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हिजाब हो या घूंघट, दोनों औरतों को कायर बनाने की डर्टी पॉलिटिक्स का हिस्सा हैं
सौम्या स्वामीनाथन ग्रैंडमास्टर ही बन गई हैं. चेस की दुनिया की ही नहीं, औरतों की दुनिया की भी. ईरान में एशियन नेशंस कप 2018 में खेलने से इनकार करके. यहां इस चैंपियनशिप में खेलने का एक अनिवार्य नियम है- लड़कियों को हिजाब पहनकर खेलना होगा.
सौम्या स्वामीनाथन ग्रैंडमास्टर ही बन गई हैं. चेस की दुनिया की ही नहीं, औरतों की दुनिया की भी. ईरान में एशियन नेशंस कप 2018 में खेलने से इनकार करके. यहां इस चैंपियनशिप में खेलने का एक अनिवार्य नियम है- लड़कियों को हिजाब पहनकर खेलना होगा. सौम्या ने कहा- यह मेरे मानवाधिकार का हनन है. खेल में धार्मिक या सांस्कृतिक पहनावे का नियम नहीं होना चाहिए. बेशक, मैं हिजाब पहनने वाली महिलाओं का सम्मान करती हूं लेकिन आप इसे जबरन कैसे पहना सकते हैं.
इससे पहले सौम्या आठ साल पहले हिजाब पहनकर ईरान में चेस खेल चुकी हैं. तब वह 21 साल की थीं- तेल और तेल की धार, दोनों को देख रही थीं. लेकिन आठ सालों में वह परिपक्व हुई. यह फैसला कर सकीं कि उनके लिए क्या सही है. उनसे पहले अमेरिकी चेस खिलाड़ी नाजी पैकिड्जे ने पिछले साल इसी वजह से ईरान जाने से इनकार कर दिया था. 2016 में भारतीय शूटर हिना सिंधु हिजाब पहनने की बाध्यता के कारण ही एयरगन मीट में नहीं गई थीं.
लड़कियां लड़की होने के सनातन डर से बाहर निकल रही हैं. तय कर रही हैं कि उनके लिए क्या सही है. हिजाब- घूंघट सब मर्दों के स्त्रीवादी प्रतीक हैं. स्त्रियों को कायर बनाने की डर्टी पॉलिटिक्स का हिस्सा. लड़कियां इस पॉलिटिक्स का टूल बनने से इनकार कर रही हैं. दुनिया के कई देश इन टूल्स की प्रयोगशालाएं बने हुए हैं. पिछले साल पैकिड्जे ने चैंपियनशिप से अपना नाम वापस लेने के बाद इंस्टाग्राम पर लिखा था- ईरान की औरतें रोजाना हिजाब पहनने के नियम के खिलाफ आवाज उठा रही हैं और अपनी जान को जोखिम में डाल रही हैं. इसलिए मैं हिजाब नहीं पहनूंगी और महिलाओं के उत्पीड़न का हिस्सा नहीं बनूंगी. उम्मीद है कि इन प्रयोगशालाओं के परीक्षण जल्दी फेल हों.
ऐसी प्रयोगशालाएं अपने यहां भी स्थापित करने करने की कोशिशें जारी हैं. पिछले साल हरियाणा सरकार की पत्रिका कृषि संवाद में एक तस्वीर छपी थी. कैप्शन था- घूंघट राज्य की पहचान है. चारों तरफ थू-थू हुई थी. तब किसी दिलजले ने सीना ठोंककर कहा था- शर्म करो- इज्जत करो. कहा था कि औरतें इज्जत करती हैं इसलिए घूंघट निकालती हैं. परदा करना इज्जत करना है तो मर्द क्या किसी की इज्जत नहीं करते. वे तो मुंह उठाए घूमते रहते हैं. जवाब मिला था. लेकिन ईरान और अपने यहां फर्क है. हम यहां घूंघट का विरोध कर सकते हैं. ठीक फ्रांस की तरह, जहां लोग बुरका जबरन उतरवाने का भी विरोध कर सकते हैं. चूंकि डेमोक्रेसी है. ईरान में यह ऑप्शन नहीं है- वहां चुप रहने को मजबूर किया जाता है.
