बैंकॉक में संपन्न 14वें ईस्ट एशिया शिखर सम्मेलन में दक्षिण-पूर्वी और पूर्व एशिया के 16 देशों के बीच मुक्त व्यापार व्यवस्था के लिए क्षेत्रीय समग्र आर्थिक साझेदारी (रीजनल कंप्रीहेंसिव इकानॉमिक पार्टरनरशिप उर्फ आरसीईपी) के समझौते पर भारत द्वारा हस्ताक्षर न किए जाने से देश को कितना और क्या नफा-नुकसान होगा, यह तो भविष्य में ही पता चलेगा. लेकिन इस फैसले के पीछे पीएम मोदी ने जो भी कारण गिनाए हों, निश्चित ही इसकी असल और सबसे बड़ी वजह महाशक्तिशाली चीन है, जो इस अभियान की अगुवाई कर रहा था. भारत को आशंका है कि इस नई मुक्त व्यापार व्यवस्था की आड़ में चीन भारत के घरेलू बाजार को अपने सस्ते उत्पादों से पाट देगा और पहले से ही भारतीय बाजार में दबंगई कर रहे चीन के सामान की बाढ़ रोकने के लिए कोई भी आर्थिक बांध कारगर नहीं हो सकेगा. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अनुसार चीन के साथ व्यापार करके भारत पहले ही लगभग 50 बिलियन डॉलर का घाटा झेल चुका है.


विश्व व्यापार संगठन संधि की तरह आरसीईपी समझौते पर हड़बड़ी में दस्तखत न करना समझदारी भरा निर्णय कहा जा सकता है क्योंकि उसी संधि के कारण ही भारत मुक्त व्यापार अपनाने को मजबूर है और जिसके चलते चीन में बना सस्ता माल देश के विनिर्माताओं और व्यापारियों के लिए चुनौती बन गया है. इसी संधि की वजह से भारत के पूंजीपति धन समेत विदेश चंपत होते जा रहे हैं और विदेशी निवेशक भारत में लाभ कमाकर हमारी पूंजी को विदेश लिए जा रहे हैं. आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर करके भारत को इसके लागू होने के वर्ष से आगामी 15 वर्षों तक चीन से आने वाले माल पर कोई भी टैक्स न लगाने पर बाध्य होना पड़ता. इससे हमारा दबाव झेल रहा उद्योग जगत तो तबाह होता ही, पहले से नदारद रोजगार के अवसर भी सूख जाते. किसान, दुकानदार और छोटे उद्यमियों की जान सांसत में पड़ जाती.


आरसीईपी एकीकृत बाजार तैयार करने के लिए एक ऐसा मुक्त व्यापार समझौता है, जिसको लेकर 10 आसियान देशों- ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यानमार, फिलिपींस, सिंगापुर, थाइलैंड और वियतनाम और इनके जिन 6 देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) हैं, उनके बीच 2013 से बातचीत चल रही है. ये देश हैं- भारत, ऑस्ट्रेलिया, चीन, दक्षिण कोरिया, जापान और न्यूजीलैंड. बाकी सभी 15 देश समझौते के बिंदुओं पर सहमत हो चुके हैं, जिसका अर्थ यह है कि भारत को छोड़ कर इनमें से प्रत्येक देश के उत्पाद और सेवाएं सभी सदस्य देशों में मुक्त रूप से सुलभ हो सकेंगी. भारत की समस्या मात्र चीन नहीं है. डब्ल्यूटीए संधि वाले मुक्त व्यापार के तहत भारत आरसीईपी के सदस्य आसियान देशों, दक्षिण कोरिया, जापान, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया के साथ व्यापार करके पहले ही अपना संतुलन बिगाड़ चुका है. आसियान देशों के साथ 21.85 बिलियन, दक्षिण कोरिया के साथ 12.05 बिलियन, जापान के साथ 7.91 बिलियन, न्यूजीलैंड के साथ 0.25 बिलियन और ऑस्ट्रेलिया के साथ 9.61 बिलियन यूएस डॉलर का घाटा भारत ने उठाया है. आरसीईपी समझौते के तहत चीन के अलावा जो भी सदस्य देश भारत में किसी सेक्टर विशेष का सस्ता और प्रचुर मात्रा में माल भेजेंगे, वह उस घरेलू सेक्टर के सामने चुनौती खड़ी कर देगा. मिसाल के तौर पर ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से आए डेयरी उत्पाद भारत के डेयरी उद्योग का भट्ठा बिठा सकते हैं. कृषि, स्टील और कपड़ा उद्योग भी मुसीबत में पड़ सकता है. इसीलिए जगतप्रसिद्ध भारतीय अमूल ब्रांड ने केंद्र सरकार को विस्तार में पत्र लिखकर इस समझौते से दूर रहने की गुजारिश की थी और पूर्व यूपीए सरकार के घटकों और कई किसान संगठनों समेत आरएसएस से जुड़ा स्वदेसी जागरण मंच भी हस्ताक्षर करने के खिलाफ था.


याद ही होगा कि डब्ल्यूटीए पर हस्ताक्षर करने को लेकर चीन ने काफी समय ले लिया था और उस समय का सदुपयोग उसने इसके लाभ-हानि का विश्लेषण करने और इस संधि का अपने हित में इस्तेमाल करने में किया था, जो उसने किया भी. इसके उलट भारत ने डब्ल्यूटीए संधि पर जल्दबाजी में हस्ताक्षर कर दिए थे और मुक्त व्यापार करके आज तक घाटा उठा रहा है. आज भारत के सामने ठीक चीन जैसा ही मौका है कि आरसीईपी को लेकर वह अन्य 15 देशों के साथ लेवल प्लेइंग फील्ड हासिल करे और उनके बाजारों का लाभ उठाए. लेकिन इसके लिए भारत को पहले अपने घरेलू उद्योग को इस काबिल बनाना होगा कि वह आयातित उत्पादों की गुणवत्ता और उनके वैकल्पिक मूल्य के साथ प्रतिस्पर्द्धा कर सके, उत्पादों की बाढ़ का सामना कर सके, अपने कामगारों को सदस्य देशों में आसानी से तैनात कर सके, टैरिफ घटाने वाला आधार वर्ष निर्धारित कर सके, अन्य देशों में अपने उत्पादों और सेवाओं का बाजार बिना किसी बाधा के असीमित कर सके, जरूरत पड़ने पर अपने टैरिफ बढ़ा सके. लेकिन दुखद यह है कि नोटबंदी और जीएसटी के महाआघातों के बाद भारत की अर्थव्यवस्था इस अवस्था में ही नहीं है कि वह अपने विराट घरेलू बाजार की धौंस दिखाकर दूसरों को इस तरह की शर्तें मानने को बाध्य कर सकता है. फिलहाल समझदारी इसी में है कि पहले से ही मुक्त व्यापार के भागीदार बने देशों के साथ व्यापार घाटा कम किया जाए और आगे भी आरसीईपी के नए जाल में फंसने से बचा जाए.


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