बिल्कुल नई तरह का कोरोना वायरस, जो कोविड-19 के रूप में भी कुख्यात है, तीन महीने पहले चीन में पहली बार प्रकट होकर एक के बाद एक इलाके फतह करता हुआ पूरी दुनिया को रौंदता चला आ रहा था. अब ऐसे देशों की संख्या 185 तक पहुंच गई है, जहां वायरस जड़ें जमा चुका है, इनमें से अधिकतर देशों को अपने इलाकों के अंदर इस वायरस का और आगे फैलाव रोकने में पसीने छूट रहे हैं. अपवाद स्वरूप कुछ ऐसे देश जरूर हैं, जिन्होंने वायरस की गंभीरता कम करने के लिए शुरुआती और ठोस उपाय कर लिए थे. किसी विश्व विजेता की भांति यह वायरस सरहदों को कुछ नहीं समझता, राष्ट्र-राज्यों की हस्ती नहीं पहचानता और न ही संप्रभुता की रत्ती भर परवाह करता है. यह भी एक कारण हो सकता है कि कई देशों के लीडरों; यहां तक ​​कि ‘अमेरिका फर्स्ट’ विचार की खुली हिमायत करने वाले डोनाल्ड जे. ट्रम्प ने भी घोषणा कर दी है कि वायरस द्वारा उत्पन्न की गई निपट अप्रत्याशित परिस्थिति ने समूची मानव जाति के लिए चिंता पैदा कर दी है.


डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक ने वायरस को सर्वव्यापी महामारी घोषित करते हुए कहा है, "सतर्कतापूर्वक एक दूसरे का खयाल रखें”- “क्योंकि इस काम में हम साथ मिलकर ठंडे दिमाग से सही कदम उठाने और दुनिया के नागरिकों की रक्षा करने के लिए उपस्थित हैं." संगीतकार, अभिनेता और प्रमुख लोकप्रिय हस्तियां दुनिया को आश्वस्त करने के लिए सुर में सुर मिला रही हैं कि "इसमें हम सब साथ-साथ हैं."


राष्ट्रों, जातीयताओं और धर्मों को नजरअंदाज करने के अनोखेपन के अलावा इस वायरस की कई अन्य विशेषताएं भी हैं. इनमें यह तथ्य भी शामिल है कि तुलनात्मक रूप से इसके बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह "अदृश्य" है. इंटरनेट पर सैकड़ों तथाकथित उपचारों और औषधियों की बाढ़ के बावजूद अभी तक इसका कोई इलाज मौजूद नहीं है. 17 मार्च को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन ने ऐलान किया कि "नोअस सोमेस एन गुइरे", "हम युद्धरत हैं." अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा- "शत्रु मौजूद है – अदृश्य और मायावी - और यह आक्रमण कर रहा है." कई अन्य राजनेताओं ने भी अपने देश को "युद्धरत" होने के रूप में वर्णित किया है और इसी प्रकार डब्ल्यूएचओ के मुखिया ने इसे "मानवता का शत्रु" नाम दिया है.


