केंद्र और महाराष्ट्र सरकार में भाई-भाई की भूमिका निभाने के बावजूद शिवसेना-बीजेपी के बीच तलवारें खिंची ही रहती हैं. यह प्रश्न बना ही रहता है क्या अगले साल की शुरुआत में मुंबई समेत कई बड़ी महानगरपालिकाओं और ज़िला परिषदों के चुनावों के लिए दोनों का पूर्ण गठबंधन हो सकेगा? स्थानीय निकायों के दूसरे चरण में (पुणे और लातूर) 14 नगरपरिषद अध्यक्षों और 324 पार्षदों के लिए चुनाव हुआ लेकिन जो नतीजे आए हैं वे शिवसेना के लिए बड़ा झटका हैं. उसे सिर्फ जुन्नर का अध्यक्ष पद मिला है जबकि बीजेपी ने 5 जगहों पर बाज़ी मारी है. 324 में से शिवसेना के सिर्फ 23 पार्षद ही जीत पाए हैं. इसके बावजूद शिवसेना मोदी सरकार द्वारा किए गए विमुद्रीकरण के मुद्दे पर तल्ख़ तेवर अपनाने से बाज़ नहीं आ रही.


नागपुर में महाराष्ट्र विधानसभा का शीतकालीन सत्र शुरू होते ही सहयोग बढ़ाने के इरादे से शिवसेना कार्याध्यक्ष उद्धव ठाकरे और आरएसएस चीफ़ मोहन भागवत की मुलाक़ात हुई थी लेकिन शिवसेना असहयोगी रवैया अपनाते हुए कह रही है कि स्थानीय निकाय चुनाव के दूसरे चरण में बीजेपी को मिली सफलता को विमुद्रीकरण की सफलता बताने वाले मूर्ख हैं.

हालांकि अलग-अलग लड़ने का नफ़ा-नुकसान शिवसेना बख़ूबी जानती हैं लेकिन इसे सीएम देवेंद्र फड़नवीस की कूटनीति और चतुराई ही कहा जाएगा कि उन्होंने उद्धव के साथ रिश्ते मधुर करने की कोशिश की है. यह सीएम की सूझबूझ का ही नतीजा है कि केंद्र की नोटबंदी के खिलाफ़ शिवसेना का आरबीआई मुख्यालय (मुंबई,फोर्ट) के सामने निर्धारित विशाल धरना पिछले दिनों टल गया. फड़नवीस यह समझ गए हैं कि भले ही स्थानीय निकायों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जा रहे हैं लेकिन इनके नतीजे उनकी सरकार की लोकप्रियता का पारा भी नापेंगे. अभी अलग-अलग लड़ने का ही नतीजा है कि दूसरे चरण में बीजेपी को निर्दलीयों से भी कम सीटें हासिल हुई हैं. बीजेपी को 81 जबकि निर्दलीयों को 82 सीटें मिलीं! शायद इसलिए भी फड़नवीस अपनी ओर से शिवसेना के प्रति आक्रामक नहीं दिखना चाहते.

बुरी गत होने के बावजूद शिवसेना का रवैया इससे ठीक उलटा है. लगता है कि उसने मुंबई और ठाणे महानगरपालिका का चुनाव अकेले लड़ने की अभी से तैयारी भी शुरू कर दी है. उसकी तमाम गतिविधियां अब तक ‘मराठी माणूस’ को केंद्र में रखकर चलती रही हैं लेकिन अब उसने ‘गुजराती माणूस’ पर भी डोरे डालने शुरू कर दिए हैं. मुंबई के 35 लाख गुजरातियों में से 15 लाख वैध वोटर हैं. जाहिर है इसे बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश के तौर पर देखा जाएगा क्योंकि पिछले कुछ दशकों से मुंबई का गुजराती समाज मोटे तौर पर बीजेपी का परंपरागत वोटर बन गया है. यह गुजराती वोटर मुंबई के कालबा देवी, मुलुंड, घाटकोपर और बोरीवली जैसे बड़े इलाकों में हार-जीत का फैसला करता है. लेकिन शिवसेना ने हेमराज शाह, जयंतीभाई मोदी और राजेश दोषी जैसे बड़े गुजराती नेताओं को अपने पाले में कर लिया है. हेमराज शाह की बात का गुजराती समाज में बड़ा सम्मान किया जाता है. शिवसेना की उम्मीद इस बात से भी जगी है कि विमुद्रीकरण के कारण मुंबई का गुजराती व्यापारी समाज करहाने लगा है और बीजेपी तथा मोदी से उसका आए दिन मोहभंग हो रहा है.

दूसरी तरफ सीएम फड़नवीस देख रहे हैं कि भारत की सबसे अमीर महानगरपालिका से शिवसेना को हटा पाना उतना आसान नहीं है. बीजेपी का आकलन था कि अगर स्थानीय निकायों के पहले चरण की ही भांति उसे दूसरे चरण में भी बड़ी सफलता मिल गई तो वह शिवसेना को आसानी से हाथ नहीं रखने देगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और अब गठबंधन का रास्ता खुला रखने के लिए शिवसेना की घुड़कियां सुनना उसकी मजबूरी है. इस रास्ते की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि फड़नवीस ने भले ही शिवसेना के साथ रिश्ते सुधार लिए हैं लेकिन पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह महाराष्ट्र में शिवसेना के पिछले हमले नहीं भुला पा रहे. यही वजह है कि लोकसभा में शिरोमणि अकाली दल और टीडीपी से ज़्यादा सांसद होने के बावजूद शिवसेना को दिल्ली में ज़्यादा भाव नहीं मिलता. यह शिवसेना को पचता नहीं है और वह प्रतिक्रिया में मोदी की धुर विरोधी ममता बनर्जी तक के साथ सड़क पर खड़ी दिख जाती है. बीजेपी आलाकमान यह तय ही नहीं कर पा रहा है कि शिवसेना के साथ कैसे निबटा जाए.

बीजेपी के लिए विधानसभा की ही तरह स्थानीय निकायों में बड़ी जीत दर्ज़ करना बड़ी चुनौती और बात साबित करने का प्रश्न था. अभी दो चरण बाकी हैं. इन चरणों में जीत हासिल करके उसे यह भी दिखाना है कि जनता उससे बहुत ख़ुश है. अगर शिवसेना बीजेपी से नाराज बनी रही तो उसकी ख़ुशी विलीन हो जाएगी. हालांकि शिवसेना को ख़ुश बनाए रखना भी बीजेपी के लिए एक बड़ा सरदर्द है. क्योंकि शिवसेना नेताओं का अंदरख़ाने मानना है कि स्थानीय निकायों के दूसरे चरण में विमुद्रीकरण की परेशानियों के बावजूद लोगों ने बीजेपी को वोट अवश्य दिया है लेकिन ग्राफ गिरा है. अगर बीजेपी का पलड़ा इसी तरह हल्का होता गया तो शिवसेना नई ऊर्जा से हमलावर हो जाएगी.

हकीक़त यह है कि ज़मीनी स्तर पर न तो बीजेपी कार्यकर्ता गठबंधन चाहते न सेना के. इन कड़वाहटों के बीच अभी से यह कहना मुश्किल है कि मुंबई महानगरपालिका के लिए बीजेपी-शिवसेना एक साथ चुनाव लड़ेगी या नहीं. अभी दोनों अपनी-अपनी तरह से तैयारी कर रहे हैं. लेकिन स्थानीय निकायों के चुनाव पूर्ण संपन्न होने के बाद अगले फरवरी-मार्च तक तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाएगी.

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