स्मिता पाटिल को इस दुनिया से कूच किये 32 साल हो गए हैं. जब 13 दिसम्बर 1986 को स्मिता पाटिल का निधन हुआ तब वह सिर्फ 31 साल की थीं. यह वह समय था जब स्मिता पाटिल की सिनेमा जगत में धूम थी. सिर्फ देश में ही नहीं विदेशों में भी उनके अभिनय और फिल्मों के प्रति दर्शकों की दीवानगी देखते ही बनती थी. मुझे याद है उन दिनों जब अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में स्मिता की फ़िल्में प्रदर्शित होती थीं तो उनकी अधिकांश फिल्मों के देखने के लिए इतने दर्शक आ जाते थे कि थिएटर छोटे पड़ जाते थे. ऐसे में जगह न मिलने पर भी दुनियाभर से आए फिल्मकार उनकी फिल्मों को फर्श पर बैठकर या खड़े होकर देखते थे. यहां तक कुछ बार तो स्मिता पाटिल की फिल्मों का दर्शकों में क्रेज देखते हुए फिल्म समारोह निदेशालय को उनकी फिल्मों की फिर से स्क्रीनिंग कराने के लिए मजबूर होना पड़ता था.


स्मिता पाटिल एक ऐसी अभिनेत्री थीं जो अपनी हर भूमिका में प्राण फूंक देती थीं. रोल छोटा हो या बड़ा, उन्होंने इस बात की परवाह किये बिना अपना पूरा फोकस अपने रोल पर रखा. जब स्मिता फिल्मों में आयीं तब कलात्मक सिनेमा की लोकप्रियता का दौर था. असल में 70 के दशक में जब हमारा सिनेमा नयी अंगड़ाई लेकर लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच चुका था तब कुछ दर्शक ऐसे भी थे जो मनोरंजक-मसाला फिल्मों से ऊबने लगे थे. वे दर्शक कुछ यथार्थ का सिनेमा चाहते थे.


एक ऐसा सिनेमा जो चकाचौंध की दुनिया से हटकर हमारे समाज की सटीक हकीकत और हमारे आसपास की बात करे. यूं सत्यजित रे जैसे फिल्मकार बांगला में ऐसी फ़िल्में पहले से ही बना रहे थे. हिंदी में भी चेतन आनंद और ख्वाजा अहमद अब्बास सहित कुछ फिल्मकार ऐसी फ़िल्में बनाते रहे. लेकिन श्याम बेनेगल, गोविन्द निहालानी, केतन मेहता, एम एस सथ्यु जैसे फिल्मकारों ने जब अपनी फ़िल्में बनानी शुरू कीं तो उन्होंने यथार्थ का ऐसा सिनेमा बनाया जिससे कलात्मक फ़िल्में लोकप्रियता की पराकाष्ठा तक पहुंच गयी. कोई शक नहीं इस तरह के सिनेमा को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाने में स्मिता पाटिल जैसी अभिनेत्री का भी बहुत बड़ा योगदान है.


स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर 1955 को पुणे में हुआ था. स्मिता 18 साल की ही थीं कि इन्हें मुंबई दूरदर्शन के शुरू होने पर वहां समाचार पढ़ने का काम मिल गया था. श्याम बेनेगल ने स्मिता को एक दिन समाचार पढ़ते हुए देखा तो वह उनसे काफी प्रभावित हुए और स्मिता को 1975 में चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी के लिए बनायी, अपनी बाल फिल्म ‘चरणदास चोर’ में ले लिया. इस फिल्म में सभी को स्मिता का काम इतना पसंद आया कि स्मिता के पास बहुत सी फिल्मों के प्रस्ताव आने लगे. उधर श्याम बेनेगल ने तो स्मिता को लेकर लगातार ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘भूमिका’ और ‘मंडी’ जैसी फ़िल्में बनाना शुरू कर दिया. सहकारी दुग्ध योजना को लेकर बनी ‘मंथन’ में स्मिता ने इतना शानदार काम किया कि तभी इस बात के संकेत मिल गए थे कि यह अभिनेत्री बहुत आगे जायेगी.


