सौमित्र चटर्जी के बहाने, पूरे जीवन को फिर बचपन से जीने की चाह
देश में कला, संस्कृति और बौद्धिक जगत की ऐसी कई हस्तियां हुई हैं जिन्होंने पारंपरिक सोच के आगे समर्पण नहीं किया और विदेशी-अंग्रेजी संसार में भी अपनी जगह बनाई.
बीते 15 नवंबर को जब सौमित्र चटर्जी का निधन हुआ तो मुझे लगा जैसे सदा स्पंदित रहने वाला मेरे बचपन का कोई हिस्सा मुझसे जबर्दस्ती झटक कर अलग कर दिया गया है. संभवतः पूरे भारत और खास तौर पर पश्चिम बंगाल में सत्यजित रे के मुरीदों को भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ हो, जो उनके सिनेमा के माध्यम से सौमित्र के लंबे करियर को अपने जीवन के समानांतर देखते आ रहे थे. सौमित्र ने रे की अपू त्रयी (1955-1959) के तीसरे खंड में अपनी भूमिका से लोकप्रियता के संसार में कदम रखा. फिल्म अपूर संसार (1959) में वह ऐसे युवक की भूमिका में थे, जो गांव में पुजारी परिवार का वंशज है, मगर कलकत्ता महानगर के रोमांच और खतरों से भरे जीवन के लिए अपनी जमीन और रिश्तों को छोड़ देता है. कहा जाता है कि रे उन्हें त्रयी की दूसरी फिल्म अपराजितो में कास्ट करना चाहते थे परंतु किशोर अपू की भूमिका के लिए सौमित्र की उम्र अधिक हो चुकी थी. इसके बावजूद सौमित्र ने युवा अपू की भूमिका निभाते हुए ऐसा असर पैदा किया कि लगता था मानों नन्हें और किशोर अपू की भूमिका में भी वही थे. कहने को इस त्रयी के साथ अपू की जीवन गाथा पूरी हो जाती है परंतु इसने तमाम युवाओं के जीवन को इस तरह प्रभावित किया था कि उनके जीवन में अपू की कहानी चलती रही. खुद सौमित्र चटर्जी के जीवन पर इसका ऐसा प्रभाव रहा की वह ताउम्र इसकी छवि से बाहर नहीं आ सके. वह खुद मानो अपू बन गए.
देश में कला, संस्कृति और बौद्धिक जगत की ऐसी कई हस्तियां हुई हैं जिन्होंने पारंपरिक सोच के आगे समर्पण नहीं किया और विदेशी-अंग्रेजी संसार में भी अपनी जगह बनाई. इन्हीं में सौमित्र चटर्जी भी थे. उन्होंने पुनर्जागरण पैदा करने वाली शख्सीयत की तरह अपनी पहचान और जगह बनाई. उनका नाम पूरे भारत समेत संसार भर में बांग्ला सिनेमा के श्रेष्ठतम अभिनेताओं में शुमार किया गया. शोहरत सदा उनके पीछे चलती रही और यही वजह है कि उनके हिस्से में बड़े सम्मान और अलंकरण आए. जिनमें पद्मभूषण (2004) और भारतीय सिनेमा में अप्रतिम-अविस्मरणीय योगदान के लिए दिया जाने वाला दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड (2012) भी शामिल है. बीती कई सदियों से फ्रांसिसी खुद का वैश्विक संस्कृति का पारखी मानते हैं और उन्होंने सौमित्र चटर्जी की प्रतिभा को लीजन ऑफ ऑनर (2018) देकर सम्मानित किया. कलकत्ता में चटर्जी लार्जर-दैन-लाइफ हस्ती थे. यहां रंगमंच पर भी वह अभिनेता, निर्देशक और नाटककार के रूप में वट-वृक्ष की तरह विराजमान थे. उनके कॉमेडी नाटक घटक बाइडे के करीब 500 शो हुए. वह निपुण कवि और निबंधकार थे. करीब 30 पुस्तकें उन्होंने लिखी. पेंटिंग में भी उनका हाथ सधा हुआ था. हम यह भी कैसे भूल सकते हैं कि चटर्जी करीब 300 फिल्मों में आए. तपन सिन्हा, मृणाल सेन, ऋतुपर्णो घोष और अपर्णा सेन समेत अपने समय के लगभग सभी प्रमुख बंगाली फिल्म निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया.
