दुखद है कि चीन जैसे कम्युनिस्ट देश में एक अरबपति 12 घंटे की शिफ्ट की वकालत करता है
मिस्टर जैक मा... इंटरनेट कंपनियों के कर्मचारी पहले ही ओवरवर्क्ड हैं
चीन की ई-कॉमर्स और इंटरनेट कंपनी अलीबाबा के ओनर जैक मा ने जिस 996 शेड्यूल की पेशकश की थी, उसकी दुनिया भर में खूब आलोचना हो चुकी है. उन्होंने एक मौके पर कहा था कि अलीबाबा में काम करने वालों को 12 घंटे की शिफ्ट और हफ्ते में छह दिन काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए. भला जवानी में आप खूब काम नहीं करेंगे, तो कब करेंगे? इसके बाद चीन की सरकार ने सभी निजी कंपनियों को इस बात के लिए चेताया कि आप अपने कर्मचारियों के साथ ऐसी नाइंसाफी नहीं कर सकते. अगर कानून 44 घंटे हर हफ्ते का प्रावधान करता है तो कोई कंपनी इसका उल्लंघन नहीं कर सकती. जैक मा के बयान का लोगों ने भी जगह-जगह विरोध किया.कानून के जानकारों ने इसे गैरकानूनी बताया और कहा कि चीन की इंटरनेट कंपनियों को विदेशी इंटरनेट कंपनियों जैसे गूगल और फेसबुक से सीखना चाहिए कि कर्मचारियों की प्रोडक्टिविटी कैसे बढ़ाई जाए.
बेशक, कानूनी तौर से तो आप कर्मचारियों से आठ घंटे से ज्यादा काम नहीं करा सकते, लेकिन कानून की सुनता कौन है? इंटरनेट कंपनियां बड़े स्तर की कंपनियां हैं इसलिए इनमें काम करने वाले लोगों की सुनवाई आसानी से हो जाती है. वरना, आठ-साढ़े आठ घंटे की शिफ्ट और हफ्ते में पांच दिन काम करने की सुविधा ज्यादातर मजदूरों को नहीं मिलती. कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले अपने रोजगार की शर्तें तय नहीं कर पाते. अपने इलाके के किसी भी चौकीदार से पूछ लीजिए- वे 12 घंटे की शिफ्ट से कहां बच पाते हैं... हफ्ते में एक छुट्टी भी नहीं मिल पाती. तनख्वाह भी इतनी कि बस गुजारा चल जाए. कर्मचारी की कैटेगरी में तो वे भी आते हैं. यह सिर्फ अपने देश की बात नहीं, हर देश की बात है. ग्लोबल होती दुनिया ने हर देश में एक से मेहनतकश पैदा किए हैं और उनकी गति भी सभी जगह एक सरीखी है.
खैर, जैक मा ने जिस बहस को छेड़ा है, उसके एकदम विपरीत है, न्यूजीलैंड के इंटरप्रेन्योर एंड्रयूज बार्न्स. उनकी कॉरपोरेट ट्रस्टी कंपनी परपेक्चुअल गार्डियन में फोर डेज़ वीक का चलन है. हालांकि एंड्रयूज ने इसे पिछले साल प्रयोग के तौर पर शुरू किया था. यह सोचकर कि क्या इससे कर्मचारियों को उत्पादकता बढ़ती है... इससे सचमुच कंपनी को फायदा हुआ इसलिए एंड्रयूज ने इसे एकदम अपना लिया. उनके कर्मचारी हफ्ते में चार दिन काम करते हैं और पांचवे दिन को वे लोग ‘पेड डे ऑफ’ कहते हैं. हाल ही में सीएनबीसी को दिए एक इंटरव्यू में एंड्रयूज ने कहा है कि इसका मतलब है, हम वर्किंग लॉन्गर नहीं, वर्किंग स्मार्टर को पसंद करते हैं. हफ्ते में 32 घंटे काम कीजिए- बाकी का समय ऐश कीजिए.परपेक्चुअल गार्डियन की ही तरह बर्लिन की प्रॉजेक्ट मैनेजमेंट कंपनी प्लानियो और अमेरिका की ग्रे न्यूयॉर्क नाम की एड एजेंसी भी अपने कर्मचारियों को फोर डे वर्क वीक दे रही हैं.
