BLOG: लाखों लोगों की जिंदगी का सवाल है एनआरसी
दुखद यह है कि लाखों लोग इस धुकधुकी में मरे जा रहे हैं कि कर्मचारियों के पूर्वाग्रह, लापरवाही तथा पर्याप्त और उचित दस्तावेजों के अभाव में कहीं उनसे उनका मुल्क और नागरिकता ही न छिन जाए.
असम के राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस) यानी एनआरसी की अंतिम सूची 31 अगस्त यानी कल प्रकाशित होने जा रही है. यह बेहद जरूरी और अच्छी बात है कि देश में रह रहे अवैध नागरिकों की शिनाख्त करके उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाए, फिर चाहे वे समय-समय पर बांग्लादेश से आए हिंदू-मुसलमान हों, म्यांमार के रोहिंग्या हों, भारत भाग आने वाले पाकिस्तानी हिंदू हों या अन्य विदेशी घुसपैठिए. लेकिन ऐसे नागरिकता अभियान में जब भेदभाव की बू आने लगती है तो मामला देश की सुरक्षा से परे हटकर राजनीतिक स्वार्थों के जाल में उलझ कर रह जाता है. एनआरसी का मामला भी कुछ-कुछ ऐसा ही है. इसीसे तय होगा असम में कौन भारत का नागरिक है और कौन नहीं. हिंसा की आशंका के मद्देनजर असम को हाई अलर्ट पर रख दिया गया है.
एनआरसी की अंतिम सूची जारी किए जाने में एक दिन ही शेष है लेकिन हफ्ते भर पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और हिन्दू जागरण मंच जैसे दक्षिणपंथी संगठनों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए मांग तेज कर दी थी कि सौ प्रतिशत त्रुटिहीन होने के बाद ही नागरिकता रजिस्टर को प्रकाशित किया जाए. उनकी आशंका यह है कि इसमें असम के मूल निवासी छूट गए हैं और अवैध प्रवासी शामिल कर लिए गए हैं, बड़ी संख्या में हिंदू समुदाय के लोगों का नाम भी छोड़ दिया गया है. विडंबना देखिए कि पिछले साल 30 जुलाई को एनआरसी का मात्र मसौदा ही जारी हुआ था और लाखों मुस्लिमों के नाम जान-बूझ कर छोड़ दिए जाने की आशंका के चलते दिल्ली से लेकर कोलकाता और गौहाटी से लेकर पटना तक भूचाल मच गया था. एनआरसी के विरोध में हाथों में तख्ती लिए कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सपा, राजद, तेदेपा, आप, बसपा और जद(एस) के सांसद दोनों सदनों में रोज हंगामा कर रहे थे. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो यहां तक कह डाला था कि एनआरसी में लगभग 41 लाख मुस्लिमों का नाम गायब कर दिए जाने से देश में खून-खराबा और गृहयुद्ध तक हो सकता है.
दुखद यह है कि लाखों लोग इस धुकधुकी में मरे जा रहे हैं कि कर्मचारियों के पूर्वाग्रह, लापरवाही तथा पर्याप्त और उचित दस्तावेजों के अभाव में कहीं उनसे उनका मुल्क और नागरिकता ही न छिन जाए. लेकिन राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों को किसी व्यक्ति से उसका देश, उसकी पहचान छिन जाने की भयावहता का जैसे अहसास ही नहीं है. बिना रजिस्टर देखे ही असम के बीजेपी विधायक शिलादित्य देव दुख जता रहे हैं कि बंटवारे के शिकार बहुत से हिंदू परिवार और उनके वंशज एनआरसी में जगह नहीं बना सके हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा नागरिकता के दावों को दोबारा सत्यापित कराने की मांग वाली राज्य सरकार की याचिका खारिज किए जाने के बावजूद मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल की दलील है कि आवेदन दोबारा सत्यापित किए बगैर एनआरसी का प्रकाशन फुलप्रूफ नहीं माना जा सकता. उनका कहना है कि अगर जरूरी हुआ तो आने वाले वक्त में इस सूची में सुधार के लिए अध्यादेश लाने जैसे अन्य कदम उठाए जा सकते हैं.
