दलित वोटों की फसल काटने के लिए देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने आजकल बड़ा आसान तरीका खोज निकाला है. कभी कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी और गुलाम नबी आजाद दलितों के घर जाकर जीमते हैं तो कभी बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दलितों का घर पवित्र करने पहुंच जाते हैं. सारा तमाशा मीडिया के चमकते कैमरों के बीच सादगी से सधे हुए अभिनय के साथ संपन्न होता है. राजनीतिक दलों का अचानक उमड़ा यह प्रेम देखकर दलित भी हैरान हैं!
बीजेपी के ही दलित सांसद उदित राज जैसे लोग कह रहे हैं कि इस कवायद से बीजेपी का कुछ भला नहीं होने वाला, लेकिन कांग्रेस पार्टी की तरफ से राहुल गांधी को ऐसी नसीहत देने वाला कोई नजर नहीं आता. दलितों के लिए इज्जत, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, इलाज का इंतजाम करने वाला भी कोई नहीं दिखता. अगर दिखते हैं तो वे नेता, जो दलितों की बस्तियों में खाना खाने जाते हैं और उन्हें हीनभावना से भर कर अपने-अपने धाम लौट जाते हैं.
पिछले दिनों 14 अप्रैल से पांच मई तक यूपी में बीजेपी का ग्राम स्वराज अभियान चला. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कई नेताओं ने दलितों के यहां भोजन किया. बीजेपी को यह प्रेरणा शायद कांग्रेस से मिली है, या कहा जाए कि दलितों के घर भोजन करने के मामले में राहुल गांधी को बाजी मारता देख कर बीजेपी यह कदम उठाने पर मजबूर हो गई. यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव में जिस तरह से बड़े पैमाने पर दलितों का वोट बसपा की बजाए बीजेपी को मिला, पार्टी उसे हर कीमत पर अपने साथ जोड़े रहना चाहती है. सितंबर 2015 के मध्य में राहुल गांधी यूपी की महायात्रा पर निकले थे और उस दौरान उन्होंने मऊ में एक दलित स्वामीनाथ के घर खाना खाया था. तब पीएम नरेंद्र मोदी ने इसे राहुल का दलित-पर्यटन करार दे दिया था.
बीजेपी की तरफ से इस कथित दलित-पर्यटन का श्रीगणेश पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यूपी फतह के इरादे से 31 मई 2016 को किया, जब उन्होंने प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र वाराणसी के गांव जोगियापुर में गिरिजा प्रसाद बिंद के घर खाना खाया था. लेकिन सपा-बसपा ने आरोप लगा दिया कि बीजेपी अध्यक्ष के लिए खाना होटल से मंगवाया गया था और बोतलबंद पानी पिलाया गया. लेकिन इससे बीजेपी अध्यक्ष का हौसला कम नहीं हुआ. वह 2017 में तेलंगाना और 2018 में उड़ीसा जाकर दलितों के घर खाना खा चुके हैं. अलबत्ता यह कहीं देखने में नहीं आया कि उनके या राहुल गांधी के दलितों के घर खाना खाने से गांव के सवर्ण दलितों के साथ बैठकर खाना खाने लगे हैं. किसी ने ऐसा आवाहन भी नहीं किया.
इसी अप्रैल में यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने इलाहाबाद के बिजलीपुर में दलित रमेश पासी के घर का दरवाज़ा खटखटाया तो अधिकारियों ने वहां उनके लिए एयर कंडीशन वाला स्विस कॉटेज लगवा दिया और भोजन कार्यक्रम संपन्न होते ही उसे उखाड़ भी ले गए! शायद यही किरकिरी देख-गुन कर केंद्रीय मंत्री उमा भारती कह रही हैं कि वह भगवान राम नहीं हैं कि दलितों के साथ भोजन करेंगी, तो वो पवित्र हो जाएंगे, बल्कि जब दलित उनके घर साथ बैठकर भोजन करेंगे, तभी वह पवित्र हो पाएंगे.
अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो भारत की आजादी की लड़ाई में कांग्रेस और महात्मा गांधी ने अछूतोद्धार मुद्दे को एक अहम स्थान दे रखा था. गांधी जी स्वयं मलिन बस्तियों में जाकर अपने हाथों से साफ-सफाई करते थे. लेकिन अब देश का; ख़ास तौर पर हिंदी पट्टी का दलित तबका समझ चुका है कि आज की कांग्रेस के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ और हैं! अब कांग्रेस के लिए दलित तबके को अपने हितैषी होने का भरोसा दिला पाना टेढ़ी खीर है.
लेकिन आसानी बीजेपी को भी नहीं होगी. बीजेपी रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज, सावित्री बाई फुले, अशोक दोहरे, छोटेलाल खरबार जैसे दलित नेताओं को पाले में लाने में जरूर कामयाब हुई है, लेकिन जिग्नेश मेवाणी जैसे युवा दलित नेता इन सबको अवसरवादी और फाइव स्टार नेता करार दे रहे हैं. बीजेपी दलितों तक किस हद तक पहुंची है इसका नमूना देखना हो तो गुजरात के ही गीर सोमनाथ के ऊना स्थित मोटा समढियाला गांव जाइए. यहाँ जुलाई 2016 में कथित गौरक्षकों ने मृत गाय का चमड़ा निकाल रहे दलित युवकों को कार से बांधकर उनकी चमड़ी उधेड़ डाली थी. इसी असंतोष का नतीजा है कि 2016 में ही जूनागढ़ में 200 दलितों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था और पिछले महीने ही मोटा समढियाला गांव के 27 दलित परिवारों ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया है. बता दें कि गुजरात में धर्म परिवर्तन के लिए जिलाधीश की मंजूरी लेनी होती है और राज्य में धर्म परिवर्तन की हजारों अर्जियां लंबित हैं. अगर दलित-उत्पीड़न पर लगाम नहीं लगी तो हर राज्य में ऐसी अर्जियों के ढेर लग जाएंगे.
दलित समझने लगे हैं कि पहले कांग्रेस के नेता दलितों के घर जाकर मुफ्त की रोटी तोड़ते थे, अब बीजेपी के नेता भी गरीब दलितों का आटा गीला कर रहे हैं. दलित यह भी देख रहे हैं कि वोट बैंक की राजनीति करने के लिए राजनीतिक दलों के पास तमाम उपक्रम हैं, लेकिन ऊना, सहारनपुर, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार में हुए दलित-उत्पीड़न के दोषियों को सजा दिलाने के लिए उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2007-2017 के दौरान दलित-उत्पीड़न के मामलों में 66% का इजाफा हुआ, जिसमें पिछले तीन-चार वर्षों में दलित विरोधी हिंसा में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है. आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर 15 मिनट में दलितों के साथ आपराधिक घटनाएं घटीं. इसमें बीजेपी शासित राज्य मध्य प्रदेश और राजस्थान क्रमशः पहले और दूसरे क्रमांक पर हैं.
ताजा घटनाक्रम यह है कि मध्य प्रदेश के दमोह जिले के एक गांव में इसी माह हुए यज्ञ का साथ न देने पर खफा सवर्णों ने दलितों का हुक्का-पानी बंद कर दिया है और उन्हें मेहनत-मजदूरी भी नहीं करने दे रहे हैं. स्पष्ट है कि मुंशी प्रेमचंद के ‘ठाकुर का कुआं’ आज भी गांव-गांव में मौजूद है, जो दलितों के घर जाकर दिखावे की बराबरी और झूठा अपनापा जताने से नहीं पटने वाला है.
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