संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस बार भाजपा सांसद और लोकप्रिय अभिनेता परेश रावल ने भरपूर लाभ उठाया है. सोशल मीडिया पर कश्मीरी युवक फ़ारूक़ अहमद डार का एक वीडियो वायरल होने के बाद उन्होंने ट्विटर पर लिखा था- ‘आर्मी की जीप पर किसी पत्थरबाज़ को बांधने के बजाए अरुंधति रॉय को बांधना चाहिए.’ फिल्म पार्श्वगायक अभिजीत भट्टाचार्य ने अपने देशप्रेम को प्रखर बनाते हुए इसे रीट्वीट कर दिया- ‘अरुंधति को गोली मार दी जानी चाहिए.’ इसके साथ ही उन्होंने जेएनयू छात्रसंघ की नेता शेहला राशिद द्वारा बीजेपी नेताओं के सेक्स रैकेट चलाने वाले आरोपों का जवाब देते हुए अपने मुंह को हर बार की तरह लगभग बवासीर ही बना लिया! नतीजा, उनका ट्विटर एकाउंट सस्पेंड कर दिया गया.
अभिजीत की स्वतंत्रता बचाने अजान और लाउडस्पीकर विवाद के बाद अपना सिर मुंड़ा लेने वाले अच्छे-भले गायक सोनू निगम कूद पड़े और उन्होंने विरोधस्वरूप अपना ट्विटर एकाउंट डिलीट कर दिया. हालांकि विवाद गहराने के बाद परेश रावल ने अपना ट्वीट यह कहते हुए हटा लिया है- ‘मुझे अपना 21 मई वाला ट्वीट डिलीट करने के लिए मजबूर किया जा रहा है. नहीं तो ट्विटर मेरा भी एकांउंट ब्लॉक कर देगा.’ इससे यही साबित होता है कि उन्हें न तो एक कानूननिर्माता होने के नाते अपनी जिम्मेदारी का ख़याल है, न कोई पछतावा और न ही अपने प्रतिशोधी ट्वीट से उत्पन्न हो सकने वाले ख़तरनाक हालात का कोई भान है!
पूरा घटनाक्रम इस कहावत का सटीक उदाहरण है कि ‘कौवा कान ले गया’. पहली बात तो यह कि महीने भर पहले कश्मीर में मेजर गोगोई ने चुनाव के दौरान जिस शख़्स को अपनी जीप के आगे बाँध कर घुमाया था, वह पत्थर चलाने वाला नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र में आस्था जताने वाला मतदाता था. दूसरी बात, अरुंधति रॉय ने खुद कहा है कि कश्मीर मामले पर साल भर से उन्होंने मुंह ही नहीं खोला. तो फिर परेश रावल ने आंख के बगल में स्थित कान क्यों नहीं चेक किया और अचानक उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का शिकार अरुंधति रॉय ही कैसे हो गईं?
दरअसल पाकिस्तान की एक वेबसाइट ने अरुंधति रॉय के हवाले से एक फर्ज़ी बयान उछाला था कि चाहे सात नहीं सत्तर लाख सैनिक लगा दे फिर भी भारत कश्मीर को अपना नहीं बना सकेगा. इस वेबसाइट को भारत की कुछ मिथ्यावादी वेबसाइटों ने लपक लिया और अभिनेता परेश रावल उर्फ बाबू भाई ने पूर्वग्रह से ग्रसित होकर अपनी नफरत को अभिव्यक्ति दे दी. वामपंथी रुझान की अरुंधति रॉय का कश्मीर विवाद, अटल सरकार द्वारा किए गए पोखरण परमाणु परीक्षण, सरदार सरोवर बांध, इंदिरा सागर बांध, 2001 में हुए संसद हमले, गुजरात दंगे, ऑपरेशन ग्रीन हंट और माओवादियों को लेकर दक्षिणपंथियों से बिलकुल अलग स्टैंड रहा है, जिसे तथाकथित देशभक्त राष्ट्रद्रोह की संज्ञा देते हैं. यहां आकर दूसरों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शून्य हो जाती है और वे देशद्रोही का प्रमाणपत्र देने और पाकिस्तान भगाने समेत नारी देह से जुड़ी ऐसी-ऐसी गालियां देते हैं जिन्हें यहां लिखा ही नहीं जा सकता! स्पष्ट है कि परेश रावल ने किसी भोलेपन में वह ट्वीट नहीं किया और देश में बन रहे भावनात्मक माहौल का दोहन करते हुए अपने उद्देश्य में एक हद तक सफल भी हुए.
