अभी कुछ ही दिन पुरानी बात है जब रामविलास पासवान से फोन पर लंबी बात हुई थी. लंबी बातचीत का अंत इसके साथ हुआ कि अस्पताल से घर आता हूं फिर मुलाकात होती है. लेकिन वो मुलाकात इस तरह होगी इसकी रत्ती भर भी आशंका नहीं थी. उनकी आवाज के जोश और बुलंदी से जरा भी नहीं लगा कि ये बातचीत आखिरी होने वाली है. उस आखिरी बातचीत में पूरी चर्चा बिहार की राजनीति और अपने बेटे चिराग पर करते रहे. बिहार के लिए अपनी पार्टी के बिहारी फर्स्ट के नारे को लेकर काफी उत्साहित थे. बातचीत में वही जुझारू अंदाज औऱ हार नही मानने वाली जिद थी लेकिन कुछ ही दिनों में अस्पताल से उनकी तबियत ज्यादा बिगड़ने की खबरें आने लगीं. करीबी हौसला खोने लगे थे और फिर...


रामविलास पासवान उस पीढ़ी के नेताओं में से थे जिनके संबंध पार्टी से उपर उठकर हर दल के नेता के साथ थे. राजनीतिक विरोधी होने के बावजूद निजी रिश्ते थे. उन्होंने सत्ता में भागीदारी, पद, नाम, सम्मान के साथ साथ दोस्ती भी बेशुमार हासिल की. रामविलास पासवान ने जमीन की राजनीति की लेकिन अपनी आवाज को ज्यादा लोगों तक पहुंचाने में मीडिया की अहमियत उन्हें बखूबी समझ आती थी. इसलिए प्रिंट से लेकर टीवी तक वो सबके लिए सहज उपलब्ध नेता बने रहे. पत्रकारों के लिए वो एक ऐसे नेता थे जिनसे मिलना या बात करना मुश्किल नहीं था. सरकार में हों या सरकार से बाहर, यूपीए का दौर हो फिर एनडीए का वो पत्रकारों के लिए हमेशा उपलब्ध रहे. उनसे बात करना राजनीति के कई अनदेखे पन्ने पढ़ने जैसा होता था.


पांच दशक की राजनीति की अनेकों घटनाएं, किस्से, बातें और मौजूदा राजनीति की बारीकी भी बड़े सुलझे अंदाज में बयान कर जाते थे. उनके पूरे व्यक्तित्व में एक सहजता थी. रिश्ते बनाने और निभाने दोनों में अव्वल थे. रिपोर्टिंग के दौरान उनसे हुआ परिचय आखिरी वक्त तक बना रहा. आप जाएं नहीं जाएं फोन करें नहीं करें लेकिन वो खुद फोन कर हालचाल जरूर पूछेंगे. फोन पर गर्मजोशी के साथ आवाज आती थी. नमस्कार कैसे हैं आप! कई सारी यादें हैं. इन अनुभवों को यहां समेटना मुश्किल है. खबरों में आप उनकी आलोचना तब भी उन्हें आपसे शिकायत नहीं होगी. कम से कम मेरे साथ तो ऐसा होता रहा..


फरवरी 2005 में जब पासवान जी बिहार के सत्ता की चाबी होने का दावा कर रहे थे तो कवरेज में उनसे तीखे सवाल पूछे. उनकी राजनीति पर सवाल उठाने के बावजूद जब भी उनसे मिली वो उसी अपनेपन से मिले. आलोचना की ना कोई शिकायत ना नाराजगी. किसी ने उनसे कहा कि देखिए ये तो ऐसा बोल रही थीं तो उन्होंने पलट कर कहा कि हमको उससे क्या मतलब वो अपना काम कर रही थीं. दरअसल वो उस पीढ़ी के नेता थे जो पत्रकारों के काम को सम्मान देते थे और मानते थे कि सवाल करना उनकी पेशेगत जिम्मेदारी है.


एक और घटना है. बिहार के ही एक औऱ बड़े नेता हैं. किसी खबर में अपनी आलोचना से वो नाराज हो गए थे. पासवान जी को पता चला तो वो उस नेता पर ही नाराज होने लगे कि ये कौन सी बात है, जान-पहचान होने का मतलब ये थोड़ी है कि कोई अपना काम नहीं करे.