यह सच है कि इस मसौदे को तैयारी और समूची कार्रवाई की निगरानी करने में सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य भूमिका है. लेकिन जातीय और राजनीतिक दबाव में जमीनी स्तर पर एनआरसी का काम किस तरह हुआ है, यह किसी से छुपा नहीं है. अगर वैध नागरिकों को मसौदे की अंतिम सूची में स्थान नहीं मिल पाया हो, तो इसे महज अधिकारियों और कर्मचारियों की लापरवाही कह कर टाला नहीं जा सकता. इसके पीछे नीयत का सवाल भी छिपा है. हम देखते हैं कि देश के अन्य भागों में भी मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां होती हैं या की जाती हैं. कल्पना की जा सकती है कि जब महज चुनाव जीतने की भावना से ऐसा फर्जीवाड़ा हो सकता है तो जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल पर लोग किस सीमा तक नहीं जा सकते.
नागरिकता सत्यापन का कार्य दो चरणों में हुआ है- कार्यालय में जमा कागजात के आधार पर और घर-घर जाकर. लेकिन देखा गया है कि उपनाम देख कर ही कई स्थानीय कर्मचारी बिदक जाते हैं. कई लोग वैध निवासी होते हुए भी गरीबी, अशिक्षा, उदासीनता, विस्थापन अथवा अन्यान्य कारणों से वैध कागजात नहीं बनवा पाते या गुम कर देते हैं या उनके कागजात प्राकृतिक आपदाओं में नष्ट हो जाते हैं. एनआरसी की वर्तमान लिस्ट में शामिल होने के लिए व्यक्ति के परिजनों का नाम साल 1951 में बने पहले नागरिकता रजिस्टर में होना चाहिए या फिर 24 मार्च 1971 तक की चुनाव सूची में होना चाहिए. इसके लिए अन्य दस्तावेजों में जन्म प्रमाणपत्र, शरणार्थी पंजीकरण प्रमाणपत्र, भूमि और किरायेदारी के रिकॉर्ड, नागरिकता प्रमाणपत्र, स्थायी आवास प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, एलआईसी पॉलिसी, सरकार द्वारा जारी लाइसेंस या प्रमाणपत्र, बैंक या पोस्ट ऑफिस खाता, सरकारी नौकरी का प्रमाण पत्र, शैक्षिक प्रमाण पत्र और अदालती रिकॉर्ड शामिल हैं.
तो क्या महज ये कागजात न होने के आधार पर गरीबों की नागरिकता छिन जानी चाहिए. इसके उलट जो अवैध प्रवासी धन, सत्ताधारियों से निकटता अथवा वोट बैंक मुट्ठी में होने के चलते नागरिकता संबंधी पुख्ता दतावेज पेश कर देते हैं, उन्हें शामिल किया जाना चाहिए! एनआरसी के प्रकाशन से पूर्व इन दोनों तरह की शिकायतें सामने आ रही हैं. राहत की बात यही है कि असम के अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह एवं राजनीतिक विभाग) कुमार संजय कृष्णा ने कहा है कि एनआरसी सूची में जो लोग शामिल नहीं हो पाएंगे उन्हें तब तक किसी भी हालत में हिरासत में नहीं लिया जाएगा जब तक विदेशी न्यायाधिकरण (एफटी) उन्हें विदेशी नागरिक घोषित न कर दे.
दरअसल अंग्रेजों द्वारा 1905 में किए गए बंग-भंग के बाद असम पूर्वी बंगाल से जुड़ा प्रांत था. 1947 के बंटवारे के बाद खतरा यह पैदा हो गया कि कहीं असम पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से में न चला जाए. लेकिन गोपीनाथ बोरदोलोई के नेतृत्व में चले अस्मितावादी आंदोलन ने अनहोनी टाल दी थी. असम के चाय बागानों में काम करने के लिए काफी पहले से उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के लोग आते थे. व्यापार के सिलसिले में राजस्थान के लोग भी स्थायी तौर पर आ बसे. इनमें हिंदीभाषी मैदानी लोग, बांग्लाभाषी हिंदू और मुसलमान बड़ी संख्या में शामिल थे. स्थानीय लोग रोजगार, संस्कृति और अन्यान्य कारणों से यह सब पसंद नहीं करते थे. जब 1950 में असम को राज्य का दर्जा मिला तो असमिया लोगों का विरोध तीक्ष्ण और संगठित हो गया.
