मजदूर संगठनों की हड़तालें, व्यापारी संघों की हड़तालें, ट्रांसपोर्टरों की हड़तालें, विभिन्न कर्मचारी संगठनों की हड़तालें तो सुनी थीं, लेकिन किसानों की हड़ताल? जी हां! महाराष्ट्र में किसानों ने हड़ताल कर दी. वे न तो दूध, फल, सब्जियां, पोल्ट्री उत्पाद और मीट कहीं ले गए और न किसी को ले जाने दिया. अहमदनगर, नासिक, सांगली, सातारा, कोल्हापुर, सोलापुर, नांदेड़, जलगांव, अर्थात तटीय कोंकण का हिस्सा छोड़ दें तो लगभग समूचा महाराष्ट्र इस हड़ताल की जद में आ गया. यही वे जिले भी हैं जो पश्चिमी महाराष्ट्र, मुंबई, मराठवाड़ा और उत्तरी महाराष्ट्र को दूध-सब्जी की आपूर्ति करते हैं. मुंबई, नवी मुंबई, ठाणे, औरंगाबाद और नागपुर की तरफ जो वाहन यह तमाम सामग्री लेकर जा रहे थे उन्हें बीच रास्ते से वापस कर दिया गया. जो जबरन या बेध्यानी में माल लेकर निकल रहे थे उनकी सब्जियां रास्ते में फेंक दी गईं, दूध सड़कों पर बहा दिया गया और मुर्गियां हवा में उड़ा दी गईं!


यह नौबत इसलिए आई कि महाराष्ट्र के सीएम देवेंद्र फणनवीस ने लंबे समय से आंदोलनरत किसानों को अपने बंगले पर चर्चा के लिए बुलाया था. किसान मांग कर रहे थे कि उनके सभी कर्ज़ माफ़ किए जाएं, मूल्यनिर्धारण को लेकर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की जाएं, खेती के लिए बिना ब्याज का कर्ज़ मिले, 60 साल से ज़्यादा उम्र वाले किसानों को पेंशन दी जाए, दूध के दाम 50 रुपए प्रति लीटर किए जाएं, बिजली दरें कम से कम की जाएं. लेकिन ‘किसान क्रांति संघटना’ की कोर कमेटी के सदस्य धनंजय जाधव का कहना है कि सीएम साहब सिर्फ अपनी उपलब्धियां ही गिनाते रहे, किसान कर्ज़माफी पर उन्होंने कोई वादा नहीं किया. स्वाभिमानी शेतकारी संघटना के नेता और सांसद राजू शेट्टी ने 22 से 30 मार्च तक पश्चाताप यात्रा निकाली थी जिसके बाद सरकार ने किसानों से उनका 30 हजार करोड़ का कर्ज माफ करने का वादा किया था. लेकिन सीएम से निराशा हाथ लगने पर किसानों ने आख़िरकार गुरुवार से हड़ताल शुरू कर ही दी.


‘किसान क्रांति संघटना’ के संयोजन में शुरू हुई देश की यह पहली किसान हड़ताल है, जो अब महाराष्ट्र समेत मध्यप्रदेश को भी अपनी लपेट में ले चुकी है. एमपी के इंदौर, उज्जैन, धार, झाबुआ, नीमच, मंदसौर जैसे शहरों की डेरियों और सब्जी मंडियों में पुलिस बल तैनात है फिर भी हालात बेकाबू हैं. देश की पहली किसान हड़ताल की तपिस पड़ोसी राज्य गुजरात और कर्नाटक भी महसूस कर रहे हैं. बता दें कि महाराष्ट्र की एपीएमसी मंडियों में 50-60% सब्जियां इन्हीं राज्यों से आती हैं.