चूंकि संयुक्त राज्य अमेरिका ने साधारणतया देश को युद्ध में झोंकने का अहसास कराने वाली सैन्य कार्रवाइयों के अलावा भी मुख्य रूप से ड्रग्स, कैंसर और आतंक के खिलाफ उत्तरोत्तर कई अन्य ‘युद्ध’ छेड़े हैं, इसलिए आश्चर्य की बात नहीं है कि अब वह इस वायरस के खिलाफ युद्ध शुरू करने के लिए कमर कस चुका है. यह भी कि तथाकथित वैचारिक मतभेद रखने वाला राजनीतिक अभिजात वर्ग अधिकांश समय किस तरह समान सोच रखता है, यह साबित होने का इससे बेहतर मौका नहीं हो सकता. वायरस के अग्रसर होने और हमला करने वाली घातक चाल का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली उनकी भाषा देखिए: जैसा कि ट्रम्प ने कुछ दिनों पहले कहा था, “हमें इस अदृश्य शत्रु से युद्ध करना ही होगा- वह अज्ञात है, लेकिन हम उसकी थोड़ी बेहतर टोह ले पा रहे हैं.” लगभग हर अमेरिकी राजनीतिज्ञ के मन में सैन्य रूपक बड़ी सहजता से उभरते हैं, लेकिन ट्वीडलीडी और ट्वीडलीडम का एक अर्धांश बिडेन जैसा राजनीतिज्ञ – जो जीवन भर डेमोक्रेट रहा- राष्ट्रपति पद का पार्टी उम्मीदवार चुनने के लिए सैंडर्स के साथ हुई डेमोक्रेटिक प्रायमरी डिबेट में महज शब्दाडंबर नहीं फैला रहा था. उन्होंने घोषणा की, “हम एक वायरस के खिलाफ युद्धरत हैं.” उन्होंने सेना तैनात करने और सहायता के लिए नेशनल गार्ड बुलाने का सुझाव दिया है.


युद्ध अक्सर उस "शत्रु" से भी बदतर साबित हुए हैं, जिसे निर्मूल करने के लिए उन्हें छेड़ा गया था. और इस उत्तेजनापूर्ण और उन्मादी युद्ध में कूदने के उन तमाम खतरों के बारे में ढेर सारी बातें कही जा सकती हैं, जो घात लगाकर बैठे हुए हैं. यद्यपि अभी के लिए इस समसामयिक तर्क-वितर्क के एक पहलू की ओर ध्यान खींचना पर्याप्त होगा: शत्रु की मौजूदगी में राष्ट्रवाद बहुत पीछे नहीं रहता. "इसमें हम सब साथ-साथ हैं" पंक्ति को जॉन डन की 1624 में प्रकाशित प्रसिद्ध टीका ‘डेवोशंस अपॉन इमर्जेंट ओकेजंस’ के मेडिटेशन XII की प्रशस्ति के रूप में भी पढ़ा जा सकता है; विशेषतया इन पंक्तियों को: "कोई भी व्यक्ति अपने आप में एक द्वीप नहीं है; हर व्यक्ति महाद्वीप का टुकड़ा है, मूल का एक अंश है.... किसी भी व्यक्ति की मृत्यु मुझे शक्तिहीन कर देती है, क्योंकि मैं मानव जाति में अंतर्निहित हूं."


हमने यह भी देखा है कि कोरोना वायरस के मनुष्यों को निगलना जारी रखने के साथ-साथ सभी "सही-सोच" रखने वालों और अच्छे लोगों की वही पुरानी और जानी-पहचानी पुकार सुनाई दे रही है. कल लगभग पूरे यूरोप के सैकड़ों रेडियो स्टेशनों ने एकजुटता की अभिव्यक्ति में "यू विल नेवर वॉक अलोन” का एक साथ प्रसारण किया और मनहूस अकेलेपन में बीमारी से जूझ रहे लोगों को इससे मुकाबला करने का साहस दिया. अभी तक हर जगह इस वायरस ने राष्ट्रों को एकसमान जरूरत और तीव्रता के साथ एकांतमय होने तथा राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करने पर मजबूर कर दिया है.


आइए थोड़ी देर के लिए बिना कोई दिखावा किए विचार करें कि कुछ ऐसे मामलों में यह विषय कमजोर हो चुका है, जिनमें कोरोना वायरस महामारी के प्रति की जा रही वैश्विक प्रतिक्रिया राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों का प्रदर्शन करती है. यह याद रखने योग्य है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कई राष्ट्रों में परमाणु बम विकसित करने की जबर्दस्त होड़ मच गई थी. इस तरह की उपलब्धियां हमेशा राष्ट्रीय गौरव का विषय होती हैं, जैसा कि परमाणु हथियारों के मामले में भी है, बावजूद इसके कि यह उपलब्धि अपने आप में किसी अश्लीलता, निर्लज्जता और फूहड़पन से कम नहीं होती. अब संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, चीन, यूरोपीय यूनियन और संभवतः कुछ अन्य देशों के बीच कोरोना वायरस का टीका विकसित करने की वैश्विक होड़ मच गई है.


