बिहार के पिछले विधान सभा चुनाव से पहले पटना के अखबारों में पूरे पहले पन्ने के रंगीन और खूबसूरत विज्ञापनों ने जितना वहां की राजनीति में खलबली नहीं मचाई उससे ज्यादा इस बार प्रियंका गांधी की प्रयागराज से वाराणसी की लखनऊ नौका यात्रा ने मचाई. और तब जितना 'सन आफ मल्लाह' के उन विज्ञापनों का असर दिखा उससे ज्यादा प्रियंका की यात्रा के बाद सबको ध्यान मल्लाह वोटरों को लुभाने पर गया है. सन आफ मल्लाह मुकेश साहनी की 'वीआईपी' पार्टी को उसकी और सबकी उम्मीद के विपरीत बिहार के विपक्षी महागठबंधन ने लोकसभा की तीन सीटें दे दी हैं तो उत्तर प्रदेश में भी निषाद पार्टी को एसपी-बीएसपी-रालोद गठबंधवन से बीजेपी ने अपने पक्ष में कर लिया है.


मुकेश सहनी का परिवार मुंबई के फिल्म उद्योग में सेट लगाने का काम करता है और आज की तारीख में काफी पैसे वाला माना जाता है. जब उन्होंने विज्ञापनों और एक बडे राजनैतिक जलसों के सहारे बिहार के मल्लाहों को एकजुट करने और महागठबंधन और एनडीए दोनों तरफ सीटों की सौदेबाजी शुरू की तो कई लोगों को लगा कि वे किसी और के पैसों पर और किसी और के लिए यह 'खेल' कर रहे हैं. बिहार में आम तौर पर पिछड़ों की पसंद बने गठबंधन की जगह जब उन्होंने मात्र दो विधान सभा सीटों पर एनडीए से समझौता किया तो उनको हल्का खिलाडी माना गया. इस बार वे पूरी तैयारी और होशियारी से जुटे थे और उनको कीर्ति आजाद और अशरफ फातमी जैसे बडे खिलाडियों की जगह दरभंगा सीट दिए जाने की चर्चा काफी समय से थी. पर आखिर में वे खुद खगडिया से और दो और स्थान झटकने में सफल रहे जिसमें अब मल्लाहों की सीट गिना जाने वाला मुजफ्फरपुर भी शामिल है.


उत्तर प्रदेश में मल्लाह वोटों का असर दिल्ली की मीडिया को भले प्रियंका की नाव यात्रा से दिखा पर राजनीति के असली उस्ताद लोग इस चीज को काफी समय से भांप रहे थे. जब फूलन देवी जेल से बाहर आई तभी सारे राजनैतिक दल उनके सामने यूं ही लाइन लगाके खडे नहीं हुए थे! कौन-कौन उनसे मिला और किस तरह वे जातिवादी राजनीति का ही शिकार बनीं (चम्बल के बीहड से जिन्दा निकलकर दिल्ली में मारी गईं) इस चर्चा का खास मतलब नहीं है. पर वे अपने बूते एसपी की सांसद बनीं और उनके आने से पार्टी को कई सीटों पर अप्रत्यक्ष लाभ भी हुआ. तब से एसपी और बीएसपी ही नहीं अन्य पार्टियों की सूची में कश्यप, मल्लाह, निषाद, धीमर जैसे अलग अलग नामों से जानी जाने वाली इस जाति के उम्मीदवार छिटफुट दिखने और जीतने लगे थे.


पर इधर निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल अर्थात निषाद पार्टी (प्रथमाक्षरों से बना नाम) ने पूर्वांचल में अति पिछडों को साथ लेकर जब मल्लाहों को एकजुट करना शुरू किया (यही का राजभरों को केन्द्र में रखकर सुहेलदेव पार्टी ने किया) तो सबका ध्यान उसके असर पर जाने लगा. पिछले विधान सभा चुनाव में उसने पूरब, खासकर गोरखपुर के आसपास की सीटों पर उसका प्रभाव देखकर ही एसपी-बीएसपी ने पिछले साल हुए उप चुनाव में निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद के पुत्र प्रवीण निषाद को साझा उम्मीदवार बनाया और बीजेपी को पटखनी देकर उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता की शुरुआत की. इस बार संजय फिर से योगी के साथ हो गए हैं पर उन्हें एनडीए अपने चुनाव चिह्न पर लडने देगा या गठबन्धन में कितना महत्व देगा यह देखने की चीज होगी.


पर उनकी पूछ अचानक बढ़ना कोई अपवाद की घटना नहीं है. जैसे ही मल्लाहों के बीच राजनैतिक चेतना और सत्ता में भागीदारी पाने की भूख बढ़ी है सब कोई उनके राजनैतिक महत्व को समझने लगे हैं. भले गंगा के किनारे की अस्सी संसदीय सीटों (पांच राज्यों की) पर मल्लाहों की आबादी 13 फीसदी न गिनी गई हो (जिसका दावा मल्लाह नेता करते हैं) लेकिन उनकी उपेक्षा की जाए यह स्थिति भी नहीं है. और जब पक्ष-विपक्ष की मारामारी हो तो हर वोट या मतदाता समूह अपने से दो गुना वजन रखता है- एक तरफ से दूसरी तरह जाने पर व्यवहार में यही होता भी है. इसी गोरखपुर सीट पर 2014 में जब योगी आदित्यनाथ लडे़ थे तब एसपी ने राजमति निषाद और बीएसपी ने रान भुआल निषाद को इसी मल्लाह गोलबन्दी के चलते टिकट दिया था.


मलाह गोलबन्दी से उनकी ताकत बढ़ने और पहचाने जाने का सबसे अच्छा उदाहरण बिहार के उत्तरी हिस्से की राजधानी मानी जाने वाले मुजफ्फरपुर की लडाई है. कभी राजपूत बनाम भूमिहार की लडाई यहां का मुख्य सामाजिक समीकरण थी. पर जब से जयनारायण निषाद ने मोर्चा संभाला तब से मुजफ्फरपुर मल्लाह राजनीति का केन्द्र बन गया है. और सभी पार्टियां सिर्फ मल्लाह उम्मीदवार ही नहीं दे रही हैं, बल्कि हारे हुए मल्लाह उम्मीदवारों को राज्यसभा और विधान परिषद में भी भेजने लगी हैं.


आजादी के इतने साल और मंडल की राजनीति के परवान चढने के तीन दशक बाद अगर कोई भर, कहार, मल्लाह, कुम्हार, माली, पनवाडी, भडभूज, सैंथवार, गडेरिया, लोहार, बढई जैसी अति पिछडी जातियों के राजनैतिक वजूद को भूलने या न मानने की गलती करे तो उसे इसी मुख्य धारा की राजनीति और राजनेताओं के हाल के मल्लाह-प्रेम पर ध्यान देना चाहिए. यह लोक तंत्र का कमाल है. इसमें मेरा नंबर कब आएगा का गुहार नहीं लगाना होता, अपना नंबर खुद लगाना होता है. जिस समुदाय को यह समझ आ जाती है, उसका नंबर खुद आ जाता है. अभी मल्लाहों का नंबर आया है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)


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