किसानों के हिंसक और आगबबूला होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि चाहे राज्य सरकारें हों या केंद्र सरकार या किसी भी पार्टी की सरकार, सब उन्हें गरीब की लुगाई समझती हैं. कर्ज़ का बोझ डालने के अलावा विकास के नाम पर उनकी जब चाहे ज़मीन हड़प ली जाती है. अभी नासिक जिले के किसानों की हजारों एकड़ कृषि भूमि मुंबई-नागपुर समृद्धि कॉरीडोर के नाम पर अधिग्रहीत कर ली गई है. पिछले साल तुअर दाल की आसमान छूती कीमतों के बाद पीएम मोदी के आवाहन पर महाराष्ट्र के किसानों ने इस साल रिकॉर्डतोड़ तुअर पैदा की लेकिन सरकार पूरी ख़रीद नहीं रही. पिछले एक साल में प्याज, टमाटर, शिमला मिर्च और सोयाबीन का रेट रसातल में चला गया जबकि फसलों की तुड़ाई महंगी हो गई. सूखे की मार सहते-सहते कर्ज़ चुकाना तो दूर वे अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पा रहे, बच्चियों की शादियां नहीं कर पा रहे! लेकिन कोई भी सरकार सत्ता में आते ही दावा करने लगती है कि उसके राज में किसान ज़्यादा ख़ुशहाल हैं. किसान की लाश को खाद बनाकर राजनीति की फसल काटी जाती है.


पीएम नरेंद्र मो

दी ने वादा किया था कि वह पांच सालों में किसानों की आय दुगुनी कर देंगे. लेकिन हुआ यह कि एक ही साल में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या लगभग दुगुनी हो गई! ‘एक्सीडेंटल डेथ एंड सुसाइड इन इंडिया' शीर्षक से प्रकाशित एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार 2014 में जहां आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5,650 थी, वहीं 2015 में यह 8,007 हो गई. महाराष्ट्र में 2015 में 3,030 किसानों ने आत्महत्या की, तेलंगाना में 1,358 और कर्नाटक में 1,197 किसानों ने जान दे दी.


छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी 854 किसानों ने जिंदगी के बदले मौत को चुना. मध्यप्रदेश और आंध्र प्रदेश में भी कई किसानों ने आत्महत्या की. इसकी मुख्य वजह यह है कि अशिक्षा और गरीबी के चलते सरकार की किसान कल्याण योजनाओं का लाभ किसानों को नहीं बल्कि बिचौलियों को मिलता है. जब कुछ किसान आत्महत्या की जगह संघर्ष या विरोध प्रदर्शन का रास्ता चुनते हैं तो उन्हें पुलिस से पिटवाया जाता है या उनका मज़ाक बनाया जाता है, जैसे कि दिल्ली के जंतर-मंतर पर तमिलनाडु के किसानों के साथ हुआ.


यह देख कर भी किसानों का जी जलता है कि उनकी वार्षिक औसत आय सरकारी दफ़्तर में काम करने वाले चपरासी से भी कम है जबकि वे अन्नदाता कहे जाते हैं. वे यह गणित भी नहीं समझ पाते कि जब देश के बड़े-बड़े बिजनेसमैनों का 154000 करोड़ रुपयों का भारीभरकम लोन बट्टा खाता में डाला जा सकता है तो उन गरीबों का मामूली कर्ज़ माफ क्यों नहीं किया जा सकता!


हालांकि यूपी में हुई कर्ज़माफी ने महाराष्ट्र के किसानों की उम्मीद बढ़ा दी थी. लेकिन कर्ज़माफी और अपनी फसलों का उचित दाम मांगने गए किसानों को मंत्रालय के दरवाज़े पर पिटवाया गया. जाहिर है वे और अपमान झेलकर देश की सबसे मजबूर बिरादरी नहीं बने रहना चाहते. सहनशील होने के बावजूद वे देश के महान नील विद्रोह, तेभागा, तेलंगाना, मोपला, कूका, रामोसी, रंपा, बारदोली और पाबना जैसे किसान आंदोलनों की अपनी महान विरासत को समझते हैं. अहमदनगर के पुणतांबा गांव से शुरू हुई उग्र किसान हड़ताल को संभालने की बारी अब केंद्र और राज्य सरकारों की है. क्योंकि बात शहरों में कुछ दिन दूध, फल, सब्जी और राशन-पानी की किल्लत तक ही सीमित रहने वाली नहीं है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)


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