अमित शाह का 75 पार फॉर्मूला क्या 'जुमला' था....या अब राजनीतिक मजबूरी
दरअसल, बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में 360 से ज्यादा सीटें जीतने का टारगेट रखा है. इसकी रणनीति बनाते वक्त टॉप लीडरशिप समझ चुकी है कि मनचाहे नतीजे पाने के लिए बुजुर्ग और अनुभवी नेताओं को तरजीह देनी ही पड़ेगी.
बीजेपी नेता अमित शाह ने एक बार फिर शिगूफा छोड़ा है. इस बार अमित शाह ने पार्टी द्वारा बनाई गई गाइडलाइन 75 पार नेता रिटायर्ड यानी बुजुर्ग नेताओं को सरकार में सहभागिता से दूर करने की बात पर विराम लगा दिया. मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के तीन दिवसीय दौरे पर पहुंचे अमित शाह ने जब 75 साल के नेताओं को चुनाव में टिकट देने की बात कही तो मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रहे और उम्रदराज होने के नाते शिवराज मंत्रीमंडल से विदा हुए बाबूलाल गौर की बांछे खिल गई. लगातार 9 बार भोपाल की गोविंदपुरा विधानसभा सीट से जीत हासिल करने वाले बाबूलाल गौर के उस दर्द को अमित शाह ने दूर कर दिया जो उनके अनुभव के आगे उम्र की सीमा के चलते छोटा हो चला था. बीजेपी हाईकमान के रुख में इस लचीलेपन से पार्टी के 75+ के करीब 25 नेताओं में एक बार फिर सक्रिय राजनीति में लौटने की उम्मीद जग गई है. यह नेता खासकर, उन्हीं 15 राज्यों से हैं, जहां 2019 के आम चुनाव तक विधानसभा चुनाव होने हैं. शाह का बयान गुजरात, हिमाचल, कर्नाटक के इस साल और मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में अगले साल होने वाले चुनाव को साधता है. इसी के साथ मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम, अरुणाचल, तेलंगाना, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में भी चुनाव है जिसमें से अधिकरतर में बीजेपी या उसके सहयोगीयों की सरकार है. चतुर सुजान अमित शाह की रणनीति यह है कि मिशन 2019 और आगामी चुनावों में अनुभवी नेताओं का सहयोग मिलेगा साथ ही भितरघात का खतरा भी कम रहेगा. वहीं शाह के बयान के बाद कुछ दिनों बाद होने वाले केन्द्रीय मंत्रीमंडल विस्तार में पहली पीढी के नेताओं को जगह मिलने के संकेत भी दे दिया है. 75 पार होने वाले बीजेपी के कद्दावर नेताओं में सुमार बीएस येदियुरप्पा, शांताकुमार, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, प्रेम कुमार धूमल, गुलाब चंद कटारिया (72), अमरा राम (74) राजस्थान में मंत्री, ननकीराम कंवर (74) छत्तीसगढ़, भगत सिंह कोश्यारी (75) उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, हुकुमदेव नारायण यादव (77) बिहार से सांसद जिनका नाम उपराष्ट्रपति के लिए उछला था, सी.पी. ठाकुर (85) बिहार से सांसद वर्तमान में साइडलाइन हैं. यह और इन जैसे कई नेताओं के अनुभव को तरजीह मिली तो फिर एक बार सक्रिय हो सकते हैं. शाह के ताजा बयान के बाद इन नेताओ को अब केंद्र में मंत्री या राज्य में बड़ी भूमिका भी मिल सकती है. दरअसल, बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में 360 से ज्यादा सीटें जीतने का टारगेट रखा है. इसकी रणनीति बनाते वक्त टॉप लीडरशिप समझ चुकी है कि मनचाहे नतीजे पाने के लिए बुजुर्ग और अनुभवी नेताओं को तरजीह देनी ही पड़ेगी. इसलिए शाह ने बेहद चतुराई से अघोषित सिद्धांत में लचीलेपन का संकेत दिया है. हालांकि संविधान और क़ानून उम्र के आधार पर ऐसी किसी पाबंदी की बात नहीं करता अगर