आज जॉर्ज साहेब का 88वां जन्मदिन है. जॉर्ज इस हालत में नहीं हैं कि वो जन्मदिन की बधाई ले सकें. शायद यही वजह है कि जो लोग जॉर्ज की वजह से आज नेता बने हुए हैं उन्हें जॉर्ज याद नहीं.


मुझे पहले से मालूम था कि दिल्ली के एनडीएमसी हॉल में आज जहानाबाद के सांसद अरुण कुमार जॉर्ज का जन्मदिन मनाने वाले हैं. सुबह पीएम मोदी और बिहार के सीएम नीतीश कुमार का ट्विटर अकाउंट चेक किया. दोनों ने जॉर्ज को याद नहीं किया था. फिर मुझे लगा कि चलकर देखना चाहिए कि सांसद अरुण कुमार जो कार्यक्रम कर रहे हैं उसमें बुलाए गए बीजेपी के नेतागण पहुंचे हैं या नहीं. 11 बजे घर से निकला तब तक पीएम मोदी का ट्वीट नहीं आया था लेकिन 11 बजकर 10 मिनट पर उन्होंने जॉर्ज को याद किया.



दिल्ली के एनडीएमसी हॉल में दोपहर करीब 12 बजे मैं पहुंचा तो लोगों की भीड़ थी. जाने अनजाने चेहरे थे. ऐसा देखकर बिल्कुल नहीं लगा कि इनमें से नब्बे फीसदी लोग कभी जॉर्ज से मिले होंगे या फिर समाजवादी विचारधारा से रिश्ता रखते होंगे. खैर जन्मदिन का कार्यक्रम चल रहा था. मंच पर जॉर्ज की बड़ी तस्वीर लगी थी. बड़े बड़े लोगों के नाम लिखे गये थे. लेकिन दो बजे तक न तो एनडीए वन की सरकार में जॉर्ज के साथ मंत्री रहे सुरेश प्रभु पहुंचे थे और ना ही बाकी कोई सांसद.


कार्यक्रम के बीच में सांसद अरुण कुमार ने करीब एक बजे केक काटने की रस्म निभाई. मंच पर लोग बुलाए गए और सांसद अरुण कुमार के मुताबिक करीब 88 पॉन्ड का केक काटा गया. केक पर जॉर्ज की तस्वीर लगी थी. मुस्कुराते हुए शायद यही पूछ रहे थे कि अब तस्वीरों में सिमट चुका हूं.



सवाल ये नहीं कि जॉर्ज का जन्मदिन क्यों मनाया गया या क्यों नहीं मनाया गया. सवाल ये भी नहीं कि सुरेश प्रभु और बाकी सम्मानित सांसद इस कार्यक्रम में मेहमान थे तो वो क्यों नहीं आए. सवाल ये है कि 88 साल के जॉर्ज जो वाजपेयी के संकट मोचक कहे जाते थे उनके चेलों ने उन्हें जीते जी भुला क्यों दिया?


सांसद अरुण कुमार जॉर्ज विचार मंच नाम की संस्था के संरक्षक भी हैं. जॉर्ज जब समता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे उस वक्त अरुण कुमार के बिहार में युवा समता के प्रदेश अध्यक्ष थे. आज के कार्यक्रम में आए लोगों को मैं सुन रहा था. पूर्व विधायक केदार सिंह कह रहे थे कि जॉर्ज का असली उत्तराधिकारी अरुण कुमार को घोषित करना है. जॉर्ज को मुक्ति तभी मिलेगी जब अरुण कुमार उनकी समाजवादी विचारधारा के युवराज बनेंगे.



अच्छा हुआ कि जॉर्ज ये सब सुनने के लिए वहां नहीं मौजूद थे. नहीं तो न जाने वो क्या सोचते. जॉर्ज ने जिस कांग्रेस के खिलाफ राजनीति करके भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाई. जॉर्ज के चेलों ने उनकी नीति की धज्जियां उड़ा दी. सांसद अरुण कुमार भी एक वक्त में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने नालंदा पहुंच गये थे. नीतीश कुमार का तो नाम ही मत लीजिए. जॉर्ज की वजह से नीतीश बड़े नेता बने. लेकिन उन्हीं जॉर्ज को 2009 के चुनाव में बेटिकट करके बेइज्जत किया. जिस पार्टी को जॉर्ज ने बनाया था उसके खिलाफ 2009 में मुजफ्फरपुर से उन्हें निर्दलीय लड़कर हारना पड़ा.


जिस कांग्रेसी विचारधारा के खिलाफ जॉर्ज लड़ते लड़ते बीमार हो गये और जिंदगी के अंतिम दौर में चल रहे हैं. उस कांग्रेस के साथ नीतीश कुमार ने बीस महीने बिहार में गठबंधन की सरकार चलाई. नीतीश इस मामले में सिर्फ राजनीति की नीति के दोषी नहीं हैं बल्कि वो जॉर्ज के भी दोषी हैं. इसके लिए शायद जॉर्ज की आत्मा भी कभी उन्हें माफ नहीं करेगी.



