Winter session: कहीं पूरा सत्र तलवारें भांजते ही न गुज़र जाए!
संसद का मानसून सत्र समाप्त होते-होते जीएसटी बिल के बल पर शीतकालीन सत्र तक का जो रास्ता काफी हद तक फूलों भरा हो गया था, केंद्र सरकार द्वारा की गई नोटबंदी से उपजे विकट हालात ने उस रास्ते पर कांटे बिछा दिए हैं. इसी का नतीजा है कि शीतकालीन सत्र विपक्ष द्वारा संसद के भीतर रोज़ युद्ध करते हुए बीत रहा है और आसार ऐसे लग रहे हैं कि कहीं 16 दिसंबर तक निर्धारित 22 बैठकों वाला यह पूरा सत्र ही तलवारें भांजते हुए न गुज़र जाए.
सत्र शुरू होने के पहले पीएम नरेंद्र मोदी ने अपील की थी कि राष्ट्रहित के मुद्दों पर सभी दलों को एक साथ होना चाहिए, लेकिन उनकी अपील पर विपक्ष कान देता नहीं दिख रहा. सदन के अंदर ‘पीएम जवाब दो’ के नारे गूंज रहे हैं और बाहर केजरीवाल व ममता बनर्जी तीन दिन के अंदर नोटबंदी वापस लेने के लिए धमका रहे हैं.
ऐसे में यह सत्र सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों के लिए भयंकर चुनौतियां पेश कर रहा है. वैसे भी मोदी सरकार के कार्यकाल में अब तक संपन्न संसद के सभी सत्रों में सत्ता पक्ष का जो अहंकारी रवैया और विपक्ष के प्रति असम्मान देखने को मिलता रहा है, उसे देखते हुए स्थिति विस्फोटक बने रहने की आशंका व्यक्त की जा रही है. शुरुआती दिनों में ही हंगामे और नारेबाज़ी के चलते लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही दो-दो बार स्थगित करनी पड़ रही है और आख़िरकार मामला अगले दिन पर टालने का रुटीन चालू हो गया है.
कहां तो विपक्ष सत्र के पहले दिन ही ओआरओपी, पाक के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के असली-नकली दावे, भोपाल जेल ब्रेक कांड, सिमी संदिग्धों का एनकाउंटर, गुजरात पेट्रोलियम कंपनी में हुए करोड़ों के घोटाले, व्यापम घोटाले की प्रगति, किसानों के खाद-बीज की समस्या, कश्मीर की अशांति, सीमा पार से गोलीबारी, दलित-उत्पीड़न, पूरे सिस्टम में बढ़ती साम्प्रदायिकता और तीन तलाक जैसे गंभीर मुद्दों की मिसाइलें दागने वाला था और सत्ता पक्ष उन्हें निष्फल करने के लिए जवाबी ढालें तैयार करने में जुटा था, और कहां सारी बहस नोटबंदी की सर्जिकल स्ट्राइक पर केंद्रित होकर रह गई है.
इतना ही नहीं, इस सत्र में जीएसटी के सहायक बिलों सहित नौ अन्य महत्वपूर्ण बिल पारित होने हैं, जिनमें सरोगेसी और इसके लिए राष्ट्रीय स्तर व राज्यों के बोर्ड बनाकर उन्हें नख-दंतयुक्त करने का मुद्दा भी शामिल है. मातृत्व लाभ और तलाक (संशोधन) के साथ आईआईएम के अधिकारों से जुड़े बिल भी इनमें शामिल हैं.
मोदी सरकार बनने के बाद यह पहला मौक़ा है जब पूरा विपक्ष एकजुट नज़र आ रहा है. हालांकि इस एकजुटता में भी दरारें स्पष्ट नज़र आ रही हैं. 8 नवंबर की रात जब हज़ार-पांच सौ के मौजूदा नोटों को चलन से बाहर करने की घोषणा हुई थी तब यह एकजुटता सिरे से नदारद थी. कुछ विपक्षी दलों ने तो इसका खुलकर और कुछ ने दबी ज़बान से स्वागत भी किया था.
मोदी जी से छत्तीस का आंकड़ा होने और लालू जी द्वारा नोटबंदी से पैदा हुए हालात की तुलना आपातकाल से किए जाने के बावजूद जेडीयू के सर्वेसर्वा और बिहार के सीएम नीतीश कुमार नोटबंदी के पक्ष में खड़े नज़र आए. सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव भी इस निर्णय को गलत नहीं बता सके. उन्होंने इतना ज़रूर जोड़ दिया कि लोगों को एक हफ़्ते की मोहलत मिलनी चाहिए थी. शुरू-शुरू में तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद ने भी कह दिया था कि वह विमुद्रीकरण के खिलाफ़ नहीं हैं. लेकिन दिनोंदिन हालात बेक़ाबू होते जाने से सारे विपक्षी दल आज अग्निवर्षा कर रहे हैं और आम आदमी को हो रही दिक्कतों के बहाने सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोडऩा चाहते.
सत्ता पक्ष के सामने दोहरी चुनौती है. विपक्ष के साथ-साथ उसे अपने सहयोगियों को भी संभालना मुश्किल हो रहा है. शिवसेना बालासाहब ठाकरे को याद करते हुए कह रही है कि अगर आज वह ज़िंदा होते तो नज़ारा कुछ और ही होता. उसका यह भी कहना है कि यदि सरकार के विरुद्ध जनता ने सर्जिकल स्ट्राइक कर दी तो मोदी जी को दिन में तारे नज़र आ जाएंगे. इतना ही नहीं, तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने चार दलों के साथ राष्ट्रपति भवन तक जो मार्च निकाला, उसमें शिवसेना के सांसद आनंदराव अडसुल भी शामिल थे.
मोदी जी के सामने संसद के अंदर से यूपी, पंजाब, गोवा और मणिपुर मतदाताओं तक सकारात्मक संदेश पहुंचाने की भी चुनौती है. इन राज्यों में अगले साल विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. उनकी नोटबंदी के चलते त्राहि-त्राहि कर रहे मतदाताओं का आक्रोश उन्हें ठंडा करना ही होगा. इसके लिए वह काला धन, भ्रष्टाचार और आतंकवाद की असाध्य बीमारी के खिलाफ़ नोटबंदी को रामवाण औषधि बताएगी. लेकिन यह तभी संभव होगा जब विपक्ष संसद के दोनों सदनों में मोदी सरकार को अपना मुंह खोलने दे.
यह विपक्ष की अग्निपरीक्षा का भी समय है. उसे जनता की परेशानियों को स्वर देने के साथ-साथ यह ध्यान भी रखना है कि उसकी अतिविरोध की नीति के चलते जनहित के बिल न लटक जाएं. विपक्ष को नोटबंदी से पहले के अपने एजेंडे में शामिल गंभीर मुद्दों को हरगिज़ नहीं भुलाना चाहिए. यह देखना भी दिलचस्प है कि जहां उत्तर, पश्चिम और पूर्वी भारत के सभी विपक्षी दल नोटबंदी को लेकर संसद में बवाल काट रहे हैं वहीं दक्षिण भारत उतना मुखर नहीं है. अगर दक्षिण के दल मुखर होने पाए तो केंद्र सरकार की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी. कुल मिलाकर यह शीतकालीन सत्र सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष, दोनों के लिए कड़ी चुनौतियां पेश कर रहा है लेकिन अभी तेल और तेल की धार देखना तो बाक़ी ही है.
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