‘भूमिका’ के लिए मिला पहला राष्ट्रीय पुरस्कार
‘मंथन’ से स्मिता को लेकर जो संभावनाएं जगी थीं वे अगले साल 1976 में तब सच हो गयीं जब उनकी फिल्म ‘भूमिका’ प्रदर्शित हुई. बेनेगल की इस फिल्म में स्मिता ने मराठी रंगमंच और सिनेमा की मशहूर अभिनेत्री हंसा वाडेकर की भूमिका निभायी थी. इस भूमिका को स्मिता ने ऐसे जीवंत किया कि उस बरस सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार स्मिता के ही झोली में चला गया. अपने करियर की शुरुआत में ही 21 बरस की उम्र में स्मिता को यह सम्मान मिलना एक बड़े गौरव की बात थी.


इसके बाद स्मिता को कमर्शियल सिनेमा से कुछ बड़े फिल्मकारों ने भी अपनी फिल्मों के प्रस्ताव देना शुरू कर दिया लेकिन तब स्मिता ने अपना पूरा ध्यान सिर्फ कला फिल्मों की ओर ही लगाया. जिससे ‘गमन’, ‘आक्रोश’, ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ और ‘चक्र’ जैसी यादगार फिल्मों में स्मिता का बेहतरीन अभिनय देखने को मिल सका. यहां तक ‘चक्र’ (1981) के लिए स्मिता को एक बार फिर सर्वोत्तम अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया. यहां एक बात और हुई कि ‘चक्र’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ फिल्मफेयर पुरस्कार भी स्मिता को मिला.


कला फिल्मों के साथ कमर्शियल सिनेमा में भी रहीं सफल
‘चक्र’ के लिए फिल्मफेयर मिलने के बाद तो स्मिता को कमर्शियल सिनेमा से इतने प्रस्ताव आए कि वह मना नहीं कर सकीं. उसी के बाद स्मिता कला और विशुद्ध व्यवसायिक दोनों तरह का सिनेमा करने लगीं. यह स्मिता के लाजवाब अभिनय का कमाल था कि वे इन दोनों तरह के सिनेमा में सफल हुईं. स्मिता को उन्हीं दिनों सत्यजित रे जैसे दिग्गज फिल्मकार ने अपनी फिल्म ‘सद्गति’ में लेकर यह जता दिया कि स्मिता के अभिनय पर उन्हें भी भरोसा है. तब वह एक ओर ओम पुरी, नसीर और कुलभूषण खरबंदा के साथ फ़िल्में कर रही थीं तो दूसरी ओर मुख्यधारा के सिनेमा के उस दौर के लगभग सभी बड़े सितारों की नायिका बन रह थीं. जिनमें अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, देव आनंद, मिथुन चक्रवर्ती, अनिल कपूर और राज बब्बर जैसे कई नाम शामिल हैं.


सन् 1981 से 1983 के उस दौर में स्मिता पाटिल ने अर्थ ,बाज़ार, भीगी पलकें, दर्द का रिश्ता, दिल ए नादान, नमक हलाल, शक्ति और सितम जैसी सफल हिंदी फ़िल्में करके सभी को चौंका दिया. कुछ लोगों का मानना था कि स्मिता कमर्शियल फिल्मों में उतनी नहीं चलेंगी, लेकिन अमिताभ बच्चन के साथ उनकी नमक हलाल और शक्ति जैसी फिल्मों की अपार सफलता से यह साफ़ हो गया कि वह एक ऐसी अभिनेत्री हैं, सिनेमा कोई भी हो वह अपने काम से सभी का दिल जीतने में सक्षम हैं. यह उस समय निश्चय ही चौंकाने वाला था कि सन् 1982 के एक ही साल में स्मिता की 10 फ़िल्में प्रदर्शित हुईं.


अगले साल 1983 में भी स्मिता ने मंडी, अर्धसत्य, घुंघरू, हादसा, चटपटी और क़यामत जैसी फ़िल्में दीं. लेकिन सन् 1984 का साल तो स्मिता की जिंदगी में बेहद अहम रहा कि उनकी इस एक साल में ही 12 फ़िल्में प्रदर्शित हुईं. जिनमें आज की आवाज़, आनंद और आनंद, फ़रिश्ता, पेट प्यार और पाप, गिद्ध, शपथ, हम दो हमारे दो और कसम पैदा करने वाले की. हालांकि इनमें से कुछ फ़िल्में चल नहीं पायीं. जिससे लगा कि स्मिता की मांग कम हो जायेगी. पर अगले दो बरसों में स्मिता ने आखिर क्यों, मेरा घर मेरे बच्चे. अमृत, दहलीज़ और अनोखा रिश्ता जैसी सफल फिल्में देकर अपनी लोकप्रियता को बरकरार रखा.