आज के इस कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के वकील अशोक पांडा बता रहे थे कि इमरजेंसी के वक्त जॉर्ज को डायनामाइट केस में फंसाया गया था. दिल्ली में कोर्ट में जब उन्हें पेशी के लिया जाता था उसी वक्त की हथकड़ी वाली तस्वीर काफी चर्चित रही थी. पांडा कह रहे थे कि अगर 1977 में जनता पार्टी की सरकार नहीं बनी होती तो शायद जॉर्ज को तभी फांसी पर लटका दिया जाता.


उसी कांग्रेस पार्टी के साथ नीतीश जी ने बिहार में सरकार चलाई है. आगे कांग्रेस के साथ नीतीश हाथ नहीं मिलाएंगे इसकी भी कोई गारंटी नहीं है. शायद यही वजह है कि नीतीश कुमार ने आज ट्विटर पर भी जॉर्ज को याद नहीं किया.


एनडीएमसी हॉल के पास ही जंतर मंतर पर जेडीयू का राष्ट्रीय दफ्तर है. मैं वहां भी गया था. सन्नाटा पसरा था. दफ्तर का दरवाजा बंद था. एक भी न नेता था न कार्यकर्ता. शायद इन्हें याद भी न हो कि जॉर्ज कभी इस दफ्तर में बैठा करते थे. दरवाजा बंद था इसलिए मुझे ये पता नहीं चल पाया कि यहां जॉर्ज की कोई तस्वीर है भी या नहीं. हांलाकि पार्टी दफ्तर के गेट पर नीतीश की नीतियों वाली किताबें जरूर रखी गई थी. पटना दफ्तर का मुझे पता नहीं. लेकिन दिल्ली का जो हाल था उसी आधार पर आप तुलना कर सकते हैं.


जॉर्ज ने 1994 में नीतीश कुमार सहित कुल 14 सांसदों के साथ जनता दल से नाता तोड़कर जनता दल ज बनाया जिसका नाम अक्टूबर 1994 में समता पार्टी पड़ा. 1995 में पार्टी अपने दम पर बिहार विधानसभा चुनाव लड़ी लेकिन लालू को हरा नहीं पाई. बाद में 1996 में बीजेपी से समता पार्टी का गठबंधन हुआ. सब सहयोगियों को सरकार में शामिल किया गया तब वाजपेयी ने जॉर्ज को रक्षा मंत्री बनाया था. 1999 में करगिल के वक्त ताबूत घोटाला सामने आया. कांग्रेस ने संसद नहीं चलने दी कफन चोर तक कहा. लेकिन जब जांच हुई तो जॉर्ज बेदाग साबित हुए और दोबारा मंत्री बने.


ये जॉर्ज ही थे जिन्होंने मंत्री पद का मोह नहीं किया और आरोप लगने के बाद इस्तीफा दिया. और बेदाग हुए तो फिर मंत्री बने. जॉर्ज जब रक्षा मंत्री थे तभी देश में परमाणु परीक्षण हुआ था.


सांसद अरुण कुमार बताते हैं कि पहाड़ी और दुर्गम इलाकों में जब सैनिक पहले शहीद होते थे तो उनके शव वही दफना दिये जाते थे. लेकिन जॉर्ज ने रक्षा मंत्री रहते हुए ये व्यवस्था बदल दी और शहीदों के शव को उनके घर भेजा जाने लगा. जॉर्ज ही पहले रक्षा मंत्री थे जो सियाचिन गये.


जॉर्ज की वजह से ही वाजपेयी ने नीतीश कुमार को बिहार में सीएम पद का उम्मीदवार बनाया था. अब जब राजनीति में न तो वाजपेयी का जमाना है न जॉर्ज का. इसलिए ये जरूरी हो जाता है पूछना कि नीतीश ने अपने नेता जॉर्ज के लिए क्या किया ?


साल 2005 से 9 महीने को छोड़ दें तो नीतीश ही बिहार के सीएम हैं. जिस तरीके से केंद्र सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर योजनाएं चला रही हैं क्या बिहार में नीतीश जॉर्ज के नाम पर कोई योजना नहीं चला सकते ? लोहिया के नाम पर यूपी में योजनाएं चलती है तो बिहार में नीतीश क्या जॉर्ज साइकिल योजना, जॉर्ज सस्ता खाना योजना, जॉर्ज सड़क योजना, जॉर्ज ग्रामीण बस सेवा शुरू नहीं कर सकते. स्कूल, कॉलेज, पुल, अस्पताल के नाम क्या जॉर्ज के नाम पर नहीं हो सकता ?


जरूर कर सकते हैं, जरूर हो सकता है. लेकिन करना चाहे तब तो. नीतीश कुमार शायद बड़े नेताओं का वोट कनेक्शन खोजना चाहते हैं. जाति की राजनीति के लिए बदनाम बिहार में जॉर्ज का नाम नीतीश को किसी जाति का वोट नहीं दिलवा सकता. शायद इसीलिए जीते जी उनके चेले उन्हें भूल गये. मुझे पता नहीं कि दिल्ली में परिवार के साथ रह रहे जॉर्ज के परिवार से कोई मिलने जाता है या नहीं. लेकिन आज के दिन उनके राजनीतिक चेले भले ही उन्हें कुछ दे न पाएं हो लेकिन उन्हें उनके घर जाकर आशीर्वाद जरूर लेना चाहिए.


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