BLOG: EVM मशीनों की अविश्वसनीयता का जिन्न हमें ले डूबेगा!
ईवीएम की विश्वसनीयता से जुड़े विवाद का जिन्न पर्वताकार होता जा रहा है. एमपी के भिंड ज़िला की अटेर विधानसभा सीट के लिए 9 अप्रैल को होने जा रहे उप-चुनाव की तैयारियों के सिलसिले में जब प्रदेश की मुख्य चुनाव अधिकारी सेलीना सिंह ने पत्रकारों के सामने ईवीएम का डेमो किया तो बटन किसी और का दबता था, पर्ची प्रायः बीजेपी की निकलती थी. मशीन में वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) लगी हुई थी. इसी के चलते मशीन में गड़बड़ी की पोल खुल गई. घटना के राष्ट्रीय पटल पर आते ही ज़िला के एसपी अनिल सिंह कुशवाह और कलेक्टर इलियाराजा टी. समेत कई अधिकारी-कर्मचारी नप गए. कलेक्टर साहब का कहना था कि ये मशीनें यूपी के कानपुर से आई हैं जहां पिछले दिनों विधानसभा चुनाव संपन्न हुए हैं और मशीनों का कैलीब्रेशन किया जाना शेष था. उनके इस बयान ने आग में घी का काम किया.
फिर क्या था! अब तक बूथ लेवल पर हार-जीत का विश्लेषण करने की बात करने वाले पूर्व यूपी सीएम अखिलेश यादव के सब्र का बांध भी टूट गया और वह चुनाव आयोग से इसकी आधिकारिक जांच की मांग करने लगे. बीएसपी सुप्रीमो मायावती हार के पहले दिन से ही ईवीएम मशीनों से छेड़छाड़ का आरोप लगा रही थीं. अरविंद केजरीवाल ने तो यहां तक कह दिया कि अब बीजेपी सारे चुनाव जीतेगी और ईवीएम के दलदल से कमल खिला करेगा! लालू प्रसाद यादव का आरोप है कि चूंकि ईवीएम प्रोजेक्ट का गढ़ गुजरात है इसलिए इसमें छेड़छाड़ की आशंका को दरकिनार नहीं किया जा सकता. हालांकि बीजेपी समर्थकों का इस मामले में शुरू से ही यह कहना रहा है कि विरोधी दल हार की बौखलाहट में ईवीएम मशीनों से छेड़छाड़ का आरोप लगा रहे हैं. लेकिन सवाल उठता है कि अगर मशीन में गड़बड़ी नहीं थी तो एसपी-कलेक्टर को चुनाव आयोग ने क्यों हटाया?
चुनाव सुधार प्रक्रिया में भारत बैलेट पेपर से ईवीएम मशीनों की तरफ आया है. लेकिन बैलेट पेपर के ज़माने में होने वाली बूथ कैप्चरिंग, ट्रक के ट्रक मतपत्र बदलने और चुनावकर्मियों के साथ होने वाली हिंसक घटनाएं जिन्हें याद हैं, वे इसे दोबारा लागू करने की सलाह सपने में भी नहीं देंगे. मगर उस ज़माने की घटनाएं पकड़ में आ जाती थीं और दोबारा मतदान करा लिए जाते थे. ईवीएम मशीनों की गड़बड़ी आसानी से पकड़ में नहीं आती. जब तक कुछ समझ में आता है, तब तक नई सरकार कामकाज शुरू कर चुकी होती है.
बीजेपी समेत कई राजनीतिक दल इस संबंध में व्यवस्था मांगने के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण में चले गए थे. दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट से मिले निर्देशों के बाद चुनाव आयोग ने ईवीएम मशीनों के साथ वीवीपीएटी लगाने के लिए केंद्र सरकार से दसियों बार ख़रीदारी को कहा. लेकिन सरकार ख़ामोश रही. ताज्जुब की बात है कि मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम ज़ैदी द्वारा सीधे पीएम मोदी से गुजारिश करने के बावजूद कोई नतीजा नहीं निकल रहा. इससे सरकार की मंशा पर जनता का शक़ बढ़ता ही है.
