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BLOG: तो, आपके हिसाब से हम मर्दों से ज्यादा चटोरे हैं
हम गोलगप्पे, चाट-पकौड़ी खाते हैं- चटखारे के शौकीन हैं इसीलिए मुटिया गए हैं. देश के डॉक्टरों को चिंता खाए जा रही है, इसीलिए उन्होंने सलाह दी है कि औरतों को इन खानों से दूर रहना चाहिए.
हम गोलगप्पे, चाट-पकौड़ी खाते हैं- चटखारे के शौकीन हैं इसीलिए मुटिया गए हैं. देश के डॉक्टरों को चिंता खाए जा रही है, इसीलिए उन्होंने सलाह दी है कि औरतों को इन खानों से दूर रहना चाहिए. चूंकि आदमियों के मुकाबले हम ज्यादा चटोरे हैं इसलिए नुकसान उठाते हैं. हाई ब्लड प्रेशर का शिकार होते हैं. आपको ये सेक्सिस्ट कमेंट लगेगा, लेकिन क्या करें, आईसीएमआर वाले हमारे अंदेश में दुबले हो रहे हैं. आईसीएमआर किस बला का नाम है... यह सरकार की मेडिकल रिसर्च बॉडी है- भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद. काम तो इसका बायोमेडिकल रिसर्च को बढ़ावा देना है लेकिन हाल में इसके ऑल मेल पैनल-मतलब जिस पैनल में एक भी औरत नहीं थी- ने ‘औरतों की’ कथित ‘चटोरपंती’ पर जो बयान दिया, उसके पीछे कोई पुख्ता वैज्ञानिक प्रमाण पेश नहीं किया. जो मन में आया, वही बोल दिया. इधर, मन की कहने का दौर चला है. बिना किसी आधार के- कुछ भी कह दीजिए. फिर दूसरे उस बात का तर्क ढूंढने निकल पड़ते हैं- किताबें पलटते हैं- गूगल की खाक छानते हैं.
गूगल का अन्वेषण करने पर एक बात और पता चली. औरतों के मुटियाने की बेसिक वजह उनकी लपलपाती जुबान है. हेल्थीफाईमी नाम के एक डाइट ट्रैकिंग प्लेटफॉर्म का कहना है कि भारतीय औरतों के खाने में फैट की मात्रा में 7 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इसके लिए भारतीय खाने ही नहीं, विदेशी खाने भी मेन कलप्रिट हैं. इस लिहाज से देश में मौजूद इंटरनेशनल फूड चेन्स को भी कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. बर्गर, पिज्जा, सैंडविच, फ्राइड चिकन भी कम दोषी नहीं हैं- न ही चाइनीज के नाम पर बिकने वाले चटपटे चिंडीज. पर इन्हें अधिकतर बेचने वाले अकूत संपत्ति के मालिक हैं- इसलिए आलोचना से लगातार बच जाते हैं. लेकिन सवाल इस बात की नहीं कि खाने कौन से अच्छे हैं, कौन से बुरे- इस बात पर बहसियाने की जरूरत किसे है. हां, इस बात पर फरमान जारी किया जा सकता है कि औरतें ही इन्हें खा-खाकर थुलथुल हुई जा रही हैं. बीमारियों को न्यौता दे रही हैं. मर्दों का क्या है... जो बना हुआ मिल जाता है, खा लेते हैं... बेचारे.
औरतों पर लगातार नजर बनी रहती हैं. कैसे कपड़े पहनने लगी हैं, किस तरह हंसती-बोलती, चलती-फिरती हैं, अनजान लोगों से दोस्तियां करती हैं, सिगरेट-शराब पीने लगी हैं, वगैरह-वगैरह. फिर खाना-पीना क्यों पीछे रहता. अब सभी परेशान हैं कि औरतों का बीएमआई बढ़ रहा है. पिछले दिनों स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक ट्वीट किया जिसमें एक मोटी महिला के शरीर का आउटलाइन दिया गया था. कैप्शन में कहा था कि महिला मोटी इसलिए है क्योंकि वह अंडे, नॉन वेज जैसी चीजें खाती है. पतली महिला के आउटलाइन में फलों की तस्वीरें बनी थीं. इसके बाद सोशल मीडिया पर तंज कसे गए तो मंत्रालय ने यह ट्वीट हटा लिया. क्या करें... सेहत का ध्यान रखना तो सरकार का फर्ज है.
