संसद में तमाम खींचतान के बीच सरकार एंटी ट्रैफिकिंग पर एक बिल पिछले महीने लेकर आई है. ट्रैफिकिंग मतलब, स्मलिंग और जब माल की बजाय लोगों की स्मगलिंग होने लगे, तो समझा जा सकता है कि हमारी हालत क्या है. यह एक क्राइम है, दुनिया भर में हर जगह और इसीलिए नए संशोधित कानून की जरूरत महसूस की जा रही है. संशोधित इसलिए क्योंकि ह्यूमन ट्रैफिकिंग यानी मानव तस्करी पर पहले से दो कानून मौजूद हैं. अनैतिक तस्करी पर 1956 का कानून और आईपीसी का सेक्शन 370. नया कानून इसलिए चाहिए क्योंकि 1956 का कानून सिर्फ कमर्शियल यौन शोषण के लिए तस्करी को क्रिमिनलाइज करता है. सेक्शन 370 भी काफी छोटा है और सिर्फ तस्करी और सजा की बात करता है.
तस्करी के शिकार लोगों की मदद की जा सके, इसके लिए नया विधेयक लाया गया है. इसमें पीड़ितों के पुनर्वास का प्रावधान है. सजा कड़ी की गई है और ट्रैफिकिंग के एग्रेवेटेड यानी गंभीर रूपों को इसमें शामिल किया गया है.लोकसभा में विधेयक पारित हो गया है और अब राज्यसभा में मंजूरी के लिए भेजा जाना है. ह्यूमन ट्रैफिकिंग, जैसा कि विधेयक भी कहता है, एक व्यापक पर अदृश्य अपराधों में से है, और समाज के सबसे कमजोर लोगों, खासकर औरतों और बच्चों को प्रभावित करता है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के डेटा का कहना है कि 2016 में देश भर में मानव तस्करी के कुल 8,132 मामले रिपोर्ट किए गए और 23,117 लोगों को छुड़ाया गया. इनमें से 58% लोगों की उम्र 18 साल से कम की थी. यानी वे बच्चे ही थे. वैसे मानव तस्करी संविधान के अनुच्छेद 23 (1) के तहत बैन है. इसमें बंधुआ मजदूरी कराना, यौन उत्पीड़न या वेश्यावृत्ति, घर पर गुलाम बनाकर रखना, जबरन शादी करना, भीख मंगवाना, गोद लेना, बच्चों की पोर्नोग्राफी करना और ऑर्गन ट्रांसप्लांट सभी शामिल हैं.
नया विधेयक कई तरह की पहल करता है. यह ट्रैफिकिंग के मामलों की जांच के लिए एक नेशनल एंटी ट्रैफिकिंग ब्यूरो बनाता है. ब्यूरो के कामों में नोन रूट्स की मॉनिटरिंग करना और सोर्स, ट्रांसिज और डेस्टिनेशन प्वाइंट्स पर नजर रखना है. कानून के तहत राज्य स्तर पर भी नोडल ऑफिसर नियुक्त किए जाएंगे और वे ही पीड़ितों को राहत और पुनर्वास देंगे. जिला स्तर पर एंटी ट्रैफिकिंग यूनिट्स बनाई जाएंगी. ये लोगों का बचाव करेंगी और पीड़ितों और गवाहों को सुरक्षा देंगी. जिन जिलों में ये यूनिट्स फंक्शनल नहीं होंगी, वहां स्थानीय पुलिस स्टेशन ये काम करेंगे. विधेयक में एंटी ट्रैफिकिंग राहत और पुनर्वास कमिटीका भी प्रावधान है. कमिटी पीड़ितों को मुआवजा देगी, उन्हें अपने देश या राज्य भेजेगी. उन्हें मेनस्ट्रीम में लाएगी.विधेयक के तहत पीड़ितों के लिए प्रोटेक्शन हाउस बनाए जाएंगे जहां उन्हें शेल्टर, खाना, काउंसिलिंग और मेडिकल सेवाएं दी जाएंगी.
