही की जानी चाहिए. वैसे नई लोकसभा में महिलाएं पहले से अधिक संख्या में पहुंची हैं. कुल 716 महिलाओं ने चुनाव लड़ा था. इनमें से 78 जीती हैं. इस हिसाब से लोकसभा में महिलाओं का प्रतिशत 14 के करीब बैठता है. पुरुषों के मुकाबले बहुत कम जरूर है लेकिन पिछली लोकसभाओं की तुलना में प्रदर्शन बेहतर हो रहा है. पहली लोकसभा में महिला सांसद 5% थीं, पिछली लोकसभा में इनकी संख्या 62 थी. इसलिए मानकर चलिए कि हम कच्छप गति से आगे बढ़ रहे हैं- हां, बढ़ तो रहे हैं. कभी न कभी रवांडा और दक्षिण अफ्रीका, यहां तक कि बांग्लादेश से मुकाबला कर लेंगे. चूंकि रवांडा और दक्षिण अफ्रीका की संसदों में क्रमशः 61% और 43% महिलाएं हैं. बांग्लादेश की संसद में भी महिलाओं का प्रतिशत 21 है.
आंकड़े खुश करते हैं. कुछ लिहाज से नतीजे भी- औरतों को सफलता मिली है और कुछ को अनापेक्षित असफलता भी. बीजेपी की सबसे अधिक महिला नेता संसद में पहुंचीं- जाहिर सी बात है, बहुमत भी उसी के पक्ष में है. उसकी 34 महिला सांसद अब लोकसभा की शोभा बढ़ाएंगी. हालांकि उसने सिर्फ 53 महिलाओं को भी चुनावों में उम्मीदवार बनाया था. इनमें सबसे बड़ी सफलता हासिल की, स्मृति ईरानी ने. अमेठी में राहुल गांधी से टक्कर में वह जीतीं और राहुल 52,000 वोटों से हार गए. स्मृति ने झटपट ट्वीट भी किया- कौन कहता है आसमान में छेद नहीं हो सकता. बेशक, उन्होंने तबीयत से पत्थर उछाला और एक बड़ा फलक चकनाचूर हो गया. दूसरी तरफ हेमा मालिनी को मोदी लहर का फायदा हुआ. राष्ट्रीय लोकदल के कुंवर नरेंद्र सिंह का जाट कार्ड फेल हो गया और मथुरा से हेमा मालिनी ठीक-ठाक मार्जिन से जीत गईं. ऐसा ही सुल्तानपुर में हुआ, जहां मेनका गांधी ने दिग्गजों को हराया. चंडीगढ़ से किरण खेर और नई दिल्ली से मीनाक्षी लेखी ने अपनी-अपनी सीटें बचा लीं. इस लिहाज से बीजेपी की 16 महिला सांसदों ने दोबारा अपनी सीट जीती. लेकिन कांग्रेस की सिर्फ सोनिया गांधी अपनी सीट बचा पाईं. एनसीपी की सुप्रिया सुले ने भी बीजेपी की कंचन राहुल कूल को हराकर महाराष्ट्र के बारामती से अपनी सीट बचा ली. इस सीट से यह उनकी तीसरी जीत है.
तृणमूल कांग्रेस की स्टार कैंडिडेट्स जीत गईं. नुसरत जहां, मिमी चक्रवर्ती, शताब्दी रॉय... सबकी सब. बस बेड टी के फेर में मुनमुन सेन की नींद उड़ गई. बीजेपी की लॉकेट चैटर्जी भी हुगली से चमक उठीं. पंजाब की बहुओं ने भी रंग दिखाया. हरसिमरत कौर बादल ने बठिंडा और प्रनीत कौर ने पटियाला से जीत हासिल की. सबसे अधिक चर्चा में रही- प्रज्ञा ठाकुर की जीत जिन्होंने कांग्रेस के बड़े नेता दिग्विजय सिंह को भोपाल से धूल चटाई, वह भी तीन लाख वोटों से जीतकर. लेकिन महिलाओं को चुनने में दक्षिण भारतीय राज्य बुरी तरह पिछड़ गए. सबरीमाला विवाद को लेकर उबलने वाले राज्य केरल से सिर्फ एक महिला जीती रेम्या हरिदास. तमिलनाडु से तीन महिलाएं जीतीं, कर्नाटक से दो, आंध्र प्रदेश से चार और तेलंगाना से एक.