मामला तब और गंभीर हुआ जब पूर्वी पाकिस्तान के अंदर पाक सेना ने दमन शुरू किया और लाखों की संख्या में हिंदू-मुसलमान भागकर असम में प्रवेश कर गए. लेकिन 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया तो कुछ लोग लौटे और कुछ यहीं रह गए. इसके बाद गरीबी और भुखमरी के चलते बांग्लादेशियों ने अवैध रूप से असम में घुसपैठ शुरू कर दी. बाहरी आबादी की इस अप्रत्याशित बाढ़ के कारण असम की स्थानीय जनजातियों में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई. उन्होंने हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लिया. युवाओं और छात्रों के सब्र का बांध भी टूट गया और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) ने 1951 का एनआरसी अद्यतन करने को लेकर कई वर्षों घनघोर आंदोलन चलाया. 1985 में उनका केंद्र की राजीव गांधी सरकार के साथ असम एकॉर्ड हुआ, जिसमें अवैध बांग्लादेशियों की श्रेणियां निर्धारित करने के साथ यह शर्त मानी गई कि 24 मार्च, 1971 की आधी रात से पहले जिनके या जिनके पुरखों के असम में रहने के वैध सबूत नहीं होंगे, उन्हें निकाल बाहर किया जाएगा.
समझौता तो हो गया था और सरकारें भी बनती-बदलती गईं, लेकिन न तो अवैध बांग्लादेशी पहचान कर निकाले गए न ही एनआरसी अद्यतन हुआ. आखिरकार यह मामला लटकते-लटकते एनजीओज की पहल पर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचा. उसी का नतीजा है कि वर्षों चली लंबी प्रक्रिया के बाद 31 अगस्त को एनआरसी की अंतिम सूची प्रकाशित होने जा रही है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की चिंता यह है कि असम में रह रहे बांग्ला बोलने वाले लाखों मुसलमानों और इधर-उधर के बांग्लाभाषी हिंदुओं का भविष्य क्या होगा? साथ ही सबूतों के अभाव में जिन वैध नागरिकों को विदेशी ठहरा दिया जाएगा, उनके साथ क्या सलूक किया जाएगा.
छात्र संगठन आसू ने विदेशी नागरिकों के खिलाफ असम में मुहिम की अगुआई की थी. हिंदूवादी संगठनों के उलट ‘आसू’ बिना देरी किए तय समय पर कल ही अंतिम एनआरसी प्रकाशित किए जाने के पक्ष में है. हालांकि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी स्पष्ट किया है कि केवल एनआरसी में नाम न आने से कोई व्यक्ति विदेशी नागरिक घोषित नहीं हो जाएगा. जिनके नाम इसमें शामिल नहीं हैं, उन्हें फॉरेन ट्रिब्यूनल (एफटी) के सामने कागजातों के साथ पेश होना होगा. इसके लिए व्यक्ति को 120 दिन का समय दिए जाने का प्रावधान है. आवेदक के भारत का नागरिक होने या न होने का फैसला एफटी के हाथ में होगा. यदि आवेदक एफटी के फैसले से असंतुष्ट होता है तो उसके पास हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के पास जाने का भी अधिकार है. सरकार ने साफ कर दिया है कि नागरिकता खोने के बावजूद भी लोगों को डिटेंशन सेंटर नहीं भेजा जाएगा. लेकिन असम में अफवाहों का बाजार गर्म है. लोग भयातुर हैं. एनआरसी ऐसा जटिल रजिस्टर है, जिसको अंतिम रूप देने का काम अंतहीन है. प्रकाशन के बाद भी इसे हैंडल करने में देश, सर्वोच्च न्यायालय, केंद्र सरकार, राज्य सरकार और भारतीयों को बेहद संवेदनशीलता बरतनी होगी. यह चुनावी नफा-नुकसान का नहीं, लाखों नागरिकों की जिंदगी का सवाल है.
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