तालिबान के राज में ही आखिर क्यों बनते हैं शिया मुस्लिम जुल्म का शिकार ?
अफगानिस्तान में तख्तापलट करके हुकूमत में आई तालिबानी सरकार को फिलहाल किसी भी मुल्क ने मान्यता नहीं दी है, लेकिन लगता है कि ये देश अब गृह युद्ध की तरफ बढ़ रहा है. शुक्रवार को एक शिया मस्जिद में हुए आत्मघाती बम धमाके में तकरीबन सौ लोगों के मारे जाने की खबर है और अमेरिकी सेना के देश छोड़ने के बाद यह सबसे बड़ा हमला है. अफ़ग़ानिस्तान के कुंदूज़ शहर की मस्जिद में हुए इस हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट यानीआईएस के (ख़ुरासान) गुट ने ली है. पिछले साल तक अफगानिस्तान की कुल आबादी 3.89 करोड़ थी और मोटे अनुमान के मुताबिक इसमें करीब 10 फीसदी शिया मुस्लिम है, जो अल्पसंख्यक की हैसियत में हैं. शिया मुसलमानों को निशाना बनाने के पीछे अक्सर सुन्नी मुस्लिम चरमपंथियों का हाथ माना जाता है. अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद आईएस के (ख़ुरासान) धड़े ने तालिबान के शासन का लगातार विरोध किया है और उसने देश के पूर्वी हिस्से में भी कई धमाकों को अंजाम दिया है. लेकिन इस हमले से ये साबित होता है कि अब उसने देश के उत्तरी हिस्से में भी अपनी बढ़त बना ली है.
हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने इस आतंकी हमले की निंदा करते हुए कहा है कि शुक्रवार को हुआ धमाका 'धार्मिक संस्थान को निशाना बनाकर इस सप्ताह में किया गया तीसरा जानलेवा हमला है' और यह 'हिंसा के ज़रिए परेशान करने वाले ढांचे' का एक हिस्सा है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने कहा कि आतंक का उद्देश्य कुछ भी हो, हमला कहीं पर भी किया गया हो, इसे न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता. आतंक के आकांओं को न्याय के कटघरे में खड़ा करने की जरूरत है.
बता दें कि अफगानिस्तान में शियाओं को लंबे वक्त से निशाना बनाया जाता रहा है. अतीत में उनकी कई रैलियों और अस्पतालों में भी बम धमाके किए गए हैं. अफगानिस्तान की कुल आबादी में शियाओं का जो हिस्सा है, उनमें से कई हजारा हैं. हजारा एक एथनिक ग्रुप है, जिसे अफगानिस्तान में बहुत जुल्म सहने पड़े हैं. साल 2017 में हुए एक ऐसे ही हमले में काबुल के पश्चिम में एक ISIS सुसाइड बॉम्बर ने शिया मस्जिद पर हमला किया था, जिसमें 55 लोगों की मौत हो गई थी. फिर पिछले साल मई में काबुल में सिलसिलेवार बम धमाके हुए, जिनमें हजारा शियाओं को निशाना बनाया गया था. इनमें 85 लोग मारे गए थे, वहीं तीन सौ से ज्यादा घायल हुए थे.
दरअसल, तालिबानियों को लगता है कि हजारा शुद्ध कौम नहीं है. हजारा शिया मुस्लिम हैं, जबकि तालिबान सुन्नी इस्लामिक आंदोलन. ऐसे में दोनों विचारधाराओं के बीच टकराव रहा है. दो दशक पहले भी जब अफगानिस्तान में पूरी तरह से तालिबानी शासन था, तब भी हजारा शियाओं पर भारी हिंसा हुई थी और जहां ये लोग रह रहे थे, वहां भुखमरी फैल गई थी.
कुछ यही हाल पाकिस्तान में भी है. सुन्नी-बहुल इस देश में हजारा समुदाय के लोगों को नीची नजर से देखा जाता है. इसके अलावा आतंकी संगठन ISIS ने भी सुन्नी चरमपंथ को बढ़ावा दिया ताकि ईरान से मुकाबला हो सके. ऐसे में हजारा लोगों पर आतंकी हमले बढ़ते ही चले गए. अक्सर ही हजारा खनन और सड़क मजदूरों पर हमले की खबरें आती रहती हैं.
तालिबान के सत्ता में आते ही वहां के शिया अल्पसंख्यकों पर खुद पर जुल्म होने का डर सताने लगा था. यही वजह थी कि सरकार बनने के हफ्ते भर बाद ही अफगानिस्तान के शिया उलेमा काउंसिल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिये दुनिया को इस डर के बारे में आगाह भी किया था. इसमें शिया धर्मगुरुओं ने तालिबान से मांग की थी कि वे सभी प्रकार की आस्था और फिरके (जातियां) वाले लोगों के साथ बराबरी का सलूक व इंसाफ करें. शिया काउंसिल ने तालिबान से महिलाओं और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का भी आह्वान करते हुए ये भी कहा था कि शिया समुदाय कभी भी हिंसा और युद्ध का समर्थन नहीं करता है, हम सब शांति चाहते हैं. शिया धर्मगुरुओं की तरफ से अगली सरकार में समाज के सभी तबकों की भागीदारी की मांग भी तालिबान के सामने रखी गई थी.
उल्लेखनीय है कि तालिबान ने अपने पिछले राज में जिस शिया नेता अब्दुल अली मजारी की हत्या कर दी थी, अब तीन महीने पहले ही मध्य बामियान प्रांत में उनकी प्रतिमा को तोड़ दिया गया है. अब्दुल अली भी हजारा समुदाय से थे और शियाओं के प्रमुख नेता के तौर पर जाने जाते थे.
तालिबान हजारा समुदाय को काफिर की श्रेणी में रखता है यानी वो इस समुदाय को मुसलमान नहीं मानता है. तालिबान के लोग सुन्नी मुसलमान हैं. ऐसे में अफगानिस्तान में तालिबान राज आने पर इस समुदाय ने अपनी सुरक्षा को लेकर जो बड़ी चिंता जाहिर की थी, उसे इन धमाकों ने हक़ीक़त में तब्दील कर दिया है. ऐसे में अन्तराष्ट्रीय बिरादरी को एकजुट होकर तालिबानी सरकार पर ये दबाव बनाना होगा कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित किये बगैर उससे बातचीत करने का कोई तुक नहीं है.
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