बेशक, इस विधेयक के जरिए महिला और बाल विकास मंत्री ने अच्छा काम किया है लेकिन फिर भी कुछ लूपहोल्स की बात भी बार-बार उठ रही है. चाइल्ड वेल्फेयर के लिए काम करने वाले, सेक्स वर्कर्स के नुमाइंदे इस बिल को लेकर परेशान हैं क्योंकि उन्हें लग रहा है कि इसमें कुछ बदलाव किए जाने की जरूरत है. सबसे पहले प्रोटेक्शन हाउस को लेकर दिक्कत जताई जा रही है. मानव तस्करी के शिकार एडल्ट लोगों को प्रोटेक्शन हाउस में प्रशासन की तरफ से रखना, उन्हें और शोषण का शिकार बना सकता है. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने राइट टू प्राइवेसी वाले मामले में फैसला सुनाते समय निर्णय लेने की स्वायत्तता (डिसीज़नल ऑटोनॉमी) को दोहराया था. ह्यूमन ट्रैफिकिंग की शिकार सेक्स वर्कर्स के लिए सहमति बहुत मायने रखती है. वे अज्ञानी और निर्णय लेने में अक्षम कमअक्ल नहीं है. उन्हें कस्टोडियल इंस्टीट्यूशंस में रखने से पहले उनकी सहमति की भी जरूरत है. यह सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के ठीक उलट है. भले ही मामला तस्करी के शिकार लोगों का ही क्यों न हो.
इसे एक स्टडी से समझा जा सकता है. यह स्टडी महाराष्ट्र के एक एनजीओ संग्राम और सेक्स वर्कर्स के कलेक्टिव वैंप ने की थी. इस स्टडी में रेड लाइट एरिया में रेड के दौरान पकड़ी गई 243 औरतों से बातचीत की गई. इनमें से 193 औरतें एडल्ट थीं और अपनी मर्जी से यह काम कर रही थीं. वे रीहैब होम्स नहीं जाना चाहती थीं. लेकिन रेड के बाद उन्हें जबरन वहां रखा गया. नए विधेयक में ये हालात सेक्स वर्कर्स के लिए और भी बुरे हो सकते हैं.
जाहिर सी बात है, विधेयक सिर्फ सजा देने के लिए नहीं, अधिक सामाजिक-आर्थिक संरक्षण और सशक्तिकरण करने के लिए भी तैयार किया जाना चाहिए. उसे समाज के हिसाब से प्रासंगिक होना चाहिए, उसकी सामाजिकता की वजह से उसे तैयार किया जाना चाहिए. पर यहां पीड़ित के साथ-साथ उसके घर वालों के भी लपेटे जाने की आशंका है. वह इस तरह कि विधेयक में बार-बार शोषण की जगह का जिक्र किया गया है. यह पीड़ित का घर भी हो सकता है. हो सकता है कि उसके माता-पिता भी इस शोषण का हिस्सा बना दिए जाएं. भले ही उन्हें इसके बारे में पता न हो. उनका घर सील हो सकता है, उन्हें सजा हो सकती है. चूंकि तस्करी के बारे में जानकारी होने पर भी सजा की बात कही गई है. इससे इस प्रावधान का दुरुपयोग किया जा सकता है, क्योंकि जानकारी न होना, इसे साबित करना इतना आसान नहीं है. गरीब आदमी के लिए तो बिल्कुल भी नहीं.
यह भी है कि ह्यूमन ट्रैफिकिंग के ज्यादातर शिकार गरीब परिवारों के ही होते हैं. उनकी हालत को समझने की सलाहियत हो तो उनकी समस्याएं साफ नजर आएंगी. उन हालात को बदलने से ही किसी क्राइम को रोका जा सकता है. फिर राज्यों में एंटी ट्रैफिकिंग यूनिट्स के नाम पर नौकरशाहों की एक फौज तैयार की गई है लेकिन इन इकाइयों में पीड़ितों का कोई किसी प्रतिनिधि शामिल नहीं.
खैर एंटी ट्रैफिकिंग बिल फिलहाल लोकसभा में पारित हो चुका है. पर इस पर विचार किए जाने की जरूरत है. इसके लिए इसे स्टैंडिंग कमिटी को भेजा जा सकता है. तमाम स्टेकहोल्डर्स से बातचीत के बाद जो प्रस्ताव रखे जाएं, उन पर सोचा जाना चाहिए. मसला बहुत बड़ा है, और इस पर तुरत-फुरत के फैसले लेना अक्लमंदी नहीं होगी.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)