हिजाब, बुर्का या घूंघट-सिंदूर-चुनरी... सब एक सिक्के के कई-कई पहलू हैं- एक के ऊपर एक चढ़े हुए. ये सभी स्त्री को अपनी अस्मिता के परखच्चे उड़ाने को तैयार करते हैं. परिवार वालों के साथ-साथ वृहतर परिवार के भी दबाव होते हैं. परिवार से छूट जाते हैं तो वृहतर परिवार जकड़ लेता है. हर आयोजन में नए सिरे से कमर कसनी पड़ती है. सुविधा और कमजोरी पर सम्मान और प्यार का रैपिंग पेपर चढ़ाना पड़ता है. औरतों को खुद हिपोक्रेसी करनी पड़ती है. लेकिन उनकी आन-बान-शान समानता और बराबरी है. असमानता और घूंघट-बुर्का नहीं. ये किसी समाज की संस्कृति नहीं, महिला विरोधी, प्रकृति विरोधी और मानवता विरोधी हैं.
लेकिन हम लकीर पीटने में माहिर हैं. 2017 में तिरुअनंतपुरम के एक गैर सरकारी संगठन पहलू ने लोगों के बीच एक सर्वे किया तो 82 परसेंट लोगों ने कहा कि औरतों को शरीर ढंककर ही बाहर निकलना चाहिए. सर्वे देश के कई बड़े शहरों, जैसे भोपाल, कोलकाता, जयपुर, मुंबई और हैदराबाद में किया गया था. शरीर ढंकने का मतलब चुन्नी भी था और हिजाब भी. 59 परसेंट ने कहा था कि लड़कियों को ध्यान रखना चाहिए कि उनके पहनावा किसी को सिड्यूस करने के लिए नहीं होता. 71 परसेंट का मानना था कि लड़कियों का सिर और छाती ढंकना जरूरी होता है.
दरअसल लड़कियों के पहनावे पर हम कुछ ज्यादा ही ध्यान देते हैं. वह क्या पहनें, यह तय करने में बहुत सारा वक्त जाया करते हैं. कहीं उन्हें लबादों में ढंकने पर उतारू हैं, कहीं उनके लबादे खींचकर उतारने में. पिछले साल नदाल जोया नाम की एक लड़की को दिल्ली के एक एनजीओ में सिर्फ इसलिए नौकरी नहीं मिली क्योंकि वह हिजाब पहनती थी. जोया टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस की ग्रैजुएट थी. लेकिन हिजाब ने उसके पूरे वजूद को हिलाकर रख दिया. वैसे यह ट्रेंड दुनिया भर में है. फ्रांस और बेल्जियम ने 2011 में बुर्के पर प्रतिबंध लगाया था.
2016 में नीदरलैंड्स ने सार्वजनिक स्थानों पर बुर्का बैन किया. बुल्गारिया ने भी. 2017 में इस लिस्ट में ऑस्ट्रिया भी शामिल हो गया, जर्मनी में भी सार्वजनिक स्थानों पर बुर्का नहीं पहना जा सकता. ये बैन आतंकवाद को काबू में करने के लिए लगाया गया लेकिन इसे भी औरतों पर हुकूमत करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. चूंकि जिस तरह जबरन शरीर ढंकने को मजबूर नहीं किया जा सकता, उसी तरह शरीर उघाढ़ने का आदेश भी नहीं दिया जा सकता. बुर्का-हिजाब या घूंघट जबरन पहनाना भी गलत है, जबरन उतरवाना भी. औरतों को इन दोनों से आजादी की दरकरार है. आदमी न तो यह तय कर सकते हैं, न ही उन्हें तय करना चाहिए. यह औरत की मर्जी और उसके विरोध का सवाल है.
औरत की मर्जी पूछिए- फिर उसे तय करने दीजिए. क्योंकि घूंघट-हिजाब-सेनुर-नथुनी की कठोर जंजीरें औरत खुद दरकाएगी. उसे किसी मसीहा की जरूरत नहीं है. 2013 में पाकिस्तान में एक एनीमेटेड टेलीविजन शो बुर्का एवेंजर्स की खूब धूम मची थी. वहां की मशहूर रेडियो होस्ट महवेश मुराद ने इस शो की बहुत आलोचना की थी. उनका कहना था कि इससे हम बुर्के को कूल और डिज़ायरेबल बना रहे हैं. समय के साथ हर कुप्रथा को खत्म करने की जरूरत है. और औरतें ही इसे खत्म करेंगी. हम उस दिन का इंतजार करेंगे. तब तक सौम्या स्वामीनाथन के कदम पर तालियां पीटिए. वह औरत हैं और औरतों का साथ दे रही हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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