अब यह बात और है कि इस भूखे देश के बाशिंदों के लिए सरकार का स्वास्थ्य बजट सिर्फ जीडीपी का 1.3 फीसदी है. वह इस बात से परेशान नहीं कि हंगर इंडेक्स में हम खूब नाम कमा रहे हैं. 100 वें नंबर पर खड़े हैं. हमसे नीचे एशिया के सिर्फ अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे देश हैं. स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड नाम की 2017 की रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के 815 मिलियन कुपोषित लोगों में 190.7 मिलियन भारत में रहते हैं. हमारे यहां 33.5 फीसदी औरतें भयंकर रूप से कुपोषित हैं. रीप्रोडक्टिव एज यानी बच्चा पैदा करने वाली उम्र की 51.4 फीसदी औरतों में खून की कमी है. 2016 में खून की कमी के कारण जीडीपी में 22.64 बिलियन डॉलर के नुकसान का अनुमान लगाया गया था जोकि 2017-18 के स्वास्थ्य बजट का तीन गुना अधिक है. न्यूट्रिशन नाम के इंटरनेशनल जरनल की स्टडी कहती है कि भारत में 50 फीसदी मेटरनल डेथ यानी डिलिवरी के कारण होने वाली मौतों का एक कारण खून की कमी भी है. गर्भावस्था के समय मां को एनीमिया होगा तो होने वाले बच्चे की मौत भी हो सकती है, बच्चा समय से पहले पैदा हो सकता है, वह अंडरवेट हो सकता है, उसमें कोई शारीरिक-मानसिक विकृति हो सकती है. एनएफएचएस 4 का कहना है कि झारखंड में 67 फीसदी, पश्चिम बंगाल में 64 फीसदी और हरियाणा में 64 फीसदी औरतों में खून की कमी है.
बेशक, ओवरवेट एक प्रॉब्लम है लेकिन अंडरवेट का क्या... इस पर जरा नजर डालिए. लान्सेंट जरनल में 2016 में एक पेपर में कहा गया था कि दुनिया में 40 फीसदी अंडरवेट लोग भारत में पाए जाते हैं. मतलब यह कि अंडरवेट लोगों के लिहाज से भारत टॉप देश है. एनएफएचएस 4 में खुद कहा गया है कि बहुत राज्य इस मामले में अव्वल साबित हो रहे हैं. झारखंड में 35 फीसदी, गुजरात में 34 फीसदी और बिहार में 32 फीसदी लोग अंडरवेट हैं.
यूं ओवरवेट या अंडरवेट, दोनों सेहतमंद बात नहीं कही जा सकती. मोटा होना लिंग आधारित नहीं, शरीर आधारित होता है. ओवरवेट होना, लाइफस्टाइल प्रॉब्लम है, पर आबादी का अंडरवेट होना, इस बात का सबूत है कि हमने संसाधनों का उचित बंटवारा नहीं किया है. दिन में किसी भी एक समय भरपेट खाना मिलना अब भी करोड़ों लोगों की सबसे बड़ी समस्या है. राइट टू फूड मिल नहीं रहा है. तिस पर आंगनवाड़ियों में राशन बांटने की बजाय कैश ट्रांसफर पर विचार किया जा रहा है. और हमारी औरतें गोलगप्पे गटक रही हैं.
ये औरतें ही हैं जो अपनी सेहत का भी सबसे ज्यादा ध्यान रख रही हैं. बेंगलूर के स्टार्टअप हेल्थीफाईमी का ही कहना है कि औरतों ने पहले से ज्यादा वर्कआउट करना शुरू किया है. देश के 220 शहरों की 20 लाख से अधिक औरतों के फूड और वर्कआउट लॉग्स से इस प्लेटफॉर्म ने यह निष्कर्ष निकाला है. औसत निकाला जाए तो वे 18,000 स्टेप्स हर हफ्ते चलती हैं. हर हफ्ते लगभग 1750 कैलोरी बर्न करती हैं. उन्होंने भले ही घरेलू काम करना कम किया है लेकिन फिटनेस एक्सरसाइज, क्रंचेज 30 फीसदी बढ़े हैं. साइकिलिंग में तो 100 फीसदी का इजाफा हुआ है. वे रस्सी कूदती हैं, भागती हैं, जॉगिंग करती हैं, योग करती हैं, बैडमिंटन-टेनिस खेलती हैं.
फिर गोलगप्पे, टिक्की, भल्ले पापड़ी खाना सिर्फ औरतों का शौक नहीं, मर्दों की लत है. आप चाट के ठेलों का दौरा कीजिए- गिनिए कि इस बेटल ऑफ सेक्सेज में कौन जीतता है... प्रतियोगिता भी की जा सकती है. औरतों के फूड हैबिट्स अक्सर आदमियों की च्वाइसेज से तय होते हैं. पिछले साल राजस्थान न्यूट्रिशन प्रॉजेक्ट नाम की एक स्टडी में यह पाया गया है कि अधिकतर औरतों को परिवार में बचा-खुचा खाना ही मिलता है. इसीलिए कम से कम, चाट के आनंददायी दोने उसके हाथ से मत छीनिए. मुटल्ले मर्दों पर भी नज़रें इनायत फरमाइए.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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