समिष्ठा राउत का चेहरा बार-बार जेहन में कौंध रहा है. 18 साल की इस बच्ची ने सिर्फ अंग्रेजी में कम नंबरों के डर से सुसाइड कर लिया. रिजल्ट आया तो अंग्रेजी में उसके सबसे ज्यादा नंबर थे- 100 में से 82. आप उसकी नासमझी पर गुस्सा कर सकते हैं. उसे मूर्ख कह सकते हैं लेकिन समिष्ठा इन अपशब्दों को सुनने के लिए जिंदा नहीं है. अब कोई उसे नहीं बता सकता कि उसके उस विषय में कितने नंबर आए हैं जिस विषय से वह घबराती थी. नंबर, आखिर नंबर ही तो हैं- किसी बच्चे की जिंदगी के आगे उनका क्या मायने है? क्या हममें से किसी को अपने दसवीं और बारहवीं के नंबर याद रहते भी हैं... कभी-कभार धूल झाड़कर मार्क शीट निकालते हैं तो एकाध मिनट नजर दौड़ाने के बाद उसे फिर धूल खाने के लिए छोड़देते हैं. लेकिन इन्हीं नंबरों के डर ने समिष्ठा को धूल में मिला दिया.
18 साल का कोई बच्चा सुसाइड क्यों करता है... ऐसी कौन सी स्थितियां हैं जो उसे ऐसा करने पर मजबूर करती हैं? घर वालों का प्रेशर, साथियों की अच्छी परफॉरमेंस, स्कूल वालों के ताने... नंबर कमाओ, क्योंकि जिंदगी में आगे बढ़ने का तरीका यही है. हर जगह टॉप पर... इसी से आगे एडमिशन मिलता है, नौकरी मिलती है, पैसा मिलता है. मिडिऑकर, औसत दर्जे के लोगों को कौन पूछता है. हर जगह धक्के खाने को मिलते हैं. पैसे से ही तय होता है कि आप कैसी जिंदगी जिएंगे. बच्चे को अक्सर लताड़ते हुए हम कहते हैं, पढ़ेगा-लिखेगा नहीं तो क्या घास छीलेगा? क्योंकि घास छीलने का श्रम बुरी बात मानी जाती है. शारीरिक श्रम करना दोयम दर्जे का काम माना जाता है. मानसिक श्रम सबसे ऊपर, बाकी सब धूल खाने की चीज.
समिष्ठा जैसे बच्चों की खबरें हर साल मिलती है. एक साल में कई बच्चे समिष्ठा हो जाते हैं. कई बार रिजल्ट के डर से और कई बार रिजल्ट जानकर उन्हें लगता है कि अब दुनिया रहने लायक बची ही नहीं है. दुनिया रहने लायक तब होती है, जब उसमें हर हुनर की कद्र हो. समिष्ठा पेंटिंग में बहुत अच्छी थी. कोई बच्चा संगीत में अच्छा होता है. किसी को खेलकूद में दिलचस्पी होती है. कोई पाक-काल में उस्ताद होता है. कोई फैशनपरस्ती का हुनर लेकर पैदा होता है. पर ये सब सिर्फ सॉफ्ट स्किल मान जाते है. करियर कोई भी बनाइए- पढ़ाई-लिखाई में अव्वल तो आना ही चाहिए. काश, किसी ने समिष्ठा से कहा होता- तुम्हारी पेंटिंग्स ही तुम्हारी असली शिक्षा है. शिक्षा का अर्थ है सीखना. महान दार्शनिक प्लेटो कह गए हैं कि शिक्षा का काम है व्यक्ति का विकास. वह ऐसा सिस्टम बनाने की बात करते थे, जहां 18 साल की उम्र तक हर इनसान को अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दी जाए. इस शिक्षा में संगीत और जिम्नास्टिक्स दोनों हों क्योंकि इससे आत्मा और शरीर, दोनों प्रशिक्षित होते हैं. लेकिन हमारे लिए संगीत, स्पोर्ट्स और समिष्ठा के लिहाज से देखा जाए तो पेंटिंग टाइम पास है. पेंटिंग करके, क्या आप इंजीनियर, डॉक्टर, बैंकर से ज्यादा कमाई कर सकते हैं? कमाई के लिए ही तो पढ़ाई की जाती है.
