Blog: क्या जम्मू और कश्मीर में वार्ताकार की नियुक्ति महज एक दिखावा है?

जम्मू और कश्मीर में ‘आयरन हैंड’ द्वारा कारतूस के हजारों खोखे खाली कराने के बाद केंद्र की एनडीए सरकार ने जब वार्ताकार नियुक्त करने का फैसला किया तो सभी संबंधित पक्षों का चौंकना स्वाभाविक था. ऐसा इसलिए हुआ कि अब तक बीजेपी ने खुली नीति बना रखी थी कि आतंकवादियों की कमर तोड़ने से पहले घाटी में किसी पक्ष से कोई बातचीत नहीं होगी. तो क्या यह मान लिया जाए कि इस चिर-समस्याग्रस्त राज्य से आतंकवादियों का सफाया हो चुका है? सारे पत्थरबाज़ ख़त्म हो चुके हैं? अलगाववादी हमेशा के लिए ख़ामोश हो चुके हैं? पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज़ आ चुका है? लेकिन अगर सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत की मानें तो वार्ताकार की नियुक्ति होने के बावजूद राज्य में सेना के अभियान जरा भी प्रभावित नहीं होंगे.
एक दृष्टि से यह विरोधाभासी स्थिति है. अगर केंद्र सरकार की अपनाई गई कठोर नीति इतनी ही कारगर होती तो वार्ताकार नियुक्त करने की जरूरत ही नहीं थी और दूसरी ओर सेनाध्यक्ष को सैन्य अभियान पूर्ववत् चलाते रहने की बात करने की आवश्यकता नहीं पड़ती. लेकिन केंद्र सरकार तय ही नहीं कर पा रही है कि सिर्फ हॉट-पर्स्यूट से काम लिया जाए या वार्ता की जाए या दोनों काम साथ-साथ किए जाएं! वैसे राज्य सरकार में बीजेपी की सहयोगी पार्टी पीडीपी लगातार यह मांग करती रही है कि पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के नक्शेक़दम पर सभी पक्षकारों से वार्ता की राह पर आगे बढ़ा जाए, लेकिन केंद्र सरकार अभी तक गैर-समझौतावादी रवैए पर अड़ी हुई थी. अब नए वार्ताकार की नियुक्ति को आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पूर्व सदस्य और बीजेपी के मौजूदा महासचिव राम माधव केंद्र सरकार का बहुआयामी दृष्टिकोण करार दे रहे हैं.
हालांकि यह कोई पहली बार नहीं है जब किसी केंद्र सरकार ने इस तरह का तथाकथित बहुआयामी दृष्टिकोण दिखाया हो. कांग्रेस ने कई बार वार्ताकार नियुक्त किए, उनकी हजारों पन्नों की रपटें आईं लेकिन समस्या सुलझने की जगह और उलझती ही गई. केसी पंत, एनएन वोहरा, दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एमएम अंसारी भी पूर्व में ऐसी कई वार्ताएं कर चुके हैं, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. अब जब खुफिया ब्यूरो (आईबी) के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को केंद्र सरकार ने वार्ता प्रक्रिया शुरू करने के लिए अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया है तब भी बहुत ज्यादा उम्मीद बांधना अस्वाभाविक ही होगा. इसकी एक प्रमुख वजह यह भी है कि केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह स्पष्ट रूप से यह नहीं बता रहे कि प्रमुख अलगाववादी संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से बातचीत होगी या नहीं! वह यही कह रहे हैं कि यह वार्ताकार को तय करना है कि किससे बात करनी है और किससे नहीं. जबकि यह पूरी तरह स्पष्ट है कि जम्मू और कश्मीर की समस्या को सुलझाने के लिए हुर्रियत के नेताओं से बात किए बिना कोई ठोस और स्थायी समाधान नहीं निकाला जा सकता.
