हमारे यहां बहुत से फैसले अफवाहों के आधार पर किए जाते हैं- तो एक बार फिर ऐसा हुआ. बिहार के आरा जिले के बिहिया कस्बे में एक औरत रुसवा हुई. हत्यारिन समझी गई, इसलिए उसके कपड़े नोंच फेंके गए. नचनिया थी- पतुरिया थी शायद- सो, भीड़ ने उसके तमाशे का लुत्फ उठाया- जिसे गालिब ने शबो रोज तमाशा मेरे आगे कहा था, वह उससे अलग कुछ नहीं था. औरत रोज कहीं न कहीं तमाशे का सबब बनती है. हम खबरें सुन-सुनकर आखिर में कान बंद कर देते हैं. सब कुछ फिर हमेशा की तरह नॉर्मल हो जाता है. यही नॉर्मल हो जाना अबनॉर्मल है. हम सब अबनॉर्मल हो गए हैं.


चांदमहल जहां वह औरत रहती थी, थियेटर वालियों, नाच-गाना करने वाली औरतों की रिहाइश है. किसी लड़के की हत्या का शक था, तो भीड़ ने मिलकर उसे ही आग लगा दी. माना जाता था, कि वहां देह व्यापार होता था. सो, गुनाहगार औरतों की क्या इज्जत. एक को खींचा, उसे सड़क पर दौड़ाया- कपड़े उतारकर. उफ्फ... लिखने में तकलीफ होती है, पर देखने वालों को देखने में तकलीफ नहीं हुई. भीड़ के आगे कौन बोले... भीड़ का अपना संविधान, अपना कानून होता है. खतरे को भांपकर सामान्य मानवीय प्रवृत्ति अपने खोल में सिकुड़ने की होती है. आसान उपाय की तरफ भागने का लोभ होता है. यहां आसान उपाय वीडियो बनाना था. हर बार ऐसे हादसों में आसान उपाय अपनाया जाता है. फिर मैसेज-मैसेज खेलकर दूसरे के साथ इस उपाय को साझा किया जाता है.इस बार भी ऐसा ही हुआ. औरत की तस्वीर ब्लर कर दी गई- बाकी तस्वीरें खूब सर्कुलेट हुईं. हम छटपटाते रहे- खबर पढ़कर- तस्वीर देखकर. क्या कर सकते हैं?


औरत बदनाम थी- एक दिलजले ने कहा. बदनाम औरत की क्या बदनामी. न होती तो भी क्या था. औरत तो थी. औरत को कोई भी सजा इसी तरह दी जाती है. कपड़े नोचकर. जिस्म को रौंदकर. सीधे अस्मिता पर सोंटी से सटाक!! इसी तरह उसे समझाया जाता है कि तुम्हारी देह ही तुम्हारी शर्मिन्दी की सबसे बड़ी वजह है.तुम्हारा औरत होना ही यहांसबसे बड़ी खतरे की घंटी है. औरत बनी हो तो झेलो. तुम हैंगर हो, जिस पर समाज अपनी शर्म के कपड़े डालता है. कपड़े उतर गए तो हैंगर नंगा हो गया. तौबा-तौबा. नंगा करने वाले जीत गए, नंगा होने वाला शर्म से रसातल में चला गया. उसका वहां से निकलना आसान नहीं.


अक्सर लड़कियां उस रसातल से बाहर निकलती ही नहीं. 15 साल की नन्ही बच्ची ने इस हफ्ते बदायूं में इसी वजह से फांसी लगा ली. बीते हफ्ते हरियाणा के जींद में भी ऐसा ही एक किस्सा दोहराया गया, जब लड़की ने रेप और ब्लैकमेलिंग के चलते जहर खा लिया. शामली में एक औरत ने आत्महत्या की कोशिश की. भीतर कहीं विश्वास था, कि अब इन्साफ मिलने वाला नहीं. भीतर कही शुचिता बोध की ऐसी प्रोग्रामिंग की गई थी कि सब टूटता सा जान पड़ा. बिहिया की औरत भी रसातल में है. अस्पताल में अधमरी सी, अपना इलाज करा रही है. इलाज शरीर से ज्यादा मन का होना है. मन अधमरा है क्योंकि वह मानो अपनी यौनिकता की पहरेदारी नहीं कर पाई है.


ये पहरेदारी करते-करते हम थक चुकी हैं. पलटकर कहना चाहती हैं, हमें इस जिम्मेदारी से मुक्त करो. पीछे पा. रंजीत और रजनीकांत की फिल्म काला में औरत को इस जिम्मेदारी से मुक्त होते देखा था. देखा था कि किस तरह पुलिस वाले स्टॉर्मी के कपड़े को नोंचकर फेंकते हैं तो वह अपनी शर्म की पहरेदारी में नहीं लगती. पलटती है और वार करती है. ऐसा ही कुछ अविनाश दास की फिल्म अनारकली ऑफ आरा में भी देखा था. ऑर्केस्ट्रा सिंगर अनारकली स्टेज पर मॉलेस्ट होने के बाद भी शर्म से गड़ती नहीं. हारती नहीं.जवाब देना जानती है.दरअसल शर्म समाज का नैतिक पाखंड है जिससे प्रतिपक्षी पुरुष बिरादरी पवित्रता की नौटंकी रचती है. औरत इसी नौटंकी में अपने अस्तित्व को खतरे में डालती रहती है.यूं ये साहस जुटाना आसान नहीं, लेकिन जरूरी जरूर है. तभी नैतिकता के यातना शिविर में बंधक औरते आजाद हो पाएंगी.



बाकी भीड़ के मानवीय होने की कोई उम्मीद अब बची नहीं है. हमें मानवीय बनाने की कुछ जिम्मेदारी हमारी हुक्मरानों की भी है लेकिन वो तो खुद आग पे हाथ सेंकने बैठे हैं. औरत को बचाने के लिए कानून तो बनाए जा रहे हैं पर यह आडंबर से ज्यादा कुछ नहीं क्योंकि यह किसी के साथ गलत होने की वजह से कम, एक बड़े समुदाय का समर्थन खोने के डर से पैदा हुई सहानुभूति ज्यादा है.ऐसे में औरत को खुद ही जवाब देना होगा.बताना होगा कि अपनी देह, अपनी यौनिकता, अपनी शर्म परउसका खुद का अधिकार है. इस अधिकार के दावे के साथ खड़े होने की हिमाकत भी वह कर सकती हैं. मनुष्य जीवन का स्त्रीवादी संदेश यही है.



(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)