एक तरफ जीत की मिठास, दूसरी तरफ कसैली हार. इसका स्वाद चखने वालों में केसीआर की बेटी के. कविता, पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, आप की आतिशी मारलेना, पूर्व अभिनेत्री जया प्रदा और उर्मिला मातोंडकर, कांग्रेस की प्रिया दत्त, शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव शामिल हैं. चुनावों में 222 स्वतंत्र महिला उम्मीदवार भी जनता को रास नहीं आए, न ही चार ट्रांसजेंडर उम्मीदवार. आप ऐसी अकेली पार्टी थी, जिसने एक ट्रांसजेंडर भवानी नाथ सिंह वाल्मीकि को प्रयागराज से टिकट दिया था. लेकिन किसी की बात नहीं बनी.
इसमें कोई शक नहीं कि महिलाओं की संख्या लोकसभा में बढ़ी है. लेकिन फिर भी रास्ता अभी लंबा है. यूं भी प्रगतिशील राजनीति स्त्री समर्थक होने की गारंटी कतई नहीं है. किसी स्त्री की पेशेवर या व्यक्तिगत जिंदगी की धज्जियां उड़ाने वाले संसद में पहुंच रहे हैं और स्त्रियों को लगातार उनसे लोहा लेना पड़ता है. उन्हें लगातार यह बताया जाता है कि वे अगंभीर किस्म की राजनीति का प्रतीक हैं. कि, उनके होने से पार्टियों को सिर्फ ग्लैमर की चादर तानने का मौका मिलता है. कि, उनका व्यक्तित्व सिर्फ मतदाताओं को बरगलाने के काम आता है. इस दुराग्रह और विद्वेष पूर्ण नजरिये के कारण अक्सर उनकी छवि जनता के बीच बदनाम भी होती है. दिलचस्प बात यह है कि महिला शीर्ष नेताओं वाली पार्टियां भी पुरुषवादी रवैये के खिलाफ कुछ नहीं करतीं. ममता बनर्जी, जयललिता, मायावती यहां तक कि सोनिया गांधी जैसी महिलाओं के नेतृत्व वाली पार्टियों ने भी, महिला उम्मीदवारों को कमजोर रूप में देखने, पुरुषवादी व्यवहार के खिलाफ या स्थानीय क्षत्रपों की दादागीरी के खिलाफ जाने की कोशिश नहीं की. एक कारण यह भी है कि जमीनी स्तर पर, यहां तक कि महिला नेता भी अपनी पार्टियों को चलाने के लिए पुरुष प्रतिनिधियों पर बहुत निर्भर करती हैं. इससे पुरुष उम्मीदवारों की पसंद में दबदबा रहता है. उन्हें अपने हिसाब से राजनीति चमकाने की छूट मिलती है. इसी प्रक्रिया में औरतें किनारे लगा दी जाती हैं.
अभी मौका है, सत्ताधारी दल के लिए बहुमत के साथ लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक पारित करवाने का. यह ऐतिहासिक कदम महिलाओं के प्रति खुलमखुल्ला या छुपे हुए दोनों ही तरह के हिंसक रवैए के लिए तूफान साबित होगा. जरूरत है तो सिर्फ एक ठोस पहल की. तभी महिलाएं नेतृत्व की ऊपरी पांत में पहुंचेंगी. अनारकली होना, या पति से अलग होना, किसी महिला की अपनी व्यक्तिगत पसंद का विषय हो सकता है- यह उसके राजनीतिक जीवन से कोई ताल्लुक नहीं रखता. ठीक वैसे ही जैसे किसी पुरुष का अपनी पत्नी से अलग होने का फैसला. स्त्रियों और पुरुषों के बीच इस भेदभाव को जरूर दूर कीजिए. व्यक्ति के रूप में भी, और राजनेता के रूप में भी.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)