भारत और विदेशों में बुज़ुर्ग नेताओं पर सरसरी निगाह दौड़ाई जाए तो पता चलेगा कि उम्र और अनुभव, असल में एक अतिरिक्त विशेषता ही होती है. भारतीय राजनीतिक दृष्टी से देखे तो ऐसे बुजुर्ग नेताओं के किस्से भरे पड़े हैं जिन्होंने उम्र के इस विशेष पड़ाव पर आकर उपलब्धियों के पुल बांधे. बात पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की करें तो जब इंदिरा गांधी और संजय गांधी के प्रभाव को तोड़कर भारत के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने तो वे 81 साल के थे. देसाई एक गुजराती थे और अगले दो सालों तक उन्होंने कई उपलब्धियां हासिल कीं, मसलन 1971 के युद्ध के बाद पाकिस्तान से बिगड़ चुके संबंधों को पटरी पर लेकर आए और 1962 के युद्ध की खटास के बाद चीन के साथ राजनीतिक संबंध स्थापित किए. देसाई की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि उनकी सरकार ने लोकतंत्र में भरोसे को बढ़ाया. उनकी सरकार ने कुछ क़ानूनों को रद्द कर दिया जिन्हें इमरजेंसी के दौरान पास किया गया था. इसके साथ ही उनकी सरकार ने आने वाली किसी भी सरकार के लिए इमरजेंसी लागू करने को कठिन बना दिया. हालांकि ये एक अलग कहानी है कि 1979 में चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी के गठबंधन से समर्थन वापस ले लिया और मोरारजी देसाई को 15 जुलाई 1979 को अपने पद से इस्तीफ़ा देने को मज़बूर कर दिया. चरण सिंह ने जब प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो वो खुद 79 साल के थे. असल में ये पूरा आंदोलन इंदिरा और इमरजेंसी के ख़िलाफ़ 70 वर्षीय जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलाया गया था, ठीक उसी तरह जैसे डॉ मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ इंडिया अगेंस्ट करप्शन का आंदोलन 75 साल के बुजुर्ग अन्ना हज़ारे ने चलाया. विंस्टन चर्चिल संभवत: ब्रिटेन के अब तक के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री रहे. 1951 में चुनावों में कंज़रवेटिव पार्टी की जीत के बाद जब उन्होंने दोबारा पद संभाला तो उनकी उम्र 76 साल थी. 1951 से लेकर 1955 तक, जब उन्होंने इस्तीफ़ा दिया, तब उन्होंने तबाह हुए यूरोप को पटरी पर लाने में मदद की थी. कभी एकछत्र राज करने वाले ब्रितानी साम्राज्य की लगातार गिरती साख को उन्होंने बहुत होशियारी से संभाला. कई लोगों का मानना है कि साढ़े तीन साल के अपने इस कार्यकाल में 20वीं सदी के महान नेताओं में उन्होंने जगह पक्की कर ली और ब्रितानी लोगों के दिलों में उन्होंने हमेशा के लिए जगह बना ली. अभिनेता से नेता बने रोनॉल्ड रीगन अमरीका के 239 सालों के इतिहास में सबसे बुज़ुर्ग राष्ट्रपति बने. उस समय उनकी उम्र 69 थी. अगर और पीछे जाएं तो रीगन को अमरीका का अब तक के सबसे बेहतरीन राष्ट्रपति के रूप में देखा जाता है. साल 2011 में गैलप पोल में 1,015 अमरीकियों से पूछा गया कि वे किस अमरीकी राष्ट्रपति को महान मानते हैं, तो 19 प्रतिशत ने रीगन को वरीयता दी, जबकि अब्राहम लिंकन को 14 प्रतिशत, बिल क्लिंटन को 13 प्रतिशत, जॉन एफ़ केनेडी को 11 प्रतिशत, जॉर्ज वाशिंगटन को 10 प्रतिशत ने वरीयता दी. भारत में ही देखें तो वीरभद्र सिंह 78 साल के थे जब उन्होंने दिसंबर 2012 में हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को ऐतिहासिक जीत दिलाई. ये उन्होंने तब कर दिखाया जब कांग्रेस की जीत की संभावना कम