तो चार जनवरी को भी सरकार और किसानों की बातचीत में कोई फैसला नहीं हो सका. दोनों पक्ष जिस तरह से अपनी अपनी जिद पर अड़ गये हैं उसे देखते हुए किसी फैसले पर पहुंच पाना असंभव ही नजर आता है. तो क्या माना जाए किसानों का आंदोलन लंबा चलने वाला है. या फिर बीच का रास्ता निकलने की संभावना बनी हुई है यह रास्ता अगर आपसी बातचीत में नहीं निकला तो सुप्रीम कोर्ट रास्ता निकाल सकता है , आपको ध्यान होगा कि दिंसबर की छुटटियां होने से पहले सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार से कहा था कि आंदोलन को खत्म करने का एक रास्ता है. दरअसल सरकार ने कहा था कि आखिर कब तक किसान सड़कों पर बैठे रहेंगे हाई वे जाम करते रहेंगे. इस पर कोर्ट ने कहा था कि अगर सरकार कमेटी की रिपोर्ट आने तक तीनों कानूनों पर अमल को रोक दे तो रास्ता निकालने की कोशिश हो सकती है. तब सरकार की तरफ से पैरवी कर रहे सॉलीसिटर जनरल और एर्टानी जरनल दोनों खामोश हो गये थे और कहा था कि उन्हें यह बात तो सरकार से पूछनी पड़ेगी. बहुत संभव है कि अबतक सरकार से पूछ लिया गया होगा और सरकार ने भी अपनी तरफ से साफ कर दिया होगा कि वह किस तरह से किसान आंदोलन को खत्म करना चाहती है. अगली सुनवाई के समय भी अगर सुप्रीम कोर्ट ने यही सवाल सरकार से पूछा और जवाब हां में आया तो किसान लोहिड़ी का त्यौहार अपने गांवों में मना रहे होंगे. यह बात तय है.


बीच का रास्ता क्यों नहीं


दूसरा सवाल उठता है कि जब किसान भी किसानों का भला चाहते हैं, सरकार भी किसानों का भला चाहती है तो फिर क्यों बीच का रास्ता नहीं निकल रहा है. जब किसान भी बिचौलिओं से परेशान है और जब सरकार को भी लगता है कि दलालों को अलग करने की जरुरत है तो फिर अड़चन किस बात की है. असली अड़चन विश्वाल की है. किसानों को सरकार पर विश्वास नहीं है. उधर सरकार को यही लगता है कि आढ़तियों को अलग कर दिया गया तो सारी समस्या का समाधान हो जाएगा. यानि प्लान बी सरकार के पास नहीं है. सरकार को लगता है दलालों को मंडी से बाहर मंडी बनाकर ही हटाया जा सकता है. इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है. उधर किसानों को लगता है कि मंडी के अंदर वह सुरक्षित है, मंडी के बाहर कोई नियम कानून कायदा नहीं चलेगा. कारपोरेट अपने हिसाब से फसल की गुणवत्ता भी तय करेगा और रेट भी. मंडी के अंदर कम से कम एमएसपी पर फसल बिकने का भरोसा तो है बाहर तो यह भी नहीं है. किसानों के तर्क अपनी जगह सही है. सरकार भी सोच तो ईमानदारी से रही है लेकिन विकल्प पर विचार नहीं कर रही है.


मंडी के अंदर कोरपोरेट


विकल्प यह हो सकता है कि मंडी के बाहर मंडी नहीं खोली जाए या जो व्यवस्था चल रही है उसे वैसा ही जारी रखा जाए. मंडी के अंदर कोरपोरेट को आने दिया जाए. यानि मंडी का दायरा बढ़ा दिया जाए. मंडी के अंदर एफसीआई, नेफेड के साथ निजी व्यापार, कोरपोरेट का एजेंट सभी एक ही फसल के लिए बोली लगा रहे हों तो इससे किसान का ही लाभ बढ़ेगा. एक ही छत के नीचे सब होंगे, सबकी पर्ची कटी हुई होगी, किसान खुद को सुरक्षित समझेगा कि उसका माल नहीं डूबेगा. उसके साथ किसी तरह को कोई धोखा नहीं होगा. क्या समझौते का फार्मूला ऐसा कुछ नहीं हो सकता.


किसानों का डर


किसानों का डर है कि अनुबंध की खेती के चक्कर में उनकी जमीन जा सकती है. उन्हें डर है कि उनके साथ धोखा हो सकता है. उन्हें चिंता सता रही है कि ठेका खेती ठीक नहीं है. अगर ऐसा ही है तो सरकार ठेका खेती से जुड़े नये कानून को वापस क्यों नहीं ले लेती. इससे किसान भी खुश हो जाएगा और सरकार पर उसका विश्वास भी बढ़ेगा. आखिर कपास सोयाबीन के क्षेत्र में हमारे यहां ठेका खेती पहले से हो रही है. दस सालों से हो रही है. सरकार चाहे तो एक कमेटी बना सकती है जो किसानों के साथ बैठकर ठेका खेती के नये नियम तय कर सकती है. वैसे भी रिलाइंस ने कह दिया है कि उनका इरादा ठेका खेती में जाने का नहीं है.