पिछले 90 साल से राष्ट्रीय स्वयंसेवक अपनी विचारधारात्मक निष्ठा, जीवनदानी स्वयंसेवकों, एकता और संगठन के लिए जाना जाता है. उसके विरोधी भी इन बातों का लोहा मानते हैं. लेकिन, ऐसा लगता है कि जब तक मोदी सरकार अपने पांच साल पूरे करेगी, संघ अपनी इन विख्यात खूबियों में से कई से वंचित हो चुका होगा. संघ के कोंकण प्रांत से गोवा की शाखा के अलग हो जाने की घटना कम से कम इसी अंदेशे की तरफ़ इशारा करती है. मोदी सरकार के प्रभाव में संघ के स्वयंसेवकों का बड़े पैमाने पर सरकारीकरण हो रहा है और सरकार की अर्थनीतियों के खिलाफ संघर्ष न करने का फैसला करके संघ इस प्रक्रिया को हवा दे रहा है. स्वयंसेवकों में सरकारी पदों पर बैठने और संस्थाओं की बागडोर अपने हाथ में लेने की होड़ लगी हुई है.
गोवा शाखा संघ में पनपे इस ताज़े रवैये का अपवाद साबित हुई है. वहां के संघचालक सुभाष वेलिंगकर के नेतृत्व में वहां के स्वयंसेवकों ने राज्य की उस भाजपा सरकार के खिलाफ बगावत का झंडा उठा लिया है जो अपने चुनावी वायदे से पलटते हुए मराठी और कोंकणी को शिक्षा के माध्यम के तौर पर प्रोत्साहित करने के बजाय चर्च द्वारा चलाए जाने वाले अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों को आर्थिक मदद दे रही है. यह सरकार भूल गई है कि जिस भारतीय भाषा सुरक्षा समिति के नेतृत्व में यह मांग की गई थी उसकी अगुआई वेलिंगकर के साथ-साथ वर्तमान मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर और आज के रक्षामंत्री मनोहर परिकर के हाथ में थी. आज पारसेकर और परिकर ने नितिन गडकरी (भाजपा की तरफ से गोवा के इंचार्ज) की मदद से उन्हीं वेलिंगकर को संघ के मुखिया पद से हटवाया है जिनकी सरपस्ती में उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा सीखी थी. यह अलग बात है कि गोवा में संघ के सभी सदस्य स्वयंसेवक से सरकार सेवक बने इन दो भाजपा नेताओं जैसे नहीं निकले. उन्होंने अपने संघचालक वेलिंगकर के साथ ही विरोध स्वरूप इस्तीफा दे दिया. संघ के इस लम्बे इतिहास में पहली बार ऐसी घटना हुई है. स्पष्ट रूप से यह विभाजन है, ठीक वैसा ही जैसा राजनीतिक दलों में होता है.

गोवा छोटी जगह है इसलिए वहाँ होने वाली घटनाएँ सुर्खियों में नहीं आतीं. लेकिन, इस मामले में गोवा हाँडी का एक चावल है जिसे परख कर पता लगाया जा सकता है कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रीय राजनीति में क्या पक रहा है. बजाय इसके कि संघ का केंद्रीय नेतृत्व एक अरसे से संघ और गोवा सरकार के बीच चल रहे इस विवाद में हस्तक्षेप करके कोई बीच का रास्ता निकालता, नागपुर स्थित संघ के आलाकमान ने अपने वरिष्ठ पदाधिकारी को दंडित करना पसंद किया. भाजपा और नागपुर को वेलिंगकर से उम्मीद थी कि वे अपने मुँह पर पट्टी बाँध कर घर बैठें और भाजपा सरकार को भूमण्डलीकरण की वाहक अंग्रेज़ी भाषा की ताबेदारी करने दें. फिलहाल संघ और भाजपा की केंद्रीय सरकार के बीच जो समझौता चल रहा है, उसके तहत ज़्यादा से ज़्यादा ऐसा ही हो सकता था.

भारतीय भाषा सुरक्षा समिति तो एक छोटा सा क्षेत्रीय संगठन है. संघ ने मोदी सरकार को बेरोकटोक चलने देने के लिए भारतीय मज़दूर संघ, भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच जैसे अपने अखिल भारतीय राष्ट्रीय संगठनों को सख्ती के साथ ठंडे बस्ते में बंद कर रखा है. जब इनमें से कोई भूमण्डलीकरण विरोधी जोश के साथ उभरने की कोशिश करता है तो उसकी आवाज़ फौरन दबा दी जाती है. जब मोदी सरकार बनी थी, तो संघ ने इन संगठनों पर एक साल की पाबंदी लगाई थी कि वे इस बीच में सरकारी नीतियों की आलोचना नहीं करेंगे. तब ऐसा लगा था कि साल भार बाद संघ मोदी सरकार की समीक्षा करेगा, और फिर इस पाबंदी पर पुन: विचार किया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यह पांबदी जारी है, और मेरा ख्याल है कि जारी रहेगी. हाँ, यह ज़रूर है कि जिस दिन केंद्र में ग़ैर-भाजपा सरकार बनेगी, उसी दिन ये सभी संगठन अपने भूममंडलीकरण विरोधी हरबे-हथियारों समेत सड़कों पर निकल आएँगे.

दरअसल, इस समय संघ का उद्देश्य मोदी सरकार का सहारा लेकर अपना प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ सरकारी तंत्र में अपना असर बढ़ाना है. जल्दी ही भारतीय भाषा सुरक्षा समिति भी उसी ठंडे बस्ते में बंद नज़र आएगी जिसमें संघ परिवार के वे संगठन बंद हैं जिनका एजेंडा अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण और समाज-संस्कृति पर पश्चिमी प्रभाव का विरोध करना है.

 लेखक सीएसडीएस में भारतीय भाषा कार्यक्रम का निदेशक और प्रोफेसर है. इस लेख में व्यक्त तथ्य और विचार के लिए सिर्फ लेखक जिम्मेदार हैं.