लेकिन परेश रावल के ट्वीट से एक अच्छी बात यह हुई है कि अभिव्यक्ति की मर्यादा को लेकर बहस पुनर्जीवित हो गई, क्योंकि इसकी स्वतंत्रता मनुष्य का एक सार्वभौमिक, लोकतांत्रिक और प्राकृतिक अधिकार है. किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाती है. संयुक्त राष्ट्रा संघ के सार्वभौमिक मानवाधिकारों के घोषणा पत्र में भी अभिव्य्क्ति की स्वततंत्रता का अधिकार दिया गया है. ख़ुद भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) देश के सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है लेकिन अनुच्छेद 19 (2) के मुताबिक यह स्वतंत्रता अमर्यादित और बिलाशर्त नहीं है. यह भारत की संप्रभुता और अखंडता के हित में राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, शालीनता और नैतिकता, अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिए दी गई व्यवस्था पर उचित प्रतिबंध लागू करता है.
हालांकि जहां एक व्यक्ति की स्वतंत्रता शुरू होती है, वहीं दूसरे व्यक्ति की जान पर भी बन सकती है. अविभाजित भारत में पहली बार 1920 के दशक में ऐसी घटना घटी थी जब लाहौर में आर्य समाजी हिंदू प्रकाशक राजपाल ने पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद के निजी जीवन पर एक विवादास्पद किताब प्रकाशित की थी. आख़िरकार एक मुस्लिम युवक ने 1929 में उनकी हत्या कर दी. सलमान रश्दी ने ‘सैटेनिक वर्सेस’ लिखी तो बरसों तक भूमिगत रहना पड़ा. हुसैन ने हिंदू-देवी देवताओं के अनावृत चित्र बनाए तो उनको दो गज ज़मीं भी न मिली कू-ए-यार में. तसलीमा नसरीन को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अतिक्रमण होने के नाम पर डीएन झा की 'द मिथ ऑफ़ द होली काउ', वेंडी डोनिगर की 'द हिन्दूज़' और डेसमंड स्ट्वार्ट की 'अर्ली इस्लाम' जैसी दर्जनों किताबों पर पाबंदी आयद है. दूसरों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करने वाले सिनेमा, कला, साहित्य और पत्रकारिता की राह में आए दिन खड़े ही रहते हैं लेकिन अपनी गालियां देने की स्वतंत्रता को लेकर छत पर खड़े होकर चिल्लाते हैं!
सोशल मीडिया के आगमन के बाद तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उस पराकाष्ठा पर पहुंच गई है कि आप मुजफ्फरनगर और असम जैसे भीषण दंगे करा सकते हैं, झारखंड में पीट-पीट कर लोगों को मरवा सकते हैं, औरतों को उनका गर्भाशय निकालने की धमकियां दे सकते हैं, ‘बाबर की संतान का एक स्थान--पाकिस्तान या क़ब्रिस्तान’ जैसे नारे उछाल सकते हैं. फर्ज़ी आईडी बनाकर कभी फोटोशॉप के माध्यम से तो कभी आपत्तिजनक भाषा से महापुरुषों की इज्जत उतार सकते हैं, कुलषित बयानों से सम्मानित नेताओं की अवमानना करके देश के माहौल को बिगाड़ सकते हैं! यानी आभासी होते हुए भी समाज में हाड़-मांस के वास्तविक हत्यारे पैदा कर सकते हैं.
वक्त आ गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हद स्वयं प्रयोगकर्ता न तय करे बल्कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय स्वतः संज्ञान लेकर संविधान की रोशनी में इसे ज़्यादा स्पष्ट और आमफहम करे. वरना आश्चर्य नहीं होगा कि परेश रावल जैसे मशहूर लोगों के बयान की अपने ढंग से व्याख्या करते हुए अरुंधति रॉय या अपने से विपरीत राय रखने वाले लोगों पर अपनी अभिव्यक्ति को स्वतंत्र कोई उत्तेजित भीड़ सचमुच हमला न कर बैठे!
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