कमाई के लिए पढ़ाई करनी है तो नंबरों की दौड़ में दौड़ना ही होगा. बच्चे लगातार इस दौड़ में दौड़ रहे हैं. शिखऱ पर पहुंच भी रहे हैं. अब तो शिखर पर भी अव्वल आने वालों की भीड़ लगी हुई है. सीबीएसई के पिछले पांच सालों के बारहवीं के रिजल्ट्स बताते हैं कि 99 परसेंट से ज्यादा नंबर लाने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इस साल 500 में से 496 से ऊपर स्कोर करने वाले बच्चों की संख्या 23 है. इससे कम स्कोर करने वालों की तो जैसे कोई पूछ ही नहीं है. आईसीएसी के 12वीं के नतीजों में तो दो बच्चों ने शत प्रतिशत स्कोर किए हैं- मतलब 100 बटे 100. दसवीं के रिजल्ट्स में सेकेंड टॉपर्स यानी 400 में 399 लाने वाले 16 बच्चे हैं. इसके बाद 398 लाने वाले बच्चों की संख्या 36 है. रफ्तार बढ़ रही है, इसमें जो तेज नहीं दौड़ सकता है, वह हांफकर दम तोड़ रहा है.
टॉपर्स की इस भीड़ से शिक्षाविद भी घबरा गए हैं.एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार ने इसे बहुत खतरनाक मानते हैं, जब टॉप स्कोरर्स लगातार बढ़ रहे हैं.वह तो सवाल और मॉडल जवाब के पैटर्न पर ही सवाल खड़े करते हैं.चूंकि इस पैटर्न में स्कोर करना आसान है.अगर सवाल का मॉडल उत्तर दे दिया तो नंबर पूरे. ऐसे में जो ओरिजिनल और क्रिएटिव जवाब देता है, वह पिछड़ जाता है. जैसा कि सीबीएसई के पूर्व चेयरपर्सन अशोक गांगुली का कहना है कि इस ट्रेड के चलते बच्चों, स्कूलों और बोर्ड्स के बीच बेमतलब की होड़ मचती है. इसका शिकार समिष्ठा, जी धर्म राम, शिवानी जैसे बच्चे होते हैं. पिछले ही हफ्ते हैदराबाद के जी धर्म राम ने मैथ्स में फेल होने पर और दिल्ली की शिवानी ने बारहवीं की परीक्षा में तीसरी बार फेल होने पर सुसाइड कर लिया था.
हाई स्कोर मतलब, पढ़ाई में अच्छा होना- पढ़ाई का शौक. लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता. चूंकि इतने स्कोर के बावजूद उच्च शिक्षा में जाने वाले बच्चों की संख्या बहुत कम है. 2017-18 में ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन के अनुसार, उस साल 3.66 करोड़ विद्यार्थियों ने उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला लिया. इनमें 79 परसेंट तो अंडर ग्रैजुएट प्रोग्राम्स में गए लेकिन सिर्फ 0.5 परसेंट से भी कम ने डॉक्टरल या पीएचडी प्रोग्राम्स में दाखिला लिया. रिसर्च करने वाले स्टूडेंट्स का यह आंकड़ा 2010 से अब तक एक जैसा ही है. मतलब आगे पढ़ने के लिए स्कोर किए ही नहीं जाते. स्कोर किया जाता है अच्छा कमाने के लिए. ग्रैजुएट होकर सीधी नौकरी करो, ताकि कमाई की जा सके. अच्छे नंबर, अच्छा कोर्स- तो अच्छी और टॉप कंपनी में नौकरी और अच्छी और टॉप की कमाई. इस कमाई को खर्च करने के लिए चमचमाते मॉल- विदेशी रीटेल ब्रांड्स. डेबिट-क्रेडिट कार्ड- गूगल पे- जेब का माल, उन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खाते में, जिनकी नौकरियों में आप लाखों कमाएं- और फिर लाखों उड़ाएं.
इस जेनएक्स की खेप तैयार करने के लिए निजी शिक्षा संस्थान और कोचिंग सेंटर्स भी जुटे हुए हैं. लाखों की फीस चुकाकर चूहा दौड़ में दौड़ते रहो. इस दौड़ में फिसड्डी हो जाने वाले खेत हो जाते हैं. क्रिएटिविटी दराज में रख दी जाती है. लेकिन एक बात याद रखने लायक है. अगर समाज को इंजीनियर चाहिए तो फिल्में बनाना वाला भी और बस-ट्रैक्टर चलाने वाला भी. किसी क्रिकेट के धुरंधर को गणित की किताबों में दबाने से क्या हासिल होगा... इस रचनात्मकता को हमें भी समझना होगा, तभी हम बच्चों की जिंदगी और उनकी क्रिएटिविटी, दोनों को बचा पाएंगे.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)