सिर पर आ धमके यूपी विधानसभा चुनावों के लिए समाजवादी पार्टी के साथ हुआ गठबंधन कांग्रेस के लिए राहत की सांस लेकर आया है. हफ़्तों की ऊहापोह के बाद आख़िरकार यूपी के चुनावी भूगोल में तय पाया गया कि कांग्रेस 105 और समाजवादी पार्टी 298 सीटों पर अपने-अपने उम्मीदवार उतारेगी. जाहिर है, अपर हैंड सपा का ही है. लेकिन बराबरी के दिखावे के लिए ही सही, सपा के यूपी अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल और उनके कांग्रेसी समकक्ष राज बब्बर ने एक संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में दावा किया कि यह गठबंधन साम्प्रदायिक ताक़तों का फन कुचलने के लिए बनाया गया है. जबकि हर कोई जानता है कि पारिवारिक कलह से जूझ रही सपा दोबारा सत्ता पाने तथा कांग्रेस यूपी में 27 साल बाद सत्ता में किसी तरह साझीदार बनने की कवायद में जुटी है.


टिकट बंटवारे में सपा का दबदबा रहना ही था क्योंकि कांग्रेस के मन में सपा से गठबंधन की तड़प इतनी तीव्र थी कि कांग्रेस की तरफ से सीएम के चेहरे के तौर पर आगे की गई दिल्ली की पूर्व सीएम शीला दीक्षित ने अपनी दावेदारी वापस ले ली थी और कहा था कि उन्हें अखिलेश के नेतृत्व से कोई दिक्कत नहीं है.

कांग्रेस का उतावलापन देखिए कि यूपी प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने अपनी तरफ से गठबंधन का ऐलान 17 जनवरी को ही कर दिया था जबकि इसके बाद चली बातचीत में एक दौर ऐसा भी आया जब सपा नेता नरेश अग्रवाल को कहना पड़ा कि गठबंधन की संभावना लगभग खत्म हो चुकी है. सपा ने गत शुक्रवार को अपने 210 उम्मीदवारों की सूची जारी करके कांग्रेस को कड़ा संदेश भी दे दिया था. सपा ने उन सीटों पर भी अपने उम्मीदवार उतार दिए थे, जहां से 2012 में कांग्रेस के विधायक चुनकर आए थे. वह कांग्रेस को रायबरेली और अमेठी की सभी 10 सीटें देने के लिए भी तैयार नहीं थी जो अब 5 सीटें देने को राजी हो गई है. सपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष किरणमय नंदा ने दिल्ली में 20 तारीख़ को इतना तक कहा दिया था कि राज्य में कांग्रेस का केवल 54 सीटों पर ही हक है.

नंदा की बात में वजन था. 2012 में सपा ने कुल 403 में से 224 सीटें जीती थीं जबकि कांग्रेस को 28 सीटें ही मिलीं थीं. लेकिन सपा की आंतरिक कलह के बीच ही सीएम अखिलेश यादव ने बयान दे दिया था कि अगर कांग्रेस के साथ गठबंधन हो गया तो वे यूपी में 300 से ज़्यादा विधायक जिता कर दिखाएंगे. ऐसे में कांग्रेस की बांछें खिलनी ही थीं और भाव बढ़ने ही थे. लेकिन इगो का मामला तब बना जब पिता मुलायम सिंह यादव से निबटने के बाद भी अखिलेश के सामने कांग्रेस का कोई बड़ा नेता सीटों का तालमेल बनाने के लिए प्रस्तुत नहीं हुआ. बहरहाल, ज़मीनी हक़ीकत के मद्देनज़र कांग्रेस के वरिष्ठ नेतृत्व को सामने आना ही पड़ा. इस बात की पुष्टि सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के ट्वीट से भी होती है. उन्होंने फौरन लिखा, ‘‘यह सुझाव देना गलत होगा कि कांग्रेस पार्टी की ओर से लाइटवेट बातचीत कर रहे हैं. बातचीत उच्चतम स्तर पर हुई. मुख्यमंत्री (यूपी) और महासचिव कांग्रेस (गुलाम नबी आजाद) एवं प्रियंका गांधी के बीच.’’


अखिलेश की कांग्रेस के साथ गठबंधन की उत्सुकता इसलिए थी कि 2012 में एसपी का वोट शेयर 29.3% था जबकि कांग्रेस का 11.7%. सामान्य ज्ञान यह कहता है कि यूपी में जिस पार्टी को 32-35% वोट मिल जाएंगे उसी की सरकार बन जाएगी. एक गणित यह भी है कि यूपी का मुस्लिम वोटर उसी तरफ झुकेगा जिसके पास भाजपा को हराने की ताक़त होगी. सपा के शासनकाल से उपजा आक्रोश मुस्लिमों को मायावती की तरफ ले जा सकता था लेकिन कांग्रेस के साथ आ जाने से उनको सेफ्टी बॉल्व मिल जाएगा. यद्यपि यह कहना और मानना गलत होगा कि यूपी का 19% मुस्लिम एक मोनोलिथ है, उसका भी वोट बंटता है.


चुनावी गणित अपनी जगह है लेकिन गठबंधन की घोषणा वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस में अखिलेश और फादर फिगर नेता जी शरीक ही नहीं हुए. सपा का चुनावी घोषणापत्र भी अखिलेश को पिता जी की गैरमौजूदगी में ही सामने लाना पड़ा. इससे लगता नहीं कि सपा में सब ठीक हो चुका है. ऐसे में सामने आ चुकी सूची से नेता जी और उनके वरिष्ठ साथियों का मन कितना संतुष्ट है, कहा नहीं जा सकता! ख़ुद कांग्रेस दुधारू गाय की लात सहते हुए अपनी पिछली जीती सीटों पर सपा द्वारा उतार दिए गए उम्मीदवारों को लेकर क्या प्रतिक्रिया देगी, कोई नहीं जानता! दोनों पार्टियों के आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों का मुद्दा भी उठ सकता है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के बीच अपनी पकड़ रखने वाली अजित सिंह की आरएलडी को भी गठबंधन का साथी नहीं बनाया गया है क्योंकि सपा को डर है कि ऐसा करने से 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों की तपिश पार्टी और मुस्लिमों तक पहुंच जाएगी.

और सबसे बड़ी बात, सपा के कितने वोटों का ट्रांस्फर कांग्रेस में होगा तथा कांग्रेस के कितने वोटर सपा में ट्रांस्फर होंगे, यह देखना दिलचस्प होगा. क्योंकि जातीय और धार्मिक आधार पर बंटे यूपी में कांग्रेस के कई हिंदू वोटर सपा को मुस्लिमों को ताक़त देने वाली पार्टी के रूप में देखते हैं जबकि सपा के कई मुस्लिम वोटर कांग्रेस को बाबरी मस्जिद गिरवाने वाली पार्टी के तौर पर देखते हैं. जाहिर है गठबंधन बन तो गया है लेकिन कई गांठें खुलना अभी बाक़ी हैं!

नोट: उपरोक्त लेख में व्यक्त दिए गए विचार लेखक के निजी विचार है. एबीपी न्यूज़ का इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई सरोकार नहीं है.


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