जिम्मेदार पति कौन होता है? अपने परिवार का ध्यान रखने वाला. यूनियन बैंक की इंश्योरेंस सेवा का एक विज्ञापन यह कहता है. मतलब जिम्मेदार पति हैं तो बीमा कराइए. अपना और अपने परिवार का जीवन सुरक्षित रखिए. बेशक, परिवार की जिम्मेदारी निभाने का काम पतियों या पुरुषों का होता है. यही वजह है कि बीमा के विज्ञापन का टारगेट आदमी ही है. होगा भी क्यों नहीं? परिवारों में आदमियों का ही ज्यादातर बीमा कराया जाता है. एक बीमा कंपनी अपोलो म्यूनिख हेल्थ इंश्योरेंस ने जब अपने बीमा प्रॉडक्ट्स को बेचने के लिए लोगों के बीच सर्वे किया तो 80 परसेंट लोगों ने कहा कि परिवार के प्राइम ब्रेडविनर यानी कमाऊ सदस्य का बीमा कराना ठीक होता है. परिवार का कमाऊ सदस्य कौन? जाहिर सी बात है, आदमी.


आदमी ही परिवार की धुरी होता है. कई सालों से हमारे बुजुर्ग यही कहते आ रहे हैं. किसी भी शहर, कस्बे और गांव देहात में यही बात हमेशा दोहराई जाती है. परिवार में कमाने वाले की पूछ होती है. उसी का सबसे ज्यादा ध्यान रखा जाता है. औरतें खामोशी से सेकेंड सिटिजन का रोल निभाती रहती हैं. उनकी खामोशी कई रिश्तों की आबरू ढंक लेती है. इस खामोशी में यह भी मान लिया जाता है कि कमाने वाला ही यह तय करेगा कि कमाई को कहां खर्च करना है. लाली-पाउडर, चमचमाते कपड़े पाकर औरत खुश हो जाती है और चूल्हे चौके में लगी रहती है. राशन लाने से लेकर बैंक में खाते तक के लिए आदमी की सलाह से ही सब कुछ खरीदा-संजोया जाता है. कई परिवारों में खर्च भी किया जाता है.


खर्च मतलब फाइनेंशियल और निवेश संबंधी फैसले और वह आदमी का ही काम होता है. आदमी सलामत रहे, तभी तो परिवार चलता रहेगा. आदमी का बीमा होता है, आदमी के नाम से जमीन जायदाद खरीदी जाती है, आदमी के ही नाम से मकान बनाए और खरीदे जाते हैं. गाड़ी घोड़ा लेना है तो उसी की पसंद की कंपनी और मॉडल. औरत हंसकर कह देती है हमें क्या मालूम कि कौन सी गाड़ी अच्छी है? पर गाड़ी खरीदा लक्जरी है इनवेस्टमेंट नहीं.


जहां तक इनवेस्टमेंट की बात है, उसका फैसला तो आदमी ही करता है. अपनी बीवी का, अपनी मां का, अपनी बहन या अपनी बेटी का. नीलसन के एक सर्वे में कहा गया है कि सिंगल वर्किंग औरतों में से हर पांच में से एक से भी कम औरत इनवेस्टमेंट के फैसले खुद लेती है. अपना पैसा वे औरतें कहां निवेश करेंगी, इसका फैसला परिवार का कोई पुरुष सदस्य लेता है. यह वर्किंग औरतों का सवाल है, वह भी सिंगल औरतों का. शादीशुदा और नॉन वर्किंग औरतों में से सिर्फ 10 परसेंट ये फैसला खुद करती हैं. परिवारों में सिर्फ 13 परसेंट औरतों को ही यह बताया जाता है कि हमने कहां-कहां इनवेस्ट किया है.