भोले-भाले लोगों को शायद लग सकता है कि इस तरह की प्रतिस्पर्द्धा स्वस्थ है और यह बात कोई मायने नहीं रखती कि कौन-सा देश सबसे पहले टीका विकसित करता है. समूची मानवता एकप्राण हो सकती है, लेकिन किसी भी राष्ट्र-राज्य ने इस विचार के अलावा किसी अन्य चीज पर कभी अमल नहीं किया है; विशेषकर गहरे संकट की घड़ी में, कि अपनी आबादी को दूसरों पर तरजीह देनी है.


यदि कहीं वायरस का मुकाबला करने के लिए कोई टीका विकसित कर लिया जाता है, तो यह मानने की ठोस वजह मौजूद है कि इसे विकसित करने वाला देश सबसे पहले अपने नागरिकों के लिए इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करेगा और दूसरे देशों में इसे वितरित करने से पहले खुद के लिए पूरा लाभ ऐंठने का प्रयास भी कर सकता है. हालिया अतीत की मिसालें आश्वस्तिजनक नहीं हैं: वर्ष 2009 में स्वाइन फ्लू (एच1एन1) ने अनेक देशों पर इतनी तीक्ष्णता के साथ हमला किया था कि डब्ल्यूएचओ को इसे सर्वव्यापी महामारी का नाम देना पड़ा था, तब इसके एकल खुराक का टीका सफलतापूर्वक विकसित करने वाली पहली कंपनी एक ऑस्ट्रेलियाई फर्म थी. हाल ही में एक अकादमिक लेख में लिखा गया है कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने "ऑस्ट्रेलियाई निर्माता सीएसएल के सामने स्पष्ट कर दिया था कि संयुक्त राज्य अमेरिका को टीके का निर्यात करने से पहले उसका सरकार की घरेलू जरूरतें पूरी करना अनिवार्य है", और इसी तरह अमेरिका के हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेज सेक्रेटरी ने 28 अक्टूबर 2009 को खुलकर बयान दिया था कि इस टीके से "खतरे में पड़े सभी अमेरिकियों" का उपचार होने के बाद ही इसे अन्य देशों को दान करने पर विचार किया जाएगा. अगर मिलें भी तो निरपवाद रूप से गरीब राष्ट्रों को सबसे आखिर में टीके मिलते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि कोविड-19 से संघर्ष करने वाला टीका बनाने के लिए जैसे-जैसे प्रमुख शक्तियां अपने राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयासों को युद्ध स्तर पर ले जाएंगी, राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रबल होना लाजिम है.



दूसरे, और एकदम प्रत्यक्ष रूप से, देशों ने फटाफट एक के बाद एक खुद को अन्य राष्ट्रों से भली-भांति अलहदा कर लिया है तथा आधुनिक राज्य की तमाम तकनीकों के सहारे अपनी सीमाओं की निगरानी और रखवाली करने में जुट गए हैं. चीन की किसी भी उड़ान को अनुमति न देने की घोषणा करने के साथ अमेरिका ने इसका श्रीगणेश किया था. इटली ने अपने चारों ओर एक कॉर्डन सैनिटायर बना लिया तथा जर्मनी ने ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, फ्रांस, लग्जमबर्ग और स्विट्जरलैंड के साथ जुड़ी अपनी सीमाओं को बंद कर दिया; इसके बदले में हंगरी, पोलैंड और चेक गणराज्य बारी-बारी से अपनी सीमाएं बंद करने की दिशा में आगे बढ़े. यूरोपीय यूनियन ने यूरोप को वास्तव में दुनिया के बाकी हिस्सों से पूर्णरूपेण काट दिया है.