बहुत अच्छे से मिलती थीं स्मिता
स्मिता पाटिल अपने व्यवहार और काम दोनों से सभी के दिल में अपनी जगह बना लेती थीं. यह मेरा सौभाग्य है कि मैं इस महान अभिनेत्री से मिल सका, उनसे बातें कर सका. वह बेहद सादगी और गरिमा से मिलती थीं. एक बड़ी अभिनेत्री होने के बाद भी उनमें अहंकार दूर दूर तक नहीं झलकता था. स्मिता के अभिनय में सबसे अहम भूमिका उनकी आंखों की थी. उनकी आंखें इतना कुछ कह जाती थीं कि कई बार उन्हें संवाद देने की जरुरत भी महसूस नहीं होती थी. उनके व्यक्तित्व का आकर्षण भी उनकी आंखों के साथ उनके होठ थे. उनके बड़े- मोटे होठों में अजब सा आकर्षण था, जो उनके अभिनय को और भी सशक्त बनाते रहे.


जब राजबब्बर से शादी के कारण हुई आलोचना
अपने जीवन में सभी का प्यार, दुलार और दुआएं पाने वाली स्मिता को एक बार तब अपने जीवन में लोगों की आलोचना सहनी पड़ी थी जब वह राज बब्बर से शादी कर उनकी दूसरी पत्नी बनीं. असल में स्मिता पाटिल की छवि एक ऐसी आधुनिक नारी की थी जो दूसरों के हक़ के लिए लड़ती है. दबे कुचले समाज की महिलाओं की आवाज़ उठाती है. लेकिन राज बब्बर जो पहले से ही रंग मंच की अभिनेत्री नादिरा ज़हीर बब्बर के पति थे, स्मिता ने उनसे शादी कर ली. यह एक संयोग रहा या कुछ और कि महेश भट्ट की ‘अर्थ’ फिल्म में स्मिता और शबाना आज़मी दोनों ने पहली और दूसरी पत्नी के दर्द को दिखाया था.


शबाना उसमें पहली पत्नी थीं और स्मिता दूसरी पत्नी. यह वह दौर था जब इन दोनों अभिनेत्रियों के बीच एक तरह का मुकाबला सा था. दोनों ही कला और व्यवसायिक सिनेमा दोनों में बराबर सक्रिय थीं. लेकिन इन दोनों ने ही अपनी असली जिंदगी में उन्हीं को अपना पति चुना जो पहले ही किसी के पति थे. शबाना ने जावेद अख्तर से दूसरा ब्याह रचाया और स्मिता ने राज बब्बर से. जब राज बब्बर और स्मिता की शादी हो गयी तब नादिरा ने राज बब्बर से अपने संबंध तोड़ दिए थे. जो बाद में स्मिता के निधन के कुछ समय बाद फिर जुड़े. मुझे वे पल अब भी याद हैं जब नादिरा अपने ससुर के रेलवे की नौकरी से सेवानिवृत होने पर, आगरा के निकट टुंडला के समारोह में शरीक होकर अपने परिवार में फिर से लौटीं थीं. मैं तब स्वयं वहां उस समारोह में मौजूद था.


स्मिता पाटिल दुनिया से इतनी जल्दी अलविदा कह जायेंगी यह किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था. बब्बर से शादी के बाद 28 नवम्बर 1986 को स्मिता ने एक पुत्र प्रतीक स्मित को जन्म दिया था. लेकिन इसके बाद स्मिता इतनी अस्वस्थ होती चली गयीं कि 13 दिसंबर को उनका सहसा निधन हो गया. अपने करीब दस बरस के करियर में ही स्मिता ने इंडियन सिनेमा को अपनी बहुत सी खूबसूरत फिल्मों से संपन्न कर दिया है. स्मिता पाटिल से पहले भी कई अच्छी अभिनेत्रियां आईं और उनके बाद भी लेकिन स्मिता पाटिल जैसी मिसाल कोई और नहीं मिलती. सच तो यह है कि आज भी स्मिता बहुत याद आती हैं.


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