वीवीपीएटी से निकलने वाली पर्ची मतदाता को आश्वस्त करती है कि उसका वोट इच्छित उम्मीदवार/पार्टी को ही गया है. सिर्फ ईवीएम मशीनें मतदान का फुल फ्रूफ विकल्प नहीं हो सकतीं. यूपी विधानसभा चुनावों के चौथे चरण के दौरान इलाहाबाद की सोरांव सीट के बूथ क्रमांक 13 पर ईवीएम मशीन ने 2699 वोट दिखाए थे, जबकि वहां कुल मतदाता ही 1080 थे. एक ऐसा ही मामला वृहन्नमुंबई महानगरपालिका चुनाव के बाद तब सामने आया जब वार्ड क्रमांक 164 से चुनाव लड़ने वाले निर्दलीय प्रत्याशी श्रीकांत शिरसाट को खुद का वोट भी नहीं मिला और ईवीएम ने शून्य वोट दर्शाया! इससे ठीक पहले महाराष्ट्र में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों के दौरान तो ईवीएम मशीनों की अनियमितताओं के चलते कई जगह लाठियां चल गई थीं और आरोप लगा था कि वे मशीनें बीजेपी शासित राज्य एमपी से गई थीं. ईवीएम की पहली गड़बड़ी 2004 में असम में दर्ज़ की गई थी जब वहां ईवीएम डेमो के दौरान कोई भी बटन दबाने पर वोट बीजेपी को ही पड़ रहा था. लोगों के मन में आशंका के बीज तभी से पड़ गए थे जो अब कुशंकाओं के कैक्टस बन चुके हैं.
बड़े-बड़े कम्प्यूटर इंजीनियरों, विदेशी इथिकल हैकरों और विशेषज्ञों ने माना है कि ईवीएम मशीनों के साथ छेड़छाड़ मुमकिन है. यूट्यूब पर दसियों वीडियो मिल जाएंगे जो इसे बाक़ायदा संभव करके दिखाते हैं. बीजेपी समर्थकों का दावा है कि मतदान से पहले ईवीएम मशीनों की फंक्शनिंग पूर्ण पारदर्शी ढंग से सभी पक्षों को दिखाई जाती है. लेकिन विशेषज्ञ बताते हैं कि यदि सोर्स कोड हासिल करके ईवीएम की चिप में लूप लगा दिया जाए तो वोटों को एक निश्चित संख्या के बाद तितरबितर किया जा सकता है.
याद होगा कि 2009 में जब महाराष्ट्र समेत तीन और राज्यों के विधानसभा चुनाव होने जा रहे थे तब बीजेपी के दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव आयोग पर ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर सवाल उठाते हुए राजनीतिक हलकों में तूफान मचा दिया था. आज के बीजेपी प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने तो ईवीएम की धज्जियां उड़ाने के लिए तब अंग्रेज़ी में एक पूरी किताब ही लिख दी थी. सुब्रमण्यम स्वामी भी ईवीएम के सख़्त विरोधी थे. लेकिन आज यूपी और उत्तराखंड की अप्रत्याशित और प्रचंड जीत के बचाव में बीजेपी नेता कह रहे हैं कि पंजाब में ऐसा क्यों नहीं हुआ? गोवा और मणिपुर में ऐसा क्यों नहीं हुआ आदि आदि.
हारे हुए दलों को बौखलाहट हो सकती है. लेकिन इसकी सुप्रीम कोर्ट या केंद्रीय संसदीय समिति से जांच करा लेने में क्या हर्ज़ है? दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा! जीत की विश्वसनीयता भी बढ़ेगी और लोकतंत्र की लाज भी बच जाएगी. क्योंकि यहां सवाल महज आरोप-प्रत्यारोप अथवा प्रचंड जीत-हार का नहीं बल्कि भारतीय जनता के अपने ही कमाए लोकतंत्र में भरोसा खो जाने का है. यह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान दी गई लाखों क़ुरबानियों और उनके बदले हासिल मूल्यों के क्षरण का मामला है. यह संविधान प्रदत्त राजा और रंक के वोट की एकसमान कीमत बरकरार रखने का संकट है.
जर्मनी, ब्रिटेन, जापान, नीदरलैंड जैसे कई विकसित देश पहले ही ईवीएम पर भरोसा खो चुके हैं. भारत में अगर ईवीएम मशीनों की चाल से हमारे महान लोकतंत्र का चरित्र और चेहरा विकृत हो रहा है तो इसका ख़ामियाज़ा पूरे देश को भुगतना पड़ेगा. इसलिए फौरी जीतों का मज़ा लेने की बजाए देश के जिम्मेदार राजनीतिक दलों को फौरन ही मतदान प्रक्रिया का कोई विश्वसनीय, पारदर्शी और मुकम्मल विकल्प खोजना पड़ेगा. वरना वह कहावत चरितार्थ होते देर नहीं लगेगी कि लम्होंने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई!
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