स्टडीज़ की मानिए तो औसत कर्मचारी हर दिन दो घंटे 53 मिनट ही प्रोडक्टिव तरीके से काम कर पाता है. यूके की एक साइट वाउचरक्लाउड ने 2017 में एक अध्ययन में ऐसा कहा था. 2018 में वर्कफोर्स इंस्टीट्यूट एट क्रोन्स ने अमेरिका, यूके और जर्मनी सहित आठ देशों में एक सर्वे किया और इस सर्वे में 3000 लोगों ने हिस्सा लिया. इनमें से आधे से ज्यादा लोगों का कहना था कि अगर कोई तीन-पांच न करे, तो वे हर दिन पांच घंटे में ही अपना खत्म कर सकते हैं. हालांकि उनमें से 49% का कहना था कि उन्हें ओवरटाइम करना पड़ता है. यह उनके लिए बहुत स्ट्रेसफुल होता है- पर क्या करें... ज्यादातर कंपनियों में ऐसा ही वर्क कल्चर है.
ओवरवर्क्ड यानी काम के बोझ से मारे लोगों पर ओईसीडी ने 2015 ने कुछ डेटा इकट्ठा किया था. उसमें कहा गया था कि तुर्की में सबसे ज्यादा 23.3% लोग हफ्ते में 60 घंटे के करीब काम करते हैं. यानी हर दिन करीब 12 घंटे. इसमें भारत का भी जिक्र था जहां 13% लोग इतने लंबे घंटों तक काम करते हैं. दिलचस्प बात यह है कि यह फॉर्मल सेक्टर का डेटा है. इनफॉर्मल यानी अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र तो इस स्टडी में शामिल ही नहीं हैं क्योंकि उनका डेटा इकट्ठा करना बहुत मुश्किल काम है. श्रम कानून की छांह से बहुत दूर, अंधे भविष्य के साथ रोजाना कोल्हू के बैल बनते ये लोग किसी मैट्रिक्स का हिस्सा बन ही नहीं पाते.
यूं मे डे जा चुका है. पर मजदूरों की बात करने के लिए किसी दिवस की जरूरत नहीं.इन पर हमेशा ही बात होती रहनी चाहिए. सवाल यह है कि 8 घंटे हर दिन या 40 घंटे हर हफ्ते के कॉन्सेप्ट की शुरुआत आखिर हुई ही क्यों? इसकी वजह यह थी कि मजदूरों को मालिकों के उत्पीड़न से बचाया ही जा सके. इसकी शुरुआत ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति से हुई थी. उस दौर में मजदूरों को 16 घंटे तक रोजाना काम करना पड़ता था, वह भी कई बार बिना साप्ताहिक छुट्टी के. बाल मजदूरी भी बहुत कॉमन थी. 1817 में लेबर यूनियन्स नेस्लोगन दिया- आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम, आठ घंटे मनोरंजन.जैसा कि मार्क्स ने दास कैपिटल में लिखा है, उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली काम के दिन को बढ़ाने के दिन के साथ-साथ न केवल मानव की श्रम शक्ति के विकास और कार्य करने के लिए आवश्यक साधारण नैतिक एवं शारीरिक परिस्थितियों से उसे वंचित करके उससे पतन के गड्ढे में धकेल देती है बल्कि खुद उसकी श्रम शक्ति को भी वह समय से पहले ही थका डालती है और उसकी हत्या कर देती है. वह किसी एक निश्चित अवधि में मजदूर का उत्पादन काल बढ़ाने के लिए उसके वास्तविक जीवन काल को छोटा कर देती है.
अगर हम लेबर को किनारे करेंगे, तो लेबर मार्केट का बंटाधार ही होगा. मार्केट इकोनॉमी पर अक्सर बहुत चर्चा होती है लेकिन कामगार ऐसा विषय है जिस पर ठहरकर सोचने के लिए हमें समय निकालना ही चाहिए. यह विडंबना ही है कि चीन जैसे कम्युनिस्ट देश के एक अरबपति ने काम के घंटों को बढ़ाने की वकालत की है.और यह और भी दुखद है कि मार्क्स के अनुयायियों ने सत्ता के मोह में खुद उनके रूमान को झुलसाकर रख दिया है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)