बावजूद इसके सौमित्र चटर्जी ने खुद स्वीकार किया कि दुनिया उन्हें मुख्य रूप से रे साथ की गई फिल्मों के लिए ही याद रखेगी. कमोबेश यह सच भी है. चटर्जी ने रे की चौदह फिल्मों में काम किया और अपने अभिनय कौशल की विविधता के साथ निखर कर आए. अभिजन (1962) में वह गर्म-मिजाज राजपूत टैक्सी ड्राइवर नरसिंह के रूप में दिखे. अमेरिकी पश्चिमी फिल्में ऐसा हीरो होता तो वह घोड़े पर नजर आता और नायिका को संभवतः उपेक्षित छोड़ कर जंगल में चला जाता. नरसिंह भी यहां किसी महिला की जगह अपनी 1930 की क्रिसलर कार-टैक्सी पर ही अधिक ध्यान केंद्रित करता है. ऐसा लगता है कि मार्टिन स्कॉरसिस की टैक्सी ड्राइवर (1976) के ट्रेविस बिकल (रॉबर्ट डी नीरो) का किरदार नरसिंह के आधार पर ही गढ़ा गया है. रे की ही अशनि संकेत (1976) में चटर्जी ने नरसिंह से विपरीत भूमिका निभाई. यहां वह आदर्शवादी डॉक्टर बने. फिल्म 1943 में बंगाल में पड़े भीषण अकाल की पृष्ठभूमि पर थी. रे के कई चाहने वाले इसे उनकी अन्य फिल्मों से ऊंचा स्थान देते हैं. मगर यहां रे की चारूलता (1964) भी है, जिसे उनके प्रशंसक सबसे ऊपर रखते हैं. इस फिल्म में चटर्जी ने युवा और आकर्षक अमल की भूमिका निभाई थी, जो अपने बड़े चचेरे भाई भूपति के घर आता है. साहित्य तथा संगीत में अमल और भूपति की खूबसूरत पत्नी की समान रुचियां हैं और यहां पैदा होने वाले भावुक-स्नेहल-अंतरंग क्षणों को रे के जैसा किसी ने सिनेमा के पर्दे पर चित्रित नहीं किया है.
इन तमाम बातों के बीच यही कहा और माना जाता है कि अपूर संसार चटर्जी के करिअर का श्रेष्ठतम मील का पत्थर है. विश्व सिनेमा के दिग्गज निर्देशक और रे के समकालीन अकीरा कुरुसावा ने इस महान फिल्मकार के बारे में लिखा है कि उनकी फिल्मों में मानवता की गहरी समझ और इंसानियत के लिए प्यार मुझे सबसे बड़ी खूबी दिखाई देती है. उनकी इस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया है. अगर आपने रे का सिनेमा नहीं देखा तो इसका यही मतलब है कि आपने इस संसार में रहते हुए भी सूरज और चांद के दर्शन नहीं किए. उन्होंने पाथेर पांचाली (1955) देखने के बाद पैदा हुई अपनी भावनाओं और उत्साह का भी जिक्र किया है. निःसंदेह उन्हें यह भी अनुमान रहा होगा कि त्रयी के दूसरे और तीसरे हिस्से में क्या होगा. यह अलग बात है कि रे ने अपू की कहानी की त्रयी (ट्रिलॉजी) के रूप में कल्पना नहीं की थी. पाथेर पंचाली जहां अपू की बहन दुर्गा की मृत्यु के बाद गांव में उसके पिता द्वारा पुरखों का मकान छोड़ कर जाने के फैसले पर खत्म होती है, वहीं अपराजितो (1956) का अंत अपू की मां की मृत्यु के पश्चात उसके कलकत्ता लौटने और वहां स्कूल की परीक्षा में बैठने के निर्णय के साथ होता है.
