BLOG: शायद इसीलिए अरविंद केजरीवाल को 'अराजक' कहते हैं !
चुनाव आयोग पर निशाना साधते हुए उन्होंने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया उससे ना सिर्फ किसी भी संवैधानिक संस्था की साख गिरती है बल्कि इससे लोगों का लोकतंत्र में भरोसा भी डिगता है. एक राज्य के मुख्यमंत्री होने के नाते अरविंद की ये भी जिम्मेदारी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में वो आस्था रखें ना कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए अनर्गल बयानबाजी करते रहें. सोचिए जरा अरविंद केजरीवाल ने चुनाव आयोग को धृतराष्ट्र तक बता दिया. वो कहते हैं, "चुनाव आयोग धृतराष्ट्र बन गया है और अपने बेटे दुर्योधन को साम, दाम, दंड, भेद के जरिए सत्ता में पहुंचाना चाहता है. चुनाव आयोग का मकसद चुनाव कराना नहीं बल्कि चुनाव का नाटक कर बीजेपी को सत्ता में पहुंचाना हो गया है"
सवाल ये आखिर क्यों अरविंद अभी भी सिर्फ आरोपों की राजनीति करना चाहते हैं? एक तरफ इस सिस्टम का हिस्सा बन वो सत्ता सुख भोग रहे हैं और दूसरी तरफ इसी सिस्टम को अराजक साबित करने में भी जुटे हैं. हार जीत चुनावी राजनीति का हिस्सा है. जनता कभी किसी को सिर माथे पर बिठाती है तो कभी उसे पैदल भी कर देती है. जब अरविंद प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली का चुनाव जीते. आम आदमी पार्टी ने 67 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया तब तो उन्होंने ईवीएम पर सवाल खड़े नहीं किए.
आखिर तब उन्हें चुनाव आयोग दुर्योधन को जिताने के लिए अधर्म का सहारा लेने वाला क्यों नहीं लगा? ऐसी भी क्या हार की हताशा कि आप जनादेश का अपमान करते हुए उसे मशीनी गड़बड़ी से जोड़ दें. हालांकि पूर्व में भी ईवीएम को लेकर सवाल खड़े हो चुके हैं. विपक्ष में रहने पर खुद बीजेपी के बड़े नेता भी इसे लेकर शक जाहिर कर चुके हैं. ऐसे में अगर कोई संदेह है तो निश्चित तौर पर इसकी जांच होनी चाहिए. मामला कोर्ट में भी है. अरविंद को पूरा हक है कि अगर ईवीएम में गड़बड़झाला है तो वो उसकी जांच की मांग करें.इसके लिए तमाम लोकतांत्रिक रास्ते अख्तियार करें, न्यायपालिका में गुहार लगाएं लेकिन सीधा सीधा एक संवैधानिक संस्था को धृतराष्ट्र कह देना और ये कहना कि वो एक पार्टी विशेष को जिताने में लगी है, कहां तक जायज है?
दरअसल अरविंद केजरीवाल की राजनीति की धुरी नकारात्मक सोच की नजर आती है.मन मुताबिक काम हो तो बहुत अच्छा वरना कोई शख्स हो या फिर संस्था उसे सिरे से खारिज करने और नीचा दिखाने की प्रवृत्ति है अरविंद केजरीवाल की. अपनी राजनीति चमकाने में वो ये भूल जाते हैं कि राजनीतिक पार्टियों की हार जीत का सिलसिला तो जारी रहेगा लेकिन इस लड़ाई में लोकतंत्र को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाने वाले चुनाव आयोग की बदनामी नहीं होनी चाहिए नहीं तो इसके दूरगामी परिणाम भयावह हो सकते हैं.
वैसे हाल के दिनों में ये चलन बढ़ा है,जनादेश का सम्मान करने की बजाए पतली गली से निकलने के रास्ते तलाशो.इसी कड़ी में बीएसपी सुप्रीमो मायावती का बयान भी देखा जा सकता है जिन्होंने यूपी में हार के लिए ईवीएम को जिम्मेदार बता दिया.ऐसे में उन्हें अपनी पूर्व में जीत का क्रेडिट भी फिर ईवीएम को ही देना चाहिए था. अगर ईवीएम ही जीत हार तय कर रहा है तो फिर हाल में पंजाब में कांग्रेस की सरकार कैसे बन गई?बीजेपी अकाली दल को बुरी तरह से मुंह की क्यों खानी पड़ी?
केजरीवाल सड़क के रास्ते संघर्ष के बाद बनी पार्टी के मुखिया हैं.उनसे तमाम उम्मीदें थीं.बदलाव की,नई राजनीति की लेकिन ये बात हैरान करती है कि उन्हें खुद तो जमकर सवाल खड़े करने की आदत है लेकिन उन पर सवाल खड़े हों तो वो आपा खो देते हैं.ऐसा लगता है उनकी लोकतांत्रिक मूल्यों से ज्यादा खुद में आस्था है.
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