औरत पर भरोसा नहीं किया जाता कि वह पैसे से जुड़े फैसले खुद ले सकती है. भरोसा कांच की घट की तरह होता है, जरा सा गिरा कि फूट गया. पर कवित्त पढ़ने से हक नहीं मिल जाते. इनके लिए ठोस आंकड़े चाहिए. हमारे कहने से कोई कहां मानने वाला है कि औरतों को उनके हक मिलने जरूरी हैं- खासकर आर्थिक हक. शहरों से पहले गांवों में. जमीनी स्तर पर जमीन से जुड़े. जमीन पर औरतों का हक नहीं है, इसके लिए बताना जरूरी है कि देश में खेती की जमीनों सिर्फ 12.78 परसेंट औरतों के नाम है. मतलब 100 में से सिर्फ 13 औरतों के नाम. लैंड ऑफ द टिलर- रिविजिटिंग द अनफिनिश्ड लैंड रिफॉर्म्स एजेंडा नाम की एक किताब इन सभी आंकड़ों को इकट्ठा करती है. किताब के लेखक का कहना है कि इससे पता चलता है कि ग्रीन रेवोल्यूशन का नेचर कितना जेंडर बायस्ड था.


दरअसल इसी लिंग भेदी प्रकृति से लड़ने के लिए हिंदू उत्तराधिकार कानून में 2005 में बदलाव किया गया था. फिर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 2005 के संशोधित कानून को 9 सितंबर 2005 से पहले के बंटवारों में मान्यता नहीं दी जाएगी. इसका मतलब यह था कि जिन महिलाओं ने अपने पिता को 9 सितंबर 2005 से पहले खो दिया था, उन्हें पैतृक संपत्ति या कृषि भूमि में उनकी बराबर की हिस्सेदारी नहीं मिलेगी. यानी बहुत सी औरतों तो इस कानून से बाहर ही हो गईं. बची बहुत कम. किसी ने दया भाव से कुछ दे दिया तो ले लिया. वरना मुंह बांधे अपने हक छोड़ती रहीं.


यूं खेती की जमीन पर औरतें बहुत बड़ी संख्या में काम करती हैं. 50 परसेंट से भी अधिक. सिर्फ खेती ही नहीं, मवेशियों को पालने, मछलियां पकड़ने, बागवानी करने में भी औरतें आदमियों के बराबर ही काम करती हैं. लेकिन उनकी कमाई आदमियों के मुकाबले कम ही होती है. अगर आदमी को एक काम के सौ रुपए मिलते हैं तो औरत को 70 रुपए. तिस पर अपना कहने को कोई मिलकियत न हो तो मानो सिर पर कोई छत ही नहीं है. पैसा आपके अंदर आत्मविश्वास भरता है, संपत्ति भी पैसा ही है. चाहे मकान दुकान हो या जमीन. जमीन अपनी नहीं तो आपको कहीं से कर्ज भी नहीं मिल सकता. आप किसी सरकारी सुविधा का लाभ नहीं उठा सकते. जमीन की टाइटलिंग के मामले में सबसे बड़ा पेंच यही है. इसीलिए सरकारी स्कीमों और इनपुट सबसिडी से महरूम रहने वाले हमारे यहां 65 परसेंट के करीब हैं और उनमें आदमी-औरत दोनों हैं. सोचा ही जा सकता है कि 13 परसेंट जमीन की मालकिन औरतों को यह लाभ कितना मिल पाता होगा.

ऐसे में इमरजेंसी की स्थिति में ये किस हद तक परिवार के दूसरे सदस्यों पर निर्भर हो जाती हैं. गांवों में भी और शहरों में भी. अक्सर इनवेस्टमेंट की जानकारी के बिना जमीन पर मिलकियत के बिना. परिवार के पुरुषों को भरोसा जो नहीं कि वह सब कुछ संभाल सकती है. यूं प्रधानमंत्री ने भी सरकारी अधिकारियों को गृहिणियों से सीख लेने की सलाह दी है. पैसों का मैनेजमेंट करना औरतों से ज्यादा कौन सीख सकता है.

हां, औरत को खुद यह समझने की जरूरत है कि वह अब भी फाइनेंशियल गुलामी के दौर में जी रही है. पितृसत्ता के अंधेरे में सोते हुए उसे कभी नहीं लगता कि गुलामी भी कोई चीज है जो उसे अदृश्य ज़ंजीरों से बांध कर रखती है. इस अंधेरे में सुरक्षा और सुविधा की बत्ती टिमटिमाती जो रहती है. लेकिन इस अंधेरे से उसे कभी वतनबदर किया जा सकता है. किया भी जाता है. जैसा कि कैफी आजमी ने कहा है

यह भी एक क़ैद है, क़ैदे मुहब्बत से निकल
मोहब्बत से भी आज़ाद होना जरूरी है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)