(फोटो- gettyimages.in)

एक और करीब तीन-चार साल पुरानी घटना, शायद मकर संक्रांति का मौका था, उनके घर पर कुछ पत्रकार बैठे थे. बातचीत में चर्चा ये होने लगी कि किसका झुकाव किस विचारधारा या पार्टी की तरफ है. पासवान जी बोले कि सबका होता है आपलोगों का भी तो थोड़ा थोड़ा होता ही है. एक एक कर सबके बारे में वो बता रहे थे कि आपका हमको इधर लगता है, आपका उधर लगता है. बारी मेरी आई तो बोले कि इनको हम इतने साल से जानते हैं लेकिन अभी तक कुछ समझ ही नहीं आता है कि ये किधर हैं. कभी लगता है कि इधर हैं और अगले ही दिन लगता है कि ना उधर हैं. सबपर की जा रही उनकी टिपण्णियों पर ठहाके लगते रहे, किसी पत्रकार ने बुरा नहीं माना. नए से लेकर पुराने अनुभवी पत्रकारों तक सबके साथ वो उतने ही सहज और आत्मीयता से बात करते थे..

रामविलास पासवान जुझारू नेता तो थे लेकिन उनकी भाषा में आक्रामकता नहीं थी. मंडल आयोग की बात हो या निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण की बात हो दूसरे संवैधानिक प्रावधानों की आक्रामक रूख होते हुए भी उन्होंने भाषा का संयम नहीं खोया. शायद यही वजह है दलित नेता की पहचान के बावजूद उनकी स्वीकार्यता सबमें थी, उनको लेकर कड़वाहट नहीं थी. उनके स्वभाव का ये लचीलापन उनकी राजनीति में भी दिखता रहा. लोहिया और जेपी की विचारधारा के नजदीक रहते हुए भी उन्होंने उसे अपने राजनीतिक फैसलों के आड़े नहीं आने दिया. भले ही वो राजनीति के केन्द्र में नहीं रहे लेकिन केन्द्र की राजनीति करते रहे. लगातार केन्द्र की सत्ता का हिस्सा बने रहे. वो हमेशा उधर नज़र आए जिधर सरकार बनने की संभावना थी. उनके विरोधियों ने उन्हें मौसम विज्ञानी कहना शुरू कर दिया. मतदाता का मूड भांप लेने की जिस राजनीतिक सूझ का लोहा मानना चाहिए उसे मौसम विज्ञानी कहना गहरी पकड़ का माखौल था. उनके राजनीतिक मूल्यांकन को हल्का करना था.

पांच दशक के उनके राजनीतिक सफर में भारतीय राजनीति में कई अहम मोड़ आए, उसकी दिशा बदल. इमरजेंसी के आंदोलन से लेकर मंडल आयोग को लागू होने के दौर की राजनीति और फिर राम मंदिर आंदोलन आंदोलन और उसके बाद की राजनीति. देश की राजनीति बदलती रही. हर बदलाव में पासवान दलितों और अल्पसंख्यकों की मुखर आवाज बने रहे. राजनीति में उनके नाम सफलता की कहानियां ज्यादा रही. चाहे वो रिकार्ड वोट से जीतने का रिकार्ड या फिर अलग अलग पांच प्रधानमंत्रियों के साथ काम करना. रामविलास पासवान के पास कोई विरासत नहीं थी, वो शून्य से शुरू कर यहां तक पहुंचे थे.


गुजरात दंगे के मुद्दे पर वाजपेयी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर एनडीए से अलग होने और 2005 में बिहार में मुस्लिम मुख्यमंत्री की जिद पर अड़ने वाले रामविलास पासवान की राजनीति पर पिछले सालों में कई सवाल उठे. खासतौर पर जब वो नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार में शामिल हुए. लेकिन शायद इस राजनीतिक समझौते में आगे की राजनीति के रास्ते का विस्तार था. क्या पता उनका ये फैसला बेटे के भविष्य पर टिका फैसला रहा हो ? पिछले सालों में उनसे बातचीत में वो सबसे ज्यादा चर्चा अपने बेटे चिराग पासवान की करते थे. चिराग को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने के बाद ज्यादातर उनके सूझ बूझ और जिम्मेदार होने की बातें करते थे. रामविलास पासवान ऐसे वक्त में गए जब उनके बेटे ने बिहार को लेकर एक अहम औऱ मुश्किल राजनीतिक फैसला किया है.. अब चिराग के उपर अपनी उस राजनीतिक सूझबूझ को साबित करने की चुनौती है जिसका भरोसा उनके पिता को था.


रामविलास पासवान राजनीति में बदलाव को स्वीकार करते थे. साथ ही वो ये भी समझते थे भले ही राजनीति बदले लेकिन आम जनता की भावनाएं वही रहती है.. वो जनता की उन भावनाओं के साथ जुड़े थे. उनके दिलों की आवाज सुन लेते थे उसका भाव समझ लेते थे, उसे अपनी आवाज देते थे. रामविलास पासवान का जाना दलित, शोषित, वंचित हितों के प्रभावशाली आवाज़ का खामोश होना है. गरीबों और जरूरतमंदों के एक प्रखर पैरोकार को खोना है.