अपूर संसार (1959) की शुरुआत में ही सौमित्र अपूर्व कुमार रे के रूप में नजर आते हैं. जो सिटी कॉलेज कलकत्ता में इंटरमीडिएट साइंस क्लाइस का छात्र है. वह संवेदनशील और मेहनती है. उससे आपको सहानुभूति महसूस होती है और उसे आप प्रोत्साहित करने चाहते हैं. हालांकि यह जगह फिल्म के कथानक और स्ट्रक्चर पर बात करने के लिए नहीं है मगर यह कहने में हर्ज नहीं कि फिल्म में अपू बदली हुई असामान्य परिस्थितियों में अचानक खुद को एक युवती से विवाहित पाता है, जबकि उसने मुश्किल से किसी लड़की के साथ एकाध शब्द का संवाद किया है. रे के शुरुआती सिनेमा की ‘विशुद्ध सिनेमा’ कहते हुए व्याख्या की गई है परंतु इसके लिए सही शब्द है, दृश्य-काव्य. जिस तरह से रे की इन फिल्मों में शांति तथा गति का संगम होता है और ये मिलकर कहानी की नई परतें खोल कर सामने रखते हैं, वह किसी संवाद के माध्यम से भी व्यक्त नहीं की जा सकतीं. कई बार तो रे के सिनेमा में यह सब कुछ इतने अविश्वसनीय ढंग से घटता है कि दिल उस पर भरोसा नहीं करना चाहता. रे ने अपू और अपर्णा (शर्मीला टैगोर) के वैवाहिक जीवन को बेहद लुभावनी सादगी, लालित्य और बारीकी से चंद ही दृश्यों में समेटा है. सेंसरशिप में शारीरिक संपर्क के दृश्यों की इजाजत या गुंजाइश नहीं रहती मगर किसी भी स्थिति में रे का ऐसा कुछ भी दिखाने का रत्ती भर इरादा कभी नहीं रहा. अपर्णा सुबह जागती है और अपू उसके बगल में लेटा है. वह जैसे ही बिस्तर से उठ कर जाने को होती है, तो पाती है कि उसकी साड़ी और अपू के कुर्ते की गांठ बंधी है. इस शरारत के लिए वह अपू की पीठ पर हल्की चपत लगाते हुए गांठ खोलती है. जबकि जब अपू की आंखों खुलती है तो वह सिरहाने रखे दो तकियों के बीच अपर्णा की हेयर-पिन पाता है. जिसे वह उठा कर देखता और फिर रख देता है. यह दृश्य अपने आप ही प्रेम-क्रीड़ा के बारे सब कुछ कह जाता है.
कौन कह सकता है कि सौमित्र चटर्जी के स्थान पर कोई और अभिनेता इस दृश्य को उनके जैसी खूबसूरती और कौशल के साथ निभा पाता. न केवल इस दृश्य को बल्कि पूरी फिल्म में ही वैसा अभिनय कर पाता. जहां सौमित्र पूरे भावावेग से नटखटपन और खुशहाल घरेलू जीवन को निभाते नजर आते हैं. जहां तमाम विभिन्न परिस्थितियों में पूरे जीवन की उमंग और उत्साह हर दृश्य में नजर आता है. लेकिन मनुष्य नश्वर प्राणी है और उसके जीवन में खुशियां सदा के लिए नहीं होती. सच यह भी है कि सिनेमा सिर्फ खुशियों के पल से नहीं बनता. बच्चे को जन्म देते हुए अपर्णा की मृत्यु हो जाती है लेकिन बेटा जीवित रहता है. पत्नी की मृत्यु से दुखी अपू अपने बेटे, काजल को त्याग देता है. कुछ बरसों के बाद दोनों मिलते हैं. किशोरावस्था की ओर बढ़ता काजल आक्रोश और क्रोध से भरा है, लेकिन धीरे-धीरे वह पिता को स्वीकार करने लगता है और दोनों के रिश्तों में पिता-पुत्र का स्नेह पनपने लगता है. मगर अपू को लगा है कि वह जीवन में सब कुछ खो चुका है और वह घर से निकल जाता है परंतु काजल कुछ दूरी बनाए हुए उसके पीछे-पीछे चलता जाता है. अपूर संसार के अंतिम क्षणों में आप कुछ महान सिनेमाई दृश्यों के गवाह बनते हैं. अंत में काजल दौड़ कर अपने पिता की बांहों में समा जाता है और पिता उसे कंधों पर बैठा कर सड़क पर आगे बढ़ता जाता है. अपू त्रयी की पहली फिल्म पाथेर पांचाली यहां समाप्त होते हुए एक नए ही अंदाज में सामने आती है. एक चक्र पूरा होता है. ऐसा लगता है कि अपूर संसार के अपू सौमित्र चटर्जी त्रयी में शुरू से ही मौजूद थे. हमेशा और सदा. अपू के रूप में सौमित्र चटर्जी को देखने की चाह ऐसी है कि जैसे एक जीवन को फिर प्रारंभ से अंत तक देखना. उस जीवन को फिर से जी लेना.