समस्या यह भी है कि अलगाववादी गुट ऐसे किसी वार्ताकार से बात ही नहीं करना चाहते जो कश्मीर को विवादित क्षेत्र न माने. उनकी यह जिद भी रहती है कि पाकिस्तान को भी वार्ता में शामिल किया जाए और वार्ता प्रधानमंत्री अथवा कैबिनेट समिति के स्तर की हो. इसीलिए इन गुटों ने पहले के वार्ताकारों को कभी घास नहीं डाली. इस बार भी वे अपने पाकिस्तानी आकाओं के इशारे पर ही नाचेंगे और यदि वार्ताकार पहल भी करेगा तो सामने नहीं आएंगे. लेकिन इससे बीजेपी को फायदा यह होगा कि वह संवाद न शुरू करने के आरोप से मुक्त हो जाएगी.
लाल किले की प्राचीर से इस बार स्वतंत्रता दिवस पर जब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि कश्मीर की समस्या का समाधान न गोली से होगा और न गाली से होगा, बल्कि कश्मीरियों को गले लगाने से होगा, तो आशा जगी थी. लेकिन हाल ही में बीजेपी ने पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम के आर्टिकल 370 और इसमें किए गए वादे के अनुसार कुछ क्षेत्रों में ज्यादा स्वायत्तता देने पर विचार करने के बयान को लेकर जैसा आक्रामक रुख अपनाया है, उससे यही जाहिर होता है कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और हैं. चिदंबरम ने जम्मू और कश्मीर को भारत से अलग करने की कोई बात नहीं की लेकिन केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने उन्हें अलगाववादियों और कश्मीर की आज़ादी का समर्थक करार दे दिया. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उसे भारत के राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचाने वाला बयान बताया और अब चुनावी रैलियों में खुद पीएम मोदी इसे कांग्रेस की सड़ी हुई सोच कह रहे हैं! इससे भी शर्मनाक बात यह है कि खुद कांग्रेस ने चिदंबरम के बयान की पूरी भावना समझे बगैर उनके बयान से किनारा कर लिया.
बीजेपी और कांग्रेस दोनों को स्पष्ट करना चाहिए कि अगर केंद्र सरकार के वार्ताकार जम्मू-कश्मीर के विभिन्न पक्षकारों से स्वायत्तता के मुद्दे पर विचार-विमर्श नहीं करेंगे, जो कश्मीरियों का प्रमुख मुद्दा है तो क्या कश्मीर के सेबों पर वार्ता को केंद्रित करेंगे! और अगर स्वायत्तता पर बात नहीं होगी तो वहां के निवासियों की ‘वैध आकांक्षाओं’ का पता कैसे चलेगा, जिस प्रमुख कार्य के लिए उन्हें नियुक्त किया गया है? प्रश्न यह भी कुलबुलाता है कि क्या स्वायत्तता की चर्चा छेड़ने पर वार्ताकार महोदय को केंद्र की एनडीए सरकार के मंत्री राष्ट्रतोड़क घोषित कर देंगे, जैसा कि चिदंबरम के मामले में हो रहा है? और खुद राज्य सरकार में बीजेपी के साथ शामिल पीडीपी से क्या वार्ता होगी जो जम्मू-कश्मीर में स्वशासन, अनियंत्रित सीमा और सैन्य वापसी की खुलकर हिमायत करती है?
दरअसल केंद्र सरकार का यह कदम भ्रमित करने वाला है. ऐसे समय में जबकि आईएसआईएस द्वारा कश्मीर घाटी में युवाओं का तालिबानीकरण किए जाने की मुहिम के बावजूद भारत की एनआईए जेहादी आतंकवाद की फंडिंग पर अंकुश लगाने में कामयाब हो रही है, पत्थरबाजों के हौसले पस्त हो रहे हैं, कई दुर्दांत आतंकवादी ढेर किए जा चुके हैं, वार्ताकार की नियुक्ति करना सूझ-बूझ का नहीं बल्कि अगंभीरता, लक्ष्यहीनता, निरर्थकता और दुविधा का द्योतक माना जाएगा.
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