थी. निजी तौर पर अधिकांश कांग्रेसियों ने माना था कि इस पहाड़ी राज्य में जीत पार्टी के मुक़ाबले वीरभद्र की ज़्यादा है. अगर कांग्रेस की कार्यशैली पर नज़र दौड़ाएं तो ये दिखाता है कि कैसे ग़ुलाम नबी आज़ाद, कमल नाथ, अमरिंदर सिंह और शीला दीक्षित जैसे पुराने अनुभवी नेता, राहुल गांधी के क़रीब रहने वाले नौजवान नेताओं पर भारी हैं. ये तो थी विश्व और भारतीय राजनीतिक परिदृश्य की बात लेकिन भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक निर्णयों में पीएम नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद अघोषित और अलिखित कानून को सख्ती से अपने कैडर पर लागू किया है. भाजपा ने देश भर की अपनी सभी ईकाइयों को जिसके केन्द्र और राज्य शामिल है, बता दें कि सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने एक नियम बनाया है जिसके तहत 75 की उम्र के ज्यादा के नेताओं को गवर्नर और नॉन एक्गीक्यूटिव पद दिये गये हैं. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी के ऐसे नेताओं के लिए मार्गदर्शक मंडल गठित कर दिया है. 75 की उम्र पार कर चुके पार्टी के कद्दावर नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी इसके सदस्य हैं. साथ ही पार्टी ने 75 पार नेताओं को बीजेपी की दो सबसे शक्तिशाली निर्णय लेने वाली संस्था संसदीय बोर्ड और केन्द्रीय चुनाव समिति से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया है. बीजेपी शासित राज्यों में भी यही फॉर्मूला अपनाया गया. गुजरात में मुख्यमंत्री रहीं आनंदीबेन पटेल को 75 की उम्र पार होते ही कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. उन्होंने यह आयु सीमा पूरी होने से महीने पहले ही पद छोड़ दिया था. फेसबुक पोस्ट में उम्र ही उन्होंने इस्तीफे की वजह बताई थी. बीजेपी के बुजुर्ग नेताओं की बात करें तो एक लम्बी फेहरिस्त है जिसमें अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री रही नज़मा हेपतुल्ला, यशवंत सिन्हा, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी, जसवंत सिंह, अरूण शौरी, लालजी टंडन, कल्याण सिंह, केशरीनाथ त्रिपाठी जैसे वरिष्ठ नेताओं को उम्र की वजह से सक्रिय राजनीति से दूर होना पड़ा. हालंकि इनमें से कुछ नेताओं को या तो राज्यपाल बना दिया गया या फिर उनके पुत्रों को टिकिट देकर संतुष्ट करने की कोशिश की गई. वहीं भोपाल की अपनी यात्रा के दौरान अमित शाह ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि 75 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को चुनाव नहीं लड़ाने का पार्टी में कोई नियम नहीं है. न ही ऐसी कोई परंपरा है. “न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बंधन, कोई जब प्यार करे तो देखें केवल मन” इंदीवर का लिखा यह गाना गौर साहब ही नहीं बुजुर्ग नेता सरताज सिंह और कई बुजुर्ग पार्टी नेताओं पर खूब भाया होगा जब अमित शाह ने 75 पार की सीमाओं को तोड़ने वाली बात सार्वजनिक रूप से कही. शायद यह शाह की राजनीतिक या कहे कि आगामी चुनावी मजबूरी ही है जो उन्हें अब अपनी पार्टी के बुजुर्ग नेताओं को तबज्जो देनी पड़ रही है जिनका कभी उनके अध्यक्ष रहते अनादर हुआ है. बीजेपी के बुजुर्ग नेताओं को जिगर मुरादबादी का यह शेर : “गुदाज़-ए-इश्क़ नहीं, कम जो मैं जवाँ न रहा. वही है आग मगर, आग में धुआँ न रहा..“
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