दुनिया के अन्य हिस्सों से कई दूसरे उदाहरण बड़ी आसानी से गिनाए जा सकते हैं, और हर जगह इसका समान औचित्य साबित किया जा रहा है- यदि वायरस का फैलाव रोकना है तो गतिविधियों की स्वतंत्रता कम करनी ही पड़ेगी. लेकिन मामला इससे कहीं ज्यादा जटिल है: "शत्रु" हमेशा अन्य है, विदेशी है, एलियन है; इस अन्य का निष्कासन भी राष्ट्र को “शुद्ध” प्रतिपादित करने का एक तरीका है. अब चूंकि हमलावर एक वायरस है, राष्ट्र को कुरूप बनाने का खतरा पैदा करने वाली एक वीभत्स एवं डरावनी आपदा है, तो इस सूरत में यह और भी जरूरी हो जाता है कि राष्ट्र को मुकम्मल रखा जाए और उन लोगों के लिए इसे भली-भांति बंद करके रखा जाए, जो देश विशेष से ताल्लुक नहीं रखते.


प्रत्येक राष्ट्र-राज्य जिस मुस्तैदी और निगरानी के दम पर दूसरों से अपनी रक्षा करना चाहता है, उसका उतना ही महत्वपूर्ण एक और आयाम है. पिछले तीन दशकों से, जब से बर्लिन की दीवार गिरी है, सोवियत संघ विघटित और विलीन हो चुका है और शीत युद्ध को आधिकारिक तौर पर इस खुली स्वीकारोक्ति के साथ समाप्त किया गया कि साम्यवाद का प्रयोग विफल रहा. इसी के साथ-साथ ईस्टर्न ब्लॉक में शामिल माने जाने वाले देशों के बीच मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के कथित सद्‌गुणों को पूरे जोशखरोश के साथ अंगीकार करने की आनुषंगिक होड़ मच गई. इस घटनाक्रम के केंद्र में कदाचित्‌ वैश्वीकरण का विचार एकमात्र सार्वभौमिक सिद्धांत रहा है. सबको बार-बार यही सिखाया-समझाया गया है कि दुनिया सिकुड़ रही है, और यह कि मानवीय नियति को पूर्ण संतुष्टि हर जगह अच्छे और सहृदय उपभोक्ता होने तथा इस विचार को अपनी स्वीकृति देने से मिलेगी कि चुनावी लोकतंत्र सरकार का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है और यह कि वस्तुओं (कदाचित्‌ विचारों की तरह) को सीमाओं के पार निर्बाध रूप से लाने-ले जाने की इजाजत होनी चाहिए.


राजनीतिक फलक के बाईं ओर बैठे लोगों के पास, जो इस दृष्टि से सहमत नहीं थे, इस सबके बावजूद वैश्विकता का अपना खुद का प्रारूप था. वे इस उम्मीद से बावस्ता थे कि राष्ट्र-राज्य का अंत समीप है तथा संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय यूनियन जैसे अधिराष्ट्रीय संगठन विश्व पर शासन करने में मददगार सिद्ध होंगे. यह कहा जा सकता है कि कोरोना वायरस ने उन लोगों के हाथ कमजोर कर दिए हैं, जो वैश्वीकरण के साथ खड़े हैं और राष्ट्रवाद को बल दे दिया है, जो पहले से ही दुनिया भर के कई देशों में उफान पर है. मुझे आशंका है कि यूरोपीय राष्ट्रों की धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टियों को कोरोना वायरस से प्यार हो गया होगा: उन्हें लगता है कि कोविड-19 महामारी ने उन्हें सही ठहराया है. राष्ट्र-राज्य का मृत्युलेख लिखने की तमाम कोशिशों के लिए शायद इतना पर्याप्त हो!



 विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं.
वेबसाइटः http://www.history.ucla.edu/faculty/vinay-lal
यूट्यूब चैनलः https://www.youtube.com/user/dillichalo
ब्लॉगः